Friday 31 May 2019

हम हिन्दुस्तानिओं को अंग्रेजी का गुलाम मत बनाओ - कुशराज झाँसी

लेख - " हम हिन्दुस्तानिओं को अंग्रेजी का गुलाम मत बनाओ "


हम हिन्दुस्तानी सरकार से गुजारिश करते हैं कि हमें विदेशी भाषा अंग्रेजी का गुलाम मत बनाओ। हम हिन्दुस्तानी अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही सारा काम - काज करना चाहते हैं। जिससे हमारी प्रगति होगी और देश का मान - सम्मान बढ़ेगा। हम अंग्रेजी का पूर्णतः बहिष्कार करते हैं। सुनो सरकार! ऐसी परिस्थितियाँ मत बनाओ कि हमें विवश होकर अंग्रेजी का मानसिक गुलाम बनना पड़े और अपनी शाश्वत भारतीय संस्कृति को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाना पड़े। जैसा आजकल ज्यादातर लोग कर भी रहे हैं, जिन पर सरकार कोई अंकुश नहीं लगा रही है। साथ ही साथ इनका सहयोग करती भी नजर आ रही है।

किसी भी देश की भाषा उस देश की संस्कृति की संवाहक, अस्मिता की रक्षक और देशवासियों की पहचान होती है। हमारा भारत देश विभिन्नताओं में एकता के रूप में शुमार है। इसे बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी देश के रूप में भी जाना जाता है। आज अनेकों भारतीय भाषाओँ का नेतृत्त्व हिन्दी कर रही है।

हमारी भारतीय संस्कृति के प्रतीक ग्रन्थ चारों वेद, अट्ठारह पुराण, उपनिषद्, महाभारत और रामायण इत्यादि आदिभाषा देववाणी संस्कृत में लिखे हुए हैं, जो प्राचीन कल से लेकर आज तक भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि धर्म 'हिन्दू (सनातन) धर्म' का प्रचार - प्रसार कर रहे हैं और भारत की विजयी पताका अध्यात्म एवं दर्शन के क्षेत्र में सारी दुनिया में फहरा रहे हैं।

बौद्धकाल (500 ई. पू. से 01 ई. तक) में संस्कृत का स्थान लोकभाषा पालि ने ले लिया। इसी पालि भाषा में भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए और बौद्ध धर्म का आधार ग्रन्थ 'त्रिपिटक' भी लिखा गया। आज बौद्ध धर्म के अनुयायी दुनिया के हर देश में हैं।

जैनकाल (01 ई. से 500 ई. तक) में प्राकृत भाषा का चलन हो गया। सम्पूर्ण जैन साहित्य प्राकृत भाषा में ही लिखा गया है। जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने उपदेश प्राकृत में ही दिए। आजकल जैन धर्म दुनिया का बहुत अच्छा धर्म माना जाता है।

सन् 500 से 1000 ई. की अवधि के बीच अपभ्रंश भाषा का प्रचलन हो गया। इस भाषा को अवहट्, अवहत्थ और 'देशभाषा' आदि की संज्ञा दी गयी। अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ होता है - 'बिगड़ा हुआ या गिरा हुआ' अर्थात् अपभ्रंश देहाती लोगों और आमजन की भाषा है जिसे तथाकथित सभ्य समाज और शिक्षित वर्ग 'गिरा हुआ' समझते हैं।

असल बात तो यह है कि हमारे भारत की आत्मा गाँवों (देहात) में बसती है। उन गाँवों में जहाँ अनपढ़, किसान, मजदूर और गरीब रहते हैं। आज इन किसान - मजदूरों भी भाषा को 'देहाती' और 'गवारूँ' की संज्ञा दी जाती है। अपभ्रंश काल में यही 'देशभाषा' थी, जो सारे देश में बहुतायत में बोली जाती थी।

सन् 1000 ई. के बाद अपभ्रंश (देशभाषा) के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से विकसित आधुनिक आर्य (भारतीय) भाषाओँ जैसे - हिन्दी, खड़ीबोली, बुन्देली, ब्रजभाषा, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी गुजराती, मराठी, पंजाबी, बंगला, उड़िया और असमिया इत्यादि भाषाओँ और बोलियों का वर्चस्व रहा। हिन्दी भाषा जो 17 बोलियों (खड़ीबोली, अवधी, ब्रजभाषा, बुन्देली, हरियाणवी, छत्तीसगढ़ी, मारवाड़ी, जयपुरी, भोजपुरी, मगही, गढ़वाली इत्यादि) का समूह है। आज हिन्दी भाषा आधुनिक भारतीय भाषाओँ का नेतृत्त्व कर रही है। देश की आधी से अधिक आबादी हिन्दी का प्रयोग कर रही है। हिन्दी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जानेवाली तीसरी भाषा भी बन गयी है। फिर भी उसकी जन्मभूमि भारत में ही 'हिन्दी' और उसकी जननी 'संस्कृत' की घोर उपेक्षा की जा रही है। आजकल सिर्फ अंग्रेजी का दौर नजर आ रहा है।

आज दुनिया के विभिन्न देशों के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्ययन - अध्यापन हो रहा है और हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद - 343 के अनुसार भारतीय संघ की राजभाषा और देश की सम्पर्क भाषा, कई राज्यों की राजभाषा होने के बावजूद विदेशी भाषा अंग्रेजी से मात खाती हुई दिखाई दे रही है। जो हम सबके लिए सोचनीय है।


आजकल हमारे देश में उस अंग्रेजी को जो स्वार्थ और धनलिपसा की परिचायक है, को विकास की भाषा और आधुनिक बुद्धजीवियों, प्रतिभाशालियों की भाषा करार दिया जा रहा है। हर जगह हिन्दी सह अंग्रेजी की बदौलत हिन्दी बनाम अंग्रेजी नजर आ रही है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद - 348 के अनुसार उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में संसद व राज्य विधानमण्डल में विधेयकों, अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा, उपबंध होने तक अंग्रेजी जारी रहेगी। जब देश की आमजनता को न्याय उसकी मातृभाषा में ही न सुनाया जाए तो इससे बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है ? आखिर कब हमें न्याय अपनी भाषा में मिलेगा ?

आजकल अंग्रेजी का बोलबाला संघ लोकसेवा आयोग (यू. पी. एस. सी.) की सिविल सेवा परीक्षा (सी. एस. ई.) में कुछ ज्यादा ही दिख रहा है। सिविल सेवा परीक्षा में जहाँ हिन्दी माध्यम के सिर्फ 40 - 50 अभ्यर्थी ही सफल हो पाते हैं और वहीँ अंग्रेजी माध्यम के 850 - 950 अभ्यर्थी सफल होते हैं। आजतक कोई भी हिन्दी माध्यम से सिविल सेवा परीक्षा में टॉप नहीं कर सका। जो हमारी राजभाषा हिन्दी के लिए घोर अपमानजनक है। जबतक देश की सर्वोच्च परीक्षा में ही विदेशी भाषा अंग्रेजी का बोलबाला रहेगा तबतक हिन्दी वालों का उद्धार न हो सकेगा और न ही देश का विकास। आखिर कब सिविल सेवा परीक्षा से अंग्रेजी माध्यम का अस्तित्त्व खत्म होगा ? आखिर कब सिविल सेवा परीक्षा में हिन्दी माध्यम वालों को उनका हक मिलेगा ? मेरा मत है कि सिविल सेवा परीक्षा सिर्फ और सिर्फ देशीभाषाओँ में ही होनी चाहिए तभी देश का विकास हो सकेगा।


शिक्षा - संस्थान ही भाषा का सच्चा प्रचार - प्रसार करते हैं और छात्र ही देश के भाग्यविधाता होते हैं। आजकल देश दुनिया में प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय और संबद्ध कॉलेजों में अधिकतर कार्यालयी काम - काज सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में हो रहे हैं। वहीँ कॉलेजों में हिन्दी भाषा और साहित्य को लेकर लाखों - करोड़ों रूपए राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों (सेमिनारों), व्याख्यानों,पत्र - पत्रिका और पुस्तक प्रकाशन तथा प्रतियोगिताओं में खर्च किए जा रहे हैं। अधिकतर हिन्दी के प्रोफेसर, छात्र और साहित्यकार ही हिन्दी में हस्ताक्षर नहीं करते। ये तथाकथित लोग सिर्फ और सिर्फ भाषणों में ही हिन्दी के प्रयोग और विकास की बात करते हैं और जमीनी स्तर पर नाममात्र के काम करते हैं। स्नातक हिन्दी ऑनर्स, संस्कृत ऑनर्स और दो - चार कोर्सों को छोड़कर सभी स्नातक और परास्नातक पाठ्यक्रमों का अध्ययन - अध्यापन अंग्रेजी माध्यम में ही हो रहा है। जब अपने ही देश के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अपनी मातृभाषा में अध्ययन - अध्यापन ही नहीं कर पा रहे हैं तो और कहाँ कर पाएँगे। आखिर कब देश के हर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में सारे कोर्सों का अध्ययन - अध्यापन मातृभाषा, हिन्दी माध्यम में होगा ?


आज हमारे लिए सबसे बड़ी दुःख की बात यह है कि भारतीय संस्कृति पर नाज करने वाली, हिन्दूवादी एवं राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्त्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश के गाँव - गाँव ने अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोल रहे हैं और देश के भविष्य 'छात्रों' को अंग्रेजी के मानसिक गुलाम बना रहे हैं। हमारी मातृभाषा हिन्दी का अपमान कर रहे हैं। हमारी शिक्षा - व्यवस्था चुस्त - दुरुस्त न होने की बजह से इन गाँवों के सरकारी स्कूलों में हिन्दी माध्यम की पढ़ाई - लिखाई ठीक से नहीं हो रही है। यहाँ पर शिक्षा विद्यार्थियों का मिड - डे  मील की सामग्री तक हजम कर जा रहे हैं। ऊपर से सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के मताई - बाप किसान - मजदूर हैं, जिन्हें अपने काम से ही फुर्सत नहीं मिलता। यदि फुर्सत मिले तो ये अपने बच्चों की पढ़ाई का जायजा भी ले सकें। ये किसान - मजदूर कर ही क्या सकते हैं, जो करना है सरकार को करना है। सरकार द्वारा अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल खोलकर जनमानस और ज्यादा बेरोजगारी और कुशिक्षा को बढ़ावा देने की साजिश नजर आ रही हैं। अंग्रेजी माध्यम की जगह सरकार को क्षेत्रीय भाषाओँ और बोलियों वाले माध्यमों में स्कूल खोलने चाहिए ताकि विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा प्राप्त कर सके और मातृभाषा का विकास कर सके। सरकार को अंग्रेजी माध्यम में संचालित होने वाली संस्थाओं पर प्रतिबंध भी लगाना चाहिए। माननीय मुख्यमंत्री को हिन्दी के साथ - साथ संस्कृत भाषा को अनिवार्य करना चाहिए और अंग्रेजी का पूर्णतः बहिष्कार करना चाहिए तभी हमारी भारतीय संस्कृति की विजयी पताका सारी दुनिया में लहर सकेगी और भारत देश विकसित देश बन सकेगा। हमें हमेशा अपनी मातृभाषा में काम करना चाहिए। इस संदर्भ में मेरा लेख 'अपनी मातृभाषा में काम करो' उल्लेखनीय है। जो इस प्रकार है -:


                आज मेरी सबसे बड़ी कमी और परेशानी ये है कि मुझे अंग्रेजी नहीँ आती है। मैं न ठीक से अंग्रेजी समझ पाता हूँ और न ही बोल पाता हूँ। मुझे अंग्रेजी का थोड़ा बहुत ज्ञान तो है। पर सबसे बड़ी बात ये है कि मैं विदेशी भाषा को उतना महत्त्व नहीं देता जितना अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा 'हिन्दी' को और आपसे भी कहता हूँ कि आप भी मेरा साथ दीजिए और विदेशी भाषा का कामचलाऊ ज्ञान रखिए और अपनी मातृभाषा में सारा काम कीजिए और अपनी तरक्की और अपने देश की तरक्की कीजिए ।

                     कोई भी देश किसी विदेशी भाषा में कामकाज करके तरक्की नहीं करता और न ही कर सकता है। प्रत्येक विकसित देश सदैव अपनी मातृभाषा में काम करके इस मुकाम तक पहुँचा है। इसी संबंध में 'भारतेंदु हरिश्चन्द जी' ने कहा हैं - " निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।। "

                     हमारे भारत देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि ये मातृभाषा के साथ विदेशी भाषा अंग्रेजी में अपने राज - काज का क्रियान्वयन करता है। जिस दिन से हमारा देश विदेशी भाषा अंग्रेजी, जिसके हम मानसिक गुलाम हैं, उसमें राज - काज करना छोड़ देगा और केवल अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा 'हिंदी' में राज - काज का क्रियान्वयन शुरू कर देगा। उसी दिन से इसकी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की होना शुरू हो जायेगी और ये विकसित देश बन जायेगा और साथ ही साथ फिर से 'विश्वगुरु' और 'सोने की चिड़िया' की पदवी को पा लेगा।

               
     ✍ कुशराज झाँसी

  (महासचिव - हिन्दी साहित्य परिषद्, हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय)

_ 28/5/2019_ 4:24 शाम _ झाँसी बुंदेलखंड

  





Saturday 11 May 2019

मातृ दिवस पर विशेष कविता - ममता मेरी माँ...


दैनिक विजय दर्पण टाइम्स, मेरठ में आज गुरुवार, 11 मई 2019 को प्रकाशित मेरी कविता 'ममता मेरी माँ'...
बहुत - बहुत आभार 🙏🙏🙏 संपादक महोदय - संतराम पाण्डेय


मातृ दिवस (12 मई) की अनन्त शुभकामनाएँ!!! 💐💐💐

मातृ दिवस पर विशेष

कविता -  ममता मेरी माँ
'ममता' मेरी माँ
ममता करती माँ
मेरी ख़ातिर दिन - रात काम करती माँ
खेतों में काम करती माँ
अन्नदात्री है मेरी माँ
कभी - न डाँटती मेरी माँ
मुझे प्रोत्साहित करती मेरी माँ
तुझे कोटि - कोटि प्रणाम! मेरी माँ
ममता मेरी माँ..........
✍🏻परिवर्तनकारी कुशराज
     झाँसी बुन्देलखण्ड....
Kushraaz.blogspot.com



Friday 10 May 2019

दैनिक विजय दर्पण टाइम्स, मेरठ

दैनिक विजय दर्पण टाइम्स, मेरठ में आज गुरुवार, 09 मई 2019 को प्रकाशित मेरी कविता 'अब मैं अबला नहीं, सबला हूँ।'...
बहुत - बहुत आभार 🙏🙏🙏 संपादक महोदय - संतराम पाण्डेय


कविता - " अब मैं अबला नहीं, सबला हूँ। "

हे नारी!
अब तुम अबला नहीँ; सबला हो
फिर भी तुम क्यूँ ठगी जाती हो?
मुझे समझ नहीँ आता
तुम जल्द ही किसी के प्रेमजाल में क्यूँ फँस जाती हो?
और हर बार तुम ही दोषी साबित होती हो
मैं ये नहीँ कहता -
प्रेम करना बुरी बात है
लेकिन ये जरूर कहता हूँ -
कि प्रेम सोच समझकर करो
क्यूँकि जमाना बदल गया है
और उसके साथ ही साथ लोग
और उनकी सोच और मानसिकता भी
वो आज भी तुम्हें भोग-विलास की वस्तु समझते हैं
फिर भी तुम सब कुछ जानते हुए भी
अबला ही बनी रह जाती हो
अपने ठगियों को क्यूँ नहीँ समझाती हो
क्यूँकि अब तुम अबला नहीँ, सबला हो
तुम ईंट का जबाव पथरा से दो
जो तुम्हें ठगता है
उनसे कहो -
अब मैं अबला नहीँ, सबला हूँ
पहले मैं तुमको कई बार परखूँगी
फिर तुम्हारे प्रेमजाल में फसूँगी
अगर फिर भी तुम ठगोगे
तो तुम पर दया न बरतकर
तुम्हें उसकी कड़ी से कड़ी सजा दूँगी
यहाँ तक मौत भी
इसलिए सचेत करती हूँ -
अब तुम सुधर जाओ और संभल जाओ
मुझ पर अत्याचार करना बंद करो
क्या तुम्हें पता नहीँ -
कि जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं
यदि तुम मेरा सम्मान नहीँ करोगे
तो मैं भी तुम्हारा सम्मान नहीँ करुँगी
अब मैं बार - बार मिलन - जुदाई के चक्कर में नहीँ फसूँगी
एक बार ही सोच - समझकर प्रेम करुँगी
अब मैं अबला नहीँ, सबला हूँ।

✍🏻 परिवर्तनकारी कुशराज
     झाँसी बुन्देलखण्ड....

#कुशराज
#कुशराजकीरचना
#परिवर्तनकारीकुशराज
#कविता
#नारीवाद
#स्त्रीविमर्श
#हिन्दी
#युवा
#छात्र
#छात्राएँ
#कॉलेज
#विश्वविद्यालय
#साहित्य
#समाज
#दर्शन
#संस्कृति
#सिनेमा
#क्रांति
#परिवर्तन
#विकास
#आन्दोलन
#Feminism
#Metoo
#MeTooMovement
#Metoo_campaign
#Kushraaz
#RevolutionaryKushraaz
#College
#University
#Literature
#Society
#Culture
#Philosophy
#Cinema
#Revolution
#Change
#Development
#Movement



Thursday 9 May 2019

नरवाद यानि पुरुष - विमर्श (Manism) ~: कुशराज झाँसी


     सिद्धांत -  " नरवाद " यानि " पुरुष - विमर्श " (Manism) 


क्रांति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। हर युग में क्रांतियाँ हुईं हैं, आंदोलन हुए हैं और आज भी हो रहे हैं। जिससे व्यवस्था में परिवर्तन हुआ है और निरंतर विकास का मार्ग प्रशस्त करने में कामयाबी मिल पायी है।

इस धरती पर जब से जीवन की उत्पत्ति हुई है, तभी से निरंतर कई परिवर्तन होते आए हैं। जीवन की उत्पत्ति के साथ पेड़ - पौधों, जीव - जन्तुओं और मानव का जन्म हुआ। मानव यानि मनुष्य (Human) इस पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान प्राणी है इसलिए इसका वैज्ञानिक नाम 'होमो सेपियन्स' रखा गया है। मानव को भी लिंग के आधार नर यानि पुरुष (Man) और नारी यानि स्त्री (Woman) में विभाजित किया गया है। विभाजन और वर्गीकरण की प्रक्रिया जीवन चक्र में निरंतर चलती रहती है, जो आवश्यक भी है।

ऐसा माना जाता है कि जब से धरती पर नारी (स्त्री) की उत्पत्ति हुई तभी से नरों (पुरुषों) द्वारा उसका शोषण होता आ रहा है। जो सत्य भी है। यहाँ तक की स्त्रियों ने स्त्रियों का भी शोषण किया है। आज की भाँति पितृसत्तात्मक व्यवस्था में नारी का पुरुषों द्वारा यौन - शोषण किया जाता रहा है। नारी को सिर्फ और सिर्फ भोग - विलास की वस्तु समझा जाता रहा है। नारी को हमेशा चारदीवारी में कैद रहने के लिए विवश किया जाता रहा है। नारी को कभी भी स्वतंत्र नहीं करने की बात हमेशा होती रही है। हमारे भारत देश में नारी को देवी मानकर पूजनीय माना गया है। मानवधर्म ग्रन्थ 'मनुस्मृति'  के अनुसार - यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता। अर्थात् जहाँ नारी  की पूजा होती है, वहाँ देवता वास करते हैं। मनुस्मृति में ही अन्य जगह लिखा है कि एक स्त्री को कभी भी स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए और उसे हमेशा पुरुष के संरक्षण में रहना चाहिए। बाल्यावस्था में पिता की, वयस्कावस्था में पति की और वृद्धावस्था में पुत्र की सुरक्षा में रहना चाहिए। स्त्री को पुरुष के संरक्षण में जीना चाहिए ऐसी अवधारणा रही है। इस अवधारणा का मैं पुरजोर विरोध करता हूँ और कहता हूँ कि स्त्री को भी हमेशा आजाद रहना चाहिए। तभी जीवन में सन्तुलन बना रह सकता है।

हिन्दू धर्म में जहाँ ब्राह्मणों और क्षत्रियों में पुरुषों द्वारा बहुविवाह करने का चलन (फैशन) रहा है और आज भी हिन्दू पुरुष अधिकतम सात विवाह कर सकता है। हिन्दू राजा कई रानियाँ रखते थे। वहीं आज भी ब्राम्हण और क्षत्रियों में विधवाओं का पुनर्विवाह होना मुश्किल हो रहा है। हिन्दू धर्म में स्त्रियों द्वारा घूँघट करने की कुप्रथा चली आ रही है। वहीं इस्लाम भी पैगम्बर की ही अनेक पत्नियाँ थीं और बादशाहों द्वारा कई बेगमें रखने का प्रावधान रहा है। इस्लाम में पर्दा प्रथा निरतंर चली आ रही थी और मुस्लिम स्त्रियों द्वारा बुर्खा पहनने की परम्परा भी है। दहेज प्रथा तो समाज में हर जगह विद्यमान है। इन सब प्रथाओं का धीरे - धीरे अंत भी हो रहा है और होना भी चाहिए।

प्राचीनकाल से ही समाज में वेश्यावृत्ति यानि रण्डीबाजी का चलन रहा है। कई स्त्रियाँ वेश्या बनकर जीवन यापन करती रहीं हैं। आज भी वेश्यावृत्ति का चलन खूब है। वेश्यावृत्ति एक धंधा बना हुआ है। जो स्त्रियों और पुरुषों दोनों के लिए घातक है। वेश्यावृत्ति के चलते पारिवारिक रिश्तों में दरार आयी है और समाज में संवेदनहीनता, लालच और स्वार्थीपन सर्वत्र फैल चुका है।

बीसवीं सदी में नारीवाद यानि स्त्री - विमर्श (Feminism) अवधारणा का प्रवर्त्तन हुआ। जिसके तहत जागरूक और दूरदर्शी स्त्रियों और पुरुषों ने नारी - शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई। अनेक नारीवादी आन्दोलन हुए, क्रांतियाँ हुईं, जिनके फलस्वरूप स्त्रियों के सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समानता के अधिकारों को प्राप्त किया गया। नारीवादी विचारधारा के आने से समाज में स्त्रियों की दशा में काफी सुधार हुआ। नारीवादी आंदोलन होने से नारीवादी साहित्य की होड़ लग गयी और स्त्री - विमर्श चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया।
आज नारीवादी आंदोलन होने से और साहित्य जगत में स्त्री - विमर्श अर्थात् नारीवाद आने के परिणामस्वरूप स्त्रियाँ हर क्षेत्र में पुरुषों के समान अधिकार पाती जा रही हैं। नारीवाद की अति हो जाने के कारण स्त्रियों ने पुरुषों के समान धूम्रपान और मदिरापान करना भी शुरू कर दिया है। जो स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। स्त्रियों के स्वास्थ्य का प्रभाव उनकी सन्तानों पर अत्यधिक पड़ता है। अतः स्त्रियों को अपनी सन्तानों का भी ख्याल जरूर रखना चाहिए।

जितने जोरों पर आज नारीवाद अर्थात् स्त्री - विमर्श की चर्चा चल रही है। उतने ही जोरों से 'नरवाद' अर्थात् 'पुरुष-विमर्श' (Manism) की चर्चा करने की बेहद जरूरत है। मेरे अनुसार - " पुरूषों के सामाजिक, राजनैतिक शोषण से मुक्ति और सभी पुरुषों को हर क्षेत्र में समानता का अधिकार प्राप्त होना ही नरवाद यानि पुरुष - विमर्श (Manism) है। जिसमें आंदोलन, क्रांतियाँ करना बाजिब हैं।"

जब से धरती पर पुरुष ने जन्म लिया तभी से शक्तिशाली पुरुषों  और शक्तिशाली स्त्रियों ने कमजोर पुरुषों का शोषण किया। इन पुरुषों से गुलामी करवाई और शारीरिक एवं मानसिक शोषण किया। मातृसत्तात्मक व्यवस्था में पुरूषों का यौन - शोषण भी किया गया है। कहीं न कहीं एक स्त्री द्वारा कई पति भी रखे जा रहे हैं। शोषित पुरुषों को साहित्य जगत में 'दलित' की संज्ञा दी गई है।

आज भी पुरुषों का शोषण हो रहा है। बालकों का वरिष्ठजनों द्वारा शोषण किया जा रहा है। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में युवा छात्रों का तथाकथित प्रोफेसरों द्वारा शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाता है। युवा छात्रों की आवाजों को दबाया जा रहा है। महिला प्रिंसिपलों द्वारा छात्रों के अधिकारों का हनन किया जा रहा है और कॉलेज प्रशासन पर मनमाना शासन किया जा रहा है। प्रोफेसर छात्रों को चापलूसी यानि चाटुकारिता करने को विवश करते हैं और छात्रों से अपने अनुसार काम करवाते हैं। यहाँ तक की घरेलू काम - काज भी करवाते हैं।


आज देश - दुनिया के महानगरों में वेश्यावृत्ति यानि रण्डीबाजी की तर्ज पर पुरूष - वेश्यावृत्ति अर्थात् रण्डाबाजी का चलन (फैशन) जोरों पर चल रहा है। यौन कुण्ठा की शिकार स्त्रियाँ जिंगोलों अर्थात् पुरुष - वेश्या के द्वारा अपनी काम - भावना की पूर्ति कर रहीं हैं। एक युवती कई प्रेमी (बॉयफ्रेंड) रख रही है। कई लड़के एक ही लड़की के प्यार में पागल पड़ रहे हैं और अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। एक लड़की प्यार का नाटक करके कई लड़कों से यौन - संबंध स्थापित करने को तैयार हो रही है। जब लड़कों को इस बात का पता चल रहा है कि मेरी गर्लफ्रेंड किसी और की भी गर्लफ्रेंड है, तब लड़के आत्महत्या तक कर रहें हैं। लड़कियों द्वारा लड़कों इमोशनली ब्लैकमेल किया जा रहा है और उन्हें यूज़ करके छोड़ दिया जा रहा है। यहाँ तक कुछ झूठी प्रेमिकाएँ अपने दूसरे प्रेमी के चक्कर में एक प्रेमी की हत्या करवाने को उतारूँ हो रही हैं। जो सरासर गलत है।

आज कई देशों में सामान्य पुरुषों के अधिकारों को छीना जा रहा है। स्त्रियाँ पुरुषों पर अपना रुतवा जमा रहीं हैं और उनका शोषण भी कर रहीं हैं। आवश्यकता है - युवा प्रेमियों को अपनी ईमानदार प्रेमिका चुनने की और हर मुशीबत का सामना करने की। साथ ही साथ लड़कियों के प्रति झिझक मिटाने की।

  समकालीन परिस्थितियों को देखते हुए नरवाद यानि पुरुष - विमर्श की आवश्यकता पड़ी है। जिसका अभी सफर बाकी है।

✍  कुशराज झाँसी

_9/5/2019_1:50 रात _ दिल्ली

#नरवाद
#पुरुषविमर्श
#वीटू
#वीटूअभियान
#वीटूआंदोलन
#कुशराज
#परिवर्तनकारीकुशराज
#नारीवाद
#स्त्रीविमर्श
#पुरुषशोषण
#दलित
#जिंगोले
#युवा
#छात्र
#छात्राएँ
#कॉलेज
#विश्वविद्यालय
#साहित्य
#समाज
#दर्शन
#संस्कृति
#सिनेमा
#क्रांति
#परिवर्तन
#विकास
#आन्दोलन
#Manism
#Wetoo
#WeTooMovement
#Wetoo_campaign
#Kushraaz
#College
#University
#Literature
#Society
#Culture
#Philosophy
#Cinema
#Dalit
#Revolution
#Change
#Development
#Movement







हिंदी बिभाग, बुंदेलखंड कालिज, झाँसी खों अथाई की बातें तिमाई बुंदेली पत्तिका भेंट.....

  हिंदी बिभाग, बुंदेलखंड कालिज, झाँसी में मुखिया आचार्य संजै सक्सेना जू, आचार्य नबेन्द कुमार सिंघ जू, डा० स्याममोहन पटेल जू उर अनिरुद्ध गोयल...