Tuesday 19 September 2023

गणेश उत्सव आस्था की परंपरा - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

आप सभी हिन्दू धर्मावलंबियों, देशवासियों और बुन्देलखण्डवासियों को गणेश उत्सव की भौत - भौत शुभकामनाएँ 🌷🌷🌷🌺🌺🌺🚩🚩🚩


गणेश उत्सव - २०३३ पर विशेष लेख....


*** गणेश उत्सव आस्था की परंपरा ***

©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

(सदस्य - बुंदेलखंड साहित्य उन्नयन समिति, झाँसी)

16/9/2023, झाँसी



           चित्र : गणेश उत्सव (साभार - गूगल)


आज गणेश चतुर्थी से गणेश उत्सव प्रारंभ हो रहा है। गणेश उत्सव आस्था की परंपरा का पर्व है। जब हमारा भारत देश पराधीनता की जंजीरों में जकड़ा हुआ था तब देश की आजादी के मतवालों ने अँग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाने के लिए अपनी जान की बाजी लगाते हुए देश को आजाद कराने के लिए अनेकानेक जनजागरण आंदोलन किए।  देश के लाखोंलाख लोगों ने अपनी प्राणों की कुर्बानी देकर देश को आजादी दिलाई। क्रांतिकारी हों या समाज सुधारक, राजनेता हों या साधु - संत, साहित्यकार हों या देश के गरीबगुरबे सभी ने आजादी के महायज्ञ में अपनी - अपनी आहुतियाँ दीं। गणेश उत्सव के इतिहास और उसकी मंशा को समझने के लिए लेखक रमेश सर्राफ के विचारों से अवगत होना भी आवश्यक है। वे लिखते हैं -

देश की आजादी के आन्दोलन में गणेश उत्सव ने भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। सन 1894 में अंग्रेजों ने धारा 144 भारत में एक कानून बनाया था, जो आजादी के इतने वर्षों बाद आज भी लागू है। इस कानून में किसी भी स्थान पर 5 से अधिक व्यक्ति इकट्ठे नहीं हो सकते थे और न ही समूह बनाकर कहीं प्रदर्शन कर सकते थे। महान क्रांतिकारी बंकिमचंद्र चटर्जी ने 1882 में वन्देमातरम गीत लिखा था। जिस पर भी अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा कर गीत गाने वालों को जेल में डालने का फरमान जारी कर दिया था। इन दोनों बातों से लोगों में अंग्रेजों के प्रति बहुत नाराजगी व्याप्त हो गयी थी। लोगों में अंग्रेजों के प्रति भय को खत्म करने और इस कानून का विरोध करने के लिए महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणपति उत्सव की स्थापना की और सबसे पहले पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव यानी गणेश उत्सव का आयोजन किया गया।


1894 से पहले लोग अपने-अपने घरों में गणपति उत्सव मनाते थे, लेकिन 1894 के बाद इसे सामूहिक तौर पर मनाने लगे। पुणे के शनिवारवड़ा के गणपति उत्सव में हजारों लोगों की भीड़ उमड़ी। लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजों को चेतावनी दी कि हम गणपति उत्सव मनाएंगे, अंग्रेज पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके दिखाए। कानून के मुताबिक अंग्रेज पुलिस किसी राजनीतिक कार्यक्रम में एकत्रित भीड़ को ही गिरफ्तार कर सकती थी, किसी धार्मिक समारोह मे उमड़ी भीड़ को नहीं। गणेश उत्सव के पीछे सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य भी निहित रहा है। 20 अक्तूबर 1894 से 30 अक्तूबर 1894 तक पहली बार 10 दिनों तक पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव मनाया गया। लोकमान्य तिलक वहाँ भाषण के लिए हर दिन किसी बड़े नेता को आमंत्रित करते। 1895 में पुणे के शनिवारवाड़ा में 11 गणपति स्थापित किए गए। उसके अगले साल 31 और अगले साल ये संख्या 100 को पार कर गई। फिर धीरे -धीरे महाराष्ट्र के अन्य बड़े शहरों अहमदनगर मुंबई, नागपुर, थाणे तक में गणपति उत्सव बढ़ता गया। गणपति उत्सव में हर वर्ष हजारों लोग एकत्रित होते और बड़े नेता उसको राष्ट्रीयता का रंग देने का कार्य करते थे। इस तरह लोगों का गणपति उत्सव के प्रति उत्साह बढ़ता गया और राष्ट्र के प्रति चेतना बढ़ती गई।


1904 में लोकमान्य तिलक नें लोगों से कहा - 

" गणपति उत्सव का मुख्य उद्देश्य स्वराज्य हासिल करना है। आजादी हासिल करना है और अंग्रेजों को भारत से भगाना है। आजादी के बिना गणेश उत्सव का कोई महत्व नहीं रहेगा।" तब पहली बार लोगों ने लोकमान्य तिलक के इस उद्देश्य को बहुत गंभीरता से समझा। आजादी के आन्दोलन में लोकमान्य तिलक द्वारा गणेश उत्सव को लोकोत्सव बनाने के पीछे सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य था। लोकमान्य तिलक ने ब्राह्मणों और गैर ब्राह्मणों की दूरी समाप्त करने के लिए यह पर्व प्रारम्भ किया था जो आगे चलकर एकता की मिसाल बना। जिस उद्देश्य को लेकर लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव को प्रारम्भ करवाया था वो उद्देश्य आज कितने सार्थक हो रहें हैं। आज के समय में पूरे देश में पहले से कहीं अधिक धूमधाम के साथ गणेश उत्सव मनाए जाते हैं, मगर आज गणेश उत्सव में दिखावा अधिक नजर आता है। आपसी सद्भाव व भाईचारे का अभाव दिखता है।


आज गणेश उत्सव के पण्डाल एक दूसरे के प्रतिस्पर्धात्मक हो चले हैं। गणेश उत्सव में प्रेरणाएं कोसों दूर होती जा रही हैं और इनको मनाने वालों में एकता नाममात्र की रह गई है। हमें एक बार फिर से संगठित होकर गणेश उत्सव को इतनी खुशी और धूमधाम से मनाना चाहिए, जिससे समाज में एकता और भाईचारा बढ़ सके। नाइंसाफियों का खात्मा हो। समाज के दबे - कुचले लोगों को समाज की मुख्यधारा में शामिल होने के अवसर मिलें। अभाव ग्रस्त बच्चों को शिक्षा, संस्कार , संरक्षण और स्वावलंबन के अवसर मिलें। धर्मांधता, कट्टरता, आतंकवाद, अस्पृश्यता जैसी समाजविभेदक विसंगतियों का संहार हो। मातृशक्ति के प्रति आदरभाव विकसित हो, पाखण्ड और अँधविश्वास के स्थान पवित्र पर अध्यात्म व वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाते हुए संस्कृति के जीवनमूल्यों की पुनर्स्थापना करें। राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और संवैधानिक मूल्यों के प्रति हमारा सहज समर्पण भाव विकसित हो। यदि हम यह महत्त्वपूर्ण कार्य कर पाए तभी गणेश उत्सव पर्व की सार्थकता है।



Sunday 10 September 2023

समकालीन विमर्शों की धरती : बिलासपुर में तीन दिन - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

 *** समकालीन विमर्शों की धरती - बिलासपुर में तीन दिन ***



छत्तीसगढ़ की न्यायधानी - संस्कारधानी, अपरा नदी के पावन तट पर बसी, महान नारी बिलासा की नगरी और समकालीन विमर्शों की धरती - बिलासपुर की हमारी पहली सांस्कृतिक यात्रा २-६ सितंबर २०२३ के बीच रही। 


इस सांस्कृतिक यात्रा का छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष (दर्जाप्राप्त राज्यमंत्री, छत्तीसगढ़ शासन), विकलांग विमर्श के प्रवर्तक, महान शिक्षाविद, युगपुरुष आलोचक पूजनीय डॉ० विनय कुमार पाठक जी ने शासकीय पातालेश्वर महाविद्यालय, मस्तूरी एवं प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित 'किन्नर विमर्श : हिन्दी नाटक एवं सिनेमा के विशेष संदर्भ में' विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी एवं भरत वेद द्वारा लिखित और डॉ० आनंद कश्यप द्वारा संपादित किन्नर विमर्श के पहले नाटक 'शिखण्डी' के विमोचन एवं विमर्श समारोह में हमें शोधपत्र प्रस्तुत करने हेतु आमंत्रित कर सुअवसर प्रदान किया। हम अपने पूजनीय गुरूजी विख्यात साहित्यकार, ललित निबंधकार, लोकसंस्कृतिकर्मी और विद्या भारती बुंदेलखंड के पूर्व प्राचार्य डॉ० रामशंकर भारती जी के साथ वीरांगना लक्ष्मीबाई झाँसी रेलवे स्टेशन से बिलासपुर के लिए गोंडवाना एक्सप्रेस से २ सितंबर २०२३ को रात ९:०५ बजे रवाना हुए थे और सागर, भोपाल, नागपुर और रायपुर के रास्ते हम बिलासपुर रेलवे स्टेशन ३ सितंबर २०२३ को शाम ५:३० बजे पहुँचे। 


स्टेशन से हम लोगों को होटल तक लेने जाने के लिए गाड़ी लेनी आई तब आयोजक डॉ० आनंद कश्यप जी से पहली बार भेंट हुई और साथ ही किन्नर विमर्श के चर्चित उपन्यासकार आदरणीय महेंद्र भीष्म जी से और उनकी शिष्या शोधार्थी रिंकी 'रविकांत' एवं उनके पति ज्योतिषी रविकांत शर्मा और पुत्र अक्षम से भेंट हुई। हम लोग ६:०० बजे बिलासपुर के प्रसिद्ध होटल सेंट्रल पॉइंट पहुँचे। जहाँ पर हम और गुरूजी ५ सितंबर २०२३ तक ठहरे। 


तनक देर विश्राम और तरोजाता होने के बाद ७ : ३० बजे आगंतुक कक्ष में से राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी के संरक्षक, देश के वरिष्ठ विमर्शकार पूजनीय डॉ० विनय कुमार पाठक जी देशभर से पधारे साहित्यकारों से मिलने आए। इस अवसर पर साहित्यकारों को नव प्रकाशित पुस्तकें भेंट कर उनका अभिनंदन किया गया। इस मौके पर लखनऊ से पधारे वरिष्ठ कथाकार आदरणीय महेंद्र भीष्म जी, देश - दुनिया के चर्चित साहित्यकार, साहित्य और सिनेमा के मर्मज्ञ, महान शिक्षाविद, बुंदेलखंड साहित्य उन्नयन समिति, झाँसी के यशस्वी अध्यक्ष, हिन्दी विभाग - बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झाँसी के पूर्व अध्यक्ष एवं प्रोफेसर हमारे पूजनीय आचार्य डॉ० पुनीत बिसारिया जी, पूजनीय गुरूजी डॉ० रामशंकर भारती जी, डॉ० अनीता सिंह जी, डॉ० अरुण कुमार यदु जी, डॉ० आनंद कश्यप जी, केशव शुक्ला जी, रिंकी रविकांत जी और गीतिका वेदिका जी आदि उपस्थित रहे।




४ सितंबर २०२३ को सुबह ७ :०० बजे हम और गुरूजी बिलासपुर की सैर पर निकले और बिलासपुर के प्रतिष्ठित महाविद्यालय डी० पी० विप्र कॉलेज और पुराने हाईकोर्ट का अवलोकन करते हुए कोचिंग हब पहुँचे जहाँ हम लोगों ने चाय पी। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी हेतु दिल्ली के मुखर्जी नगर जैसा माहौल देखकर बेहद खुशी की अनुभूति हुई। सुबह से ही छात्र - छात्राएँ पूरे जोश के साथ कोचिंग आ रहे थे। ८:०० बजे तक हम और गुरूजी वापिस होटल के कमरे पर लौट आए और फिर नहाकर तैयार लिए। ९:०० नाश्ता करने के बाद ९:३० बजे बिलासपुर से १५ किलोमीटर दूर स्थित कार्यक्रम स्थल शासकीय पातालेश्वर महाविद्यालय, मस्तूरी पहुँच गए। कॉलेज पहुँचते ही आयोजकों द्वारा स्वागत - सत्कार किया गया। प्राचार्य कक्ष में प्राचार्य प्रो० भोजराम खूँटे जी के साथ हम सब साहित्यकारों की भेंट और चर्चा हुई। जहाँ पर विशेष रूप से शिखण्डी नाटक के रचयिता भरत वेद जी से हमारी भेंट हुई।


१०:३० बजे सरस्वती वंदना, छत्तीसगढ़ राज्य गीत, महाविद्यालय गीत और 'छत्तीसगढ़ महतारी' की जय... जय भारत - जय छत्तीसगढ़ के उदघोष के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो० भोजराज खूँटे जी ने की। वहीं मुख्य अतिथि महोबा - बुंदेलखंड निवासी किन्नर विमर्श के यशस्वी कथाकार और इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के निबंधक सह प्रधानसचिव महेन्द्र भीष्म Mahendra Bhishma जी रहे, जिन्होंने किन्नर जीवन के विविध आयामों पर गहन चर्चा करते हुए उनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की अपील की।


मुख्य वक्ता झाँसी - बुंदेलखंड को कर्मभूमि बनाने वाले यशस्वी साहित्य - सिनेमा के विशेषज्ञ, विख्यात साहित्यकार, हिन्दी विभाग बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झाँसी के पूर्व अध्यक्ष हमारे पूजनीय आचार्य प्रो० पुनीत बिसारिया Puneet Bisaria जी रहे, जिन्होंने अपने वक्तव्य में किन्नर विमर्श या तृतीय लिंगी विमर्श का नामकरण दिव्य लिंगी विमर्श करने का सुझाव दिया तथा अनेक नाटकों, फिल्मों और वेब सीरीज के संदर्भ देते हुए हिन्दी साहित्य विशेषकर नाटकों और फिल्मों तथा वेब सीरीज में किन्नर समुदाय के चित्रण का संक्षिप्त परिचय दिया और अमर अकबर एंथनी, कुंवारा बाप, दायरे, संघर्ष, सड़क, मर्डर 2 से लेकर ताली वेब सीरीज तक चित्रपट पर किन्नर समुदाय के चित्रण में आ रहे बदलावों की चर्चा की और बताया कि एक समय में हास्य पैदा करने वाले पात्रों से होकर खलनायकों का सफर तय करते हुए किस प्रकार किन्नर समुदाय आज नायकत्व की चोटी पर चढ़ रहा है। नाटकों के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद के अमर नाटक ध्रुवस्वामिनी से किन्नर विमर्श की हिन्दी नाटकों में विधिवत शुरुआत होती है, जो आज तक गतिमान है। ऐसी स्थापना दी। 


वहीं विशिष्ट अतिथि झाँसी बुंदेलखंड निवासी देश के जाने - माने साहित्यकार, निबंधकार, लोकसंस्कृतिकर्मी हमारे पूजनीय गुरूजी डॉ० रामशंकर भारती Ramshankar Bharti जी रहे, जिन्होंने अपने वक्तव्य में चार - पाँच दशक पूर्व के सनातनी किन्नरों की तत्कालीन सामाजिक स्थितियों और वर्तमान में आए बदलाव का उल्लेख किया और जमीनी हकीकत से जुड़े संस्मरण सुनाकर किन्नर विमर्श : दशा और दिशा पर यथार्थवादी और मानवीय दृष्टिकोण अपनाने पर जोर दिया।


बीज वक्तव्य छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष, चर्चित साहित्यकार, विकलांग विमर्श के प्रवर्तक और यशस्वी आलोचक, युगपुरूष पूजनीय डॉ० विनय कुमार पाठक जी ने दिया, जिन्होंने किन्नर - विमर्श के विविध आयामों कर चर्चा करते हुए भरत वेद द्वारा लिखे गए नाटक 'शिखण्डी' को किन्नर विमर्श पर लिखा गया प्रथम नाटक घोषित किया।


समारोह में मंचासीन अतिथियों द्वारा 'शिखण्डी' नाट्यकृति का विमोचन और विमर्श किया गया। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति चंद्रभूषण वाजपेयी जी समारोह के विशिष्ट अतिथि रहे। पहले तकनीकी सत्र में डी० पी० विप्र कॉलेज, बिलासपुर की यशस्वी प्राचार्या प्रो० अंजू शुक्ला जी, टीकमगढ़ - बुंदेलखंड निवासी किन्नर विमर्श की लेखिका - अभिनेत्री गीतिका वेदिका जी, शिखंडी नाटक के रचयिता भरत वेद जी, कोटा - राजस्थान से पधारीं किन्नर विमर्श की समीक्षिका रिंकी 'रविकांत' जी, उनके पति ज्योतिषी रविकांत शर्मा जी, कथाकार डॉ० चंद्रिका चौधरी जी, धनबाद - झारखंड से पधारीं और संबलपुर - उड़ीसा में सहायक आचार्य पद पर कार्यरत सुश्री पूजा सिंह 'आद्या' जी, लेखक अरुण कुमार यदु जी, कथाकार सूरज प्रकाश डडहाने जी, अभिनेता विश्वनाथ राव जी, प्रो० एल० के० निराला जी, प्रो० भुवन सिंह राज जी समेत तमाम साहित्यकार, प्राध्यापक - प्राध्यापिकाएँ, फिल्मकार, आलोचक, शोधार्थी, पत्रकार, छात्र - छात्राएँ उपस्थित रहे।


दूसरे तकनीकी सत्र में शोधार्थियों ने अपने - अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए। हमने अपना शोधपत्र - " हिन्दी नाटक में किन्नर विमर्श " पढ़ा और जिसमें हमनें तर्कों और तथ्यों के आधार पर सिद्ध किया कि हिन्दी नाटक के क्षेत्र में किन्नर विमर्श की शुरूआत सन १९९२ में 'भरत वेद' द्वारा लिखित और निर्देशित नाटक "शिखण्डी" से ही होती है। जो नाटक फरवरी सन २०२३ में डॉ० आनंद कश्यप के सम्पादन में प्रकाशित हुआ है। इस नाटक को हम किन्नर विमर्श का पहला नाटक मानते हैं। किन्नर विमर्श पर दूसरा नाटक 'हरीश बी० शर्मा' का लघु नाटक "हरारत" (सन २००३) और तीसरा नाटक 'महेश दत्तानी' द्वारा लिखित "आग के सात फेरे" (सन २००८) है।


वस्तुतः किन्नर विमर्श के उपर्युक्त तीनों नाटकों में किन्नरों की विभिन्न समस्याओं को उजागर करके उनके समाधान खोजने पर बल दिया गया है। किन्नर विमर्श के पहले हिन्दी नाटक 'शिखण्डी' में भरत देव जी ने तथाकथित समाज में सभ्य माने जाने वाले लोगों, राजनेताओं, सरकार, मीडिया और फिल्म कारोबारियों द्वारा किन्नरों पर किए जाने वाले दमन - शोषण और उपेक्षा को बेबाकी से दिखाया गया है और किन्नरों को अपने अधिकार पाने के लिए संघर्षरत दिखाया गया है, जो समाज की प्रयोगशाला में अनोखा प्रयोग है जिससे किन्नर समाज की दशा और दिशा अवश्य बदलेगी। 'हरारत' नाटक में हरीश बी० शर्मा ने मूलतः ये संदेश संप्रेषित किया है कि किन्नर के मन में भी माँ - बाप बनने की इच्छा होती है। 'आग के सात फेरे' नाटक में महेश दत्तानी जी ने किन्नरों को भी वैवाहिक - बंधन का अधिकार दिलाने हेतु आवाज बुलन्द की है और प्रेम - सम्बधों के चलते किन्नरों पर होने वाले अत्याचारों को उजाकर करके सामाजिक अपराधियों की निंदा की है।


हमें अपने इस शोधपत्र हेतु तृतीय पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।


इसके पश्चात आयोजक हिन्दी विभाग, शासकीय पातालेश्वर महाविद्यालय, मस्तूरी के यशस्वी अध्यक्ष, चर्चित उपन्यास 'गॉंधी चौक' के लेखक, संपादक डॉ० आनंद कश्यप जी के पास हमने अपना शोधपत्र 'हिन्दी नाटक में किन्नर' और दिल्ली विश्वविद्यालय की सहपाठी रही, प्यारी दोस्त, शोधार्थी साथी अर्पिता लखेरा Arpita Lakhera का शोधपत्र 'सिनेमा में किन्नर विमर्श' जमा किया। 


शाम ६:०० बजे हम कॉलेज से लौटकर वापिस होटल आ गए। रात ८:०० बजे पूजनीय डॉ० विनय कुमार पाठक जी, लेखक अरूण कुमार यदु जी और डॉ० आनंद कश्यप जी हम साहित्यकारों से मिलने होटल आए और सभी को उपहार भेंट कर सम्मानित किए।  


५ सितंबर २०२३ की सुबह हम और गुरूजी फिर से बिलासपुर की सैर पर निकले और इस बार कथाकर डॉ० आनंद कश्यप जी के चर्चित उपन्यास 'गाँधी चौक' के कथानक स्थल बिलासपुर की गाँधी चौक का नजारा देखा। चौक पर सत्य - अहिंसा का संदेश देती राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की प्रतिमा स्थित थी तो उसके चहुँओर बाजार की दुकानें और उससे थोड़ी दूर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र - छात्राओं की काशी स्थित थी…।


दोपहर १:३० बजे हम और गुरूजी सेंट्रल पॉइंट होटल, बिलासपुर से विदा हुए और फिर उसलापुर रेलवे स्टेशन से दुर्ग हमसफर एक्सप्रेस में सवार होकर अपने घर झाँसी के लिए रवाना हुए। शहडोल, अनूपपुर, दमोह, सागर के रास्ते हम लोग ६ सितंबर २०२३ की सुबह ५:०० बजे झाँसी आ गए। 


" छत्तीसगढ़ का समाज और वहाँ की जलवायु हमें बुंदेलखंड जैसी ही लगी। हमें वहाँ अपने घर बुंदेलखंड जैसी ही अनुभूति हो रही थी। छत्तीसगढ़वासियों का अपनी संस्कृति और भाषा के प्रति समर्पण हमें बहुत आकर्षित किया। यदि ऐसा समर्पण बुन्देलखंडी अपनी बुंदेली भाषा और संस्कृति के प्रति दिखायेंगे तो अखंड बुंदेलखंड की गूँज सारी दुनिया में होगी। "


आमंत्रण हेतु पूजनीय डॉ० विनय कुमार पाठक जी और डॉ० आनंद कश्यप जी का भौत - भौत आभार 🙏🙏🙏


©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा

 'कुशराज झाँसी'

(परास्नातक छात्र - हिन्दी विभाग, बुन्देलखंड महाविद्यालय, झाँसी; बुन्देलखंडी युवा लेखक, बकील, सामाजिक कार्यकर्त्ता)


_ ६ सितंबर २०२३, ११:००बजे रात, झाँसी


http://cgcrime.news/?p=18862


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Sunday 3 September 2023

हिन्दी नाटक में किन्नर विमर्श - गिरजाशंकर कुशवाहा ' कुशराज झाँसी '

 शासकीय पातालेश्वर महाविद्यालय, मस्तूरी (छत्तीसगढ़) एवं प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के समन्वित तत्वावधान में दिनाँक - ०४ सितंबर २०२३ को आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी " किन्नर - विमर्श : नाटक एवं सिनेमा के विशेष संदर्भ में " में प्रस्तुत शोधपत्र


*** शोधपत्र - " हिन्दी नाटक में किन्नर विमर्श " ***


©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'


(छात्र - परास्नातक हिन्दी, बुंदेलखंड महाविद्यालय, झाँसी / पूर्व महासचिव - हिन्दी साहित्य परिषद, हिन्दी विभाग एवं इक्वल अपॉर्च्युनिटी सेल, हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय /  सामाजिक कार्यकर्त्ता / बुंदेलखंडी युवा लेखक / सदस्य - बुंदेलखंड साहित्य उन्नयन समिति, झाँसी / जिला संगठन विस्तार प्रमुख - संस्कृत संस्कृति विकास संस्थान, झाँसी)

पता -  २१२ नन्नाघर, जरबो गॉंव, बरूआसागर, झाँसी (अखंड बुंदेलखंड) - २८४२०१

सम्पर्क - 9569911051, 8800171019

ईमेल - kushraazjhansi@gmail.com


_ २२ अगस्त २०२३, ११: ३५ रात, झाँसी



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भारत में साहित्य, सिनेमा, दर्शन, राजनीति, मीडिया और अकादमिक जगत में विमर्शों की शुरूआत १९वीं सदी से हुई। भारत में दुनिया के समकालीन विमर्शों में से सबसे पहले ' स्त्री विमर्श ' मुख्यधारा में आया। इसके बाद अन्य विमर्श चर्चा में आए। 



२१वीं सदी में तो विमर्शों की बाढ़ - सी आ गई। इस सदी तक मुख्यधारा में चल रहे अस्मितामूलक विमर्शों जैसे - स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श के साथ ही किन्नर विमर्श, विकलांग विमर्श, किसान विमर्श, पुरूष विमर्श, वेश्या विमर्श, वृद्ध विमर्श, बाल विमर्श, छात्र विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, भाषा विमर्श, पर्यावरण विमर्श इत्यादि की भी चर्चा जोर - शोर से होने लगी।



" हम २१वीं सदी को अस्मितामूलक विमर्शों और स्त्री, किसान, दलित, आदिवासी, दिव्यांग, पुरूष एवं वेश्या - अधिकारों से दुनिया में आए युगान्तकारी बदलाओ की सदी की संज्ञा देते हैं। "



विकलांग विमर्श के प्रवर्त्तक और विश्वविख्यात लेखक ' डॉ० विनय कुमार पाठक जी ' कहते हैं कि इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से ही अनेक विमर्शों ने जन्म लिया लेकिन इन दो दशकों में जिन विमर्शों को प्रतिष्ठा मिली, उनमें विकलांग और किन्नर - विमर्श  महत्त्वपूर्ण हैं। जाति और लिंग से रहित विशुद्ध मानवतावादी दृष्टि पर आधारित ये दोनों नव्य विमर्श सर्वाधिक वंचित और उपेक्षित या कहें, वर्जित ही रहे हैं। विकलांग - चेतना पर पहले ध्यान गया। परिणामत: समाजसेवी संगठनों और सरकार के प्रयास से मानवाधिकार की दृष्टि से संविधान में इन्हें अधिकार दिए गए और आरक्षण का लाभ भी मिला। विकलांग - चेतना विश्वव्यापी है इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ की आमसभा - १९७६ में यह निर्णय लिया गया कि सन १९८१ को 'विकलांगजनों के लिए अंतरराष्ट्रीय वर्ष' के रूप में मनाया जाएगा।  इसके बाद सन १९८३ - ९२ के दशक को 'विकलांगजनों के लिए अंतरराष्ट्रीय दशक' मनाया गया। सन १९९२ में संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा के बाद हर साल ३ दिसंबर को 'अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस' मनाया जाता है। 



विवेच्य विषय  - " हिन्दी नाटक और सिनेमा में किन्नर विमर्श " पर चर्चा करने से पहले हम विमर्शों के इतिहास को समझना उचित समझते हैं इसलिए हम दुनिया के सबसे पुराने विमर्श स्त्री विमर्श / नारीवाद पर अपने विचार रख रहे हैं -



यदि हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो स्त्री विमर्श की शुरूआत फुले दम्पत्ति यानी सावित्रीबाई फुले और महात्मा जोतिबा फुले ने की थे। जो पेशे से किसान थे लेकिन समाज की अशिक्षा नामक कुरीति को दूर करने के कारण सावित्रीबाई फुले भारत की प्रथम महिला शिक्षिका कहलाईं और वहीं महात्मा जोतीबा फुले समाज के वंचित वर्गों जैसे -  स्त्री, किसान, दलित आदि के अधिकारों के लिए और इनकी सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए आवाज बुलन्द करके महान दार्शनिक - समाजसुधारक कहलाए।



स्त्री विमर्श दुनिया में सबसे पहले नारीवादी आंदोलन के रूप में चर्चा में आया। स्त्री विमर्श पर सावित्रीबाई फुले की ये पंक्तियाँ स्त्रियों को शिक्षा हेतु प्रेरित करतीं हैं और पितृसत्ता को स्त्री शिक्षा का विरोधी ठहराती हैं -  


" आखिर कब तक तुम अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों को सहन करोगी। देश बदल रहा है। इस बदलाव में हमें भी बदलना होगा। शिक्षा का द्वार जो पितृसत्तात्मक विचार ने बंद किया है, उसे खोलना होगा। "



सावित्रीबाई फुले जिन बदलाओकारी विचारों की थीं, उसकी झलक उनकी कविताओं में भी मिलती है। वो स्त्री शिक्षा की प्रबल समर्थक थीं, जो लड़कियों के घर में काम करने, चौका - बर्तन करने की अपेक्षा उनकी पढ़ाई - लिखाई को बेहद जरूरी मानती थीं। इन पंक्तियों में को देखिए - 


" चौका बर्तन से बहुत जरूरी है पढ़ाई

क्या तुम्हें मेरी बात समझ में आई? "


सावित्रीबाई फुले ने स्त्री - पुरूष समानता के लिए भी आवाज बुलन्द की। वो कहती हैं कि -


" स्त्रियाँ सिर्फ रसोई और खेत पर काम करने के लिए नहीं बनीं हैं, वे पुरुषों से बेहतर कार्य कर सकती हैं।"


सावित्रीबाई फुले ने स्त्रियों के उत्थान के लिए शिक्षा, लेखन और सामाजिक सुधार के माध्यम से जो योगदान दिया वो विश्व - इतिहास में उल्लेखनीय हैं। हम किसान लेखक गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी' सावित्रीबाई फुले को भारत की प्रथम स्त्रीवादी लेखिका, स्त्री विमर्शकार मानते हैं - " जन्म से किसानिन, पेशे से शिक्षिका और समाज सुधारिका, स्त्रियों के साथ - साथ वचिंत वर्गों किसान और दलितों के लिए जीवनभर संघर्ष करने वाली सशक्त नारी, अपनी कलम से स्त्री - अधिकारों को धार देने वाली लेखिका सावित्रीबाई फुले सच्चे अर्थों में भारतीय नारीवाद या स्त्री विमर्श की सूत्रधार थीं। स्त्रियों के उत्थान हेतु उनके संघर्षों को विश्व इतिहास सदा याद रखेगा " 



सावित्रीबाई फुले के पति महात्मा जोतिबा फुले ने 'किसान का कोड़ा' नामक पुस्तक लिखकर जहाँ 'किसान - विमर्श' का प्रवर्तन किया, वहीं 'गुलामगिरी' किताब के द्वारा दलित विमर्श को दार्शनिक आधार दिया और 'सत्य शोधक समाज' के माध्यम से समाज में दलित, पिछड़ों, किसानों और स्त्रियों के उत्थान को नईं ऊँचाईयों पर पहुँचाया।



जब हम किन्नर विमर्श की बात करते हैं तो सबसे पहले हमें साहित्य के पुरोधा और आलोचना जगत के युगपुरुष ' डॉ० विनय कुमार पाठक जी ' याद आते हैं क्योंकि वे समकालीन नए विमर्शों को प्रतिस्थापित कराने और मान्यता दिलाने हेतु संघर्षरत हैं। वे अपने ग्रंथ - " किन्नर - विमर्श : दशा और दिशा " में लिखते हैं, जो किन्नर विमर्श पर अब तक का अनोखा आलोचनात्मक ग्रंथ है - " अन्य विमर्श यदि वंचित हैं तो किन्नर - विमर्श वर्जित की श्रेणी में आने के कारण इसमें चेतना अपेक्षाकृत विलंब से आई। वैसे यह भी विकलांग - चेतना से समीकृत है। किन्नर आज भी समाज से अस्पर्शित, अशिक्षा और अंधविश्वास से आच्छादित और अजीबोगरीब हरकत व जीवन - शैली से दर्शित उपेक्षणीय बने हुए हैं। संक्रमण की इस संस्थिति में इन्हें नए दायित्व - निर्वाह करने के लिए एकता और संगठन के सोपान से अस्मिता के अन्वेषण के लिए न केवल वातावरण बनाना है, वरन सदभाव और सौमनस्य के उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अस्तित्व के लिए संघर्ष और न्याय के पथ पर अग्रसित भी होना है। इस उपक्रम में चुनौतियों से सामना करने और अधिकारों के लिए संघर्ष करने के प्रमुख कारक इस प्रकार हैं - 


१. किन्नर सामान्य जन की तरह जीने का अधिकार चाहता है।

२. किन्नर संविधान में निर्दिष्ट अधिकारों को अधिगृहीत कर जनसामान्य की भांति रोटी, कपड़ा और मकान व शिक्षा के साथ योग्यतानुरूप व्यवसाय व सेवा / नौकरी के द्वारा समाज में सम्मानजनक स्थिति की पहुँच चाहता है।

३. जैसे दलितों के लिए आरक्षित सीटें हैं, वैसे ही किन्नरों लिए भी कम - से - कम एक पद आरक्षित हो या फिर इसे राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाए। 

४. किन्नरों के लिए पृथक शैक्षणिक संस्थाएँ - विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय हों।

५. किन्नर - साहित्य को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाए, जिससे नई पीढ़ी की समझ विकसित होगी और किन्नरों के संदर्भ में सकारात्मकता से समाज समुन्नत होगा। "



हिन्दी नाटक के क्षेत्र में किन्नर विमर्श की शुरूआत सन १९९२ में ' भरत वेद ' द्वारा लिखित और निर्देशित नाटक " शिखण्डी " से होती है। शिखण्डी नाटक फरवरी सन २०२३ को डॉ० आनंद कश्यप के सम्पादन में प्रकाशित हुआ है। इस नाटक को हम किन्नर विमर्श का पहला नाटक मानते हैं। भरत वेद के अनुसार - " नाटक शिखण्डी मेरे लिखे नाटकों में एक आले दर्जे का नाटक है। इस नाटक को मैंने वर्ष 1992 में लिख लिया था, किन्तु समर्पित कलाकारों के अभाव के कारण यह नाटक मंचन होने से चुकता गया। सारी अड़चनों बाधाओं 

को पार करते हुए अंततः नाटक शिखण्डी का पहला मंचन हमने वर्ष 1996 में पंडित देवकीनंदन दीक्षित सभागार बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में किया, जिसे अभूतपूर्व सफलता व लोकप्रियता मिली। "


" मेरी यह सोच थी कि शिखण्डी नाटक तथ्यों पर आधारित हो ताकि एक मौलिक व विशिष्ट सर्जना का सृजन हो। इस बात को ध्यान में रखकर मैं शिखंडियो के बाड़े में गया। उनके मुखिया से मिला, परन्तु उनसे कोई अपेक्षित जानकारी मुझे नहीं मिली। संभवतः वे अपने जीवनवृत्त का रहस्य किसी बाहरी व्यक्ति को बताना नहीं चाहते थे, फलस्वरूप उनके बाड़े के आसपास बसे उन तमाम सामान्य लोगों से मिली जानकारी के आधार पर और कुछ स्वविवेक के सहारे नाटक शिखण्डी की रचना मैंने की। यह नाटक कटक - नाट्य उत्सव में और प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद नाट्य उत्सव में अवॉर्ड हासिल कर अपनी विशिष्टता की छाप छोड़ने में कामयाब रहा। इस तरह यह नाटक वर्ष 1996 से 1998 के बीच पाँच बार मंचित हुआ। "

 

शिखण्डी नाटक में मुख्य पात्र किन्नर  रमजानी है, जिसे उसके सभी साथी रमजानी बुआ कहकर पुकारते हैं। अन्य सहयोगी पात्रों में कीरन और नरमदा प्रमुख हैं। 


शिखण्डी नाटक में समकालीन ज्वलंत समस्या 'जनसंख्या वृद्धि की समस्या'  को उजाकर करते हुए परिवार नियोजन के समाधान को समझाने का संदेश दिया गया है। 

मंत्री फकीरचंद के पाँचवें लड़के के जन्मोत्सव पर रमजानी और कीरन का ये संवाद जनसंख्या वृद्धि की समस्या को उजागर करता है -


" रमजानी : अरे मंत्री फकीरचंद का 

पाँचवां लड़का हुआ है रे कीरन। बधाई गाने जाना है छुई - मुई। "


" कीरन : ये मंत्री भी बड़े दो मुहें होते हैं। एक तरफ फीता काट काटकर परिवार नियोजन का नारा लगाते हैं और दूसरी तरफ खुद फौज खड़ी करते हैं। " 


जब नेता दौलतराम चुनाव में रामनगर की जनता से वोट माँगने आते हैं तब सभा में नरमदा नेताजी के काले कारनामों की पोल खोलती है और नेताजी द्वारा किए गए तथाकथित विकास कार्यों की असलियत बयाँ करती है। 


दौलतराम और नरमदा के बीच के ये संवाद राजनेताओं द्वारा किए जाने वाले झूठे वालों और किन्नरों की समस्या को दिखाते हैं -


" दौलतराम : नहीं… नहीं… सब बकवास है। "


" नरमदा : क्या बकवास है मेरी कथनी कि तुम्हारी करनी। अरे असली शिखण्डी तुम जैसे लोग हैं। "


" दौलतराम : भगवान के लिए चुप हो जाईए देवी…।"


" नरमदा : न मैं देवी हूँ न देवता, न नर हूँ न मादा। मैं नरमदा हूँ नरमदा शिखण्डी।"


जब रंगा स्वामी रिपोर्टर नरमदा का इंटरव्यू लेता है तब रिपोर्टर और नरमदा के बीच का संवाद -


" रिपोर्टर : नहीं, मेरा यह मतलब नहीं है…. अच्छा यह बताएँ कि आप राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री ही क्यों बनना चाहते हैं? "


" नरमदा : यही दो पद शक्तिशाली हैं, इस पद में आने के बाद मैं शिखण्डी जाति के लोगों को प्रतिष्ठित पदों पर रख सकूँगी। सम्मानित धंधे व्यवस्था में लगा सकूँगी। उनकी शिक्षा का विशेष व्यवस्था कर सकूँगी…।


" रिपोर्टर : आपके विचार उत्तम और मन को झकझोरने वाले हैं। "


" नरमदा : मैं दुनियाँ को बताना चाहती हूँ कि हम आधे अधूरे लोगों को अंधेरे कुएँ में सभ्य समाज ने धकेल रखा है। जिन शिखंडियों को दुनियाँ ने जमाने से शोषण किया, दबाया है वह शिखण्डी समाज आज कुंठाग्रस्त जीवन व्यतीत कर रहा है इसलिए मेरे शासन काल में हिजड़े जाति को नया जन्म मिलेगा तभी हम आधे अधूरे लोग पूर्णता को प्राप्त कर सकेंगे। "


वस्तुतः शिखण्डी नाटक में तथाकथित समाज में सभ्य माने जाने वाले लोगों, राजनेताओं, सरकार, मीडिया और फिल्म कारोबारियों द्वारा किन्नरों पर किए जाने वाले दमन - शोषण और उपेक्षा को बेबाकी से दिखाया गया है और किन्नरों को अपने अधिकार पाने के लिए संघर्षरत दिखाया गया है, जो समाज की प्रयोगशाला में अनोखा प्रयोग है जिससे किन्नर समाज की दशा और दिशा अवश्य बदलेगी।



किन्नर विमर्श पर दूसरा नाटक 'हरीश बी० शर्मा' का लघु नाटक " हरारत " (सन २००३) है। हरारत में मुख्य किन्नर पात्र ' चम्पा ' के मानवीयता के मान देखने की हरारत को दिखाया गया है। परिवार में रहने वाले इंसान साथ रखे बर्तनों की भाँति टकराते रहते हैं जबकि किन्नर परिवार से लाड़ - प्यार पाने के लिए तरसते रहते हैं। इन्हीं मानवीय मूल्यों को हरारत उजागर करता है। 


हरीश बी० शर्मा के अनुसार - " एक खबर किस तरह नाटक के लिए थीम दे सकती है। इसका उदाहरण है मेरा नाटक ' हरारत ' वर्ष २००३ में एक खबर फाइल की थी : लव स्टोरी - २००३ पति, पत्नी और किन्नर। इस खबर में एक ऐसे किन्नर की कहानी थी, जिसने एक पुरुष से शादी रचाई लेकिन जब उसे लगा कि पुरुष को पत्नी के रूप में एक स्त्री की जरूरत है तो उसने खुद पहल कर उसकी शादी कराई। इस मूल प्रसंग के प्रश्रय से इस लघु नाटक का प्रणयन हुआ, जिसमें मूलतः यह संदेश भी संप्रेषित किया गया कि किन्नर के मन में माँ - बाप बनने की इच्छा होती है। " 


हरारत नाटक की दूसरी मुख्य पात्र 

' शशि ' दवा, डॉक्टर और दाई का सहारा लेती है और अपना समझकर उसकी सेवा - सुश्रुषा में संलग्न रहती है। उसे लगता है कि उसकी ही संतान उसके घर आ रही है। वह मातृत्व के हरारत में आ जाती है। शशि भी चम्पा के निश्छल - निष्कपट वात्सल्य को देखकर अभिभूत है। 


" चम्पा की मातृत्व भावना अत्यंत संवेदनशील हो जाती है… तू कान खोलकर सुन ले, पैदा होते ही सबसे पहले मैं गोद में लूँगी… उसने मुझे माँ पुकारा… नहीं चम्पा… माँ नहीं हो सकती रे, बच्चा है न, जानता नहीं, दुनियादारी। बाहर आएगा, कुछ समझेगा - परखेगा तो भूल जाएगा। "


" मैं तो भगवान से भी यही अरदास करती हूँ कि ये मुझे भूल जाएँ। … तुम्हें नहीं भूले। "


शशि प्रसव - पीड़ा से बिलख रही थी। थोड़ी देर बाद एक औरत आकर शुभ समाचार सुनाती है कि बेटा पैदा हुआ है। ये सुनकर - चम्पा की खुशी का ठिकाना नहीं रहता लेकिन थोड़ी देर बाद खबर मिलती है कि शशि की मृत्यु हो गई है। शशि के अंतिम शब्द भविष्यवाणी की भाँति सच साबित होते हैं - " ये मुझे भूल जाए, … तुम्हें न भूले। "


इस तरह चम्पा किन्नर को पुत्र - रत्न की प्राप्ति हो जाती है। इस घटना की प्रत्याशा में प्रश्न अभी भी स्थिर है कि क्या किन्नर माँ - बाप नहीं बन सकते? 

क्या किन्नरों को बच्चा गोद लेने का अधिकार है? यहाँ कुँवारी माँ की जिद को समर्थन देने वाली महिला किन्नर ही हो सकती है, ये लक्ष्य भी हरारत नाटक में साधा गया है। जिसमें नाटक सफल भी हुआ है।



किन्नर विमर्श पर तीसरा नाटक ' महेश दत्तानी ' द्वारा लिखित " आग के सात फेरे " ( सन २००८) है। आग के सात फेरे नाटक अपने नाम के अनुरूप अग्नि को साक्षी मानकर सप्तपदी के द्वारा वर - वधु के मिलन - संधि यानि विवाह संस्कार को दिखाता है। इस पवित्र वैवाहिक बंधन पर ही नाटककार ने प्रश्नचिन्ह लगाकर संभ्रांत जन को कटघरे में खड़ा कर दिया है। उनकी चिंता इस बात पर भी है कि किन्नर यानी तीसरा लिंग भी पुल्लिंग और स्त्रीलिंग की भाँति ईश्वर की रचना है इसलिए उसकी उपेक्षा क्या ईश्वरीय आदेश की अवहेलना नहीं है?  



उनका ये भी तर्क विचारणीय है कि ' आग के सात फेरे ' लेने के बाद यदि स्त्री और पुरुष निसंतान है या स्त्री बाँझ है तो क्या समाज उन्हें उपेक्षित कर देता है? फिर किन्नर के लिए ही यह दोहरा - दोगला आचरण क्यों? किन्नर के पक्ष को रखता हुआ नाटककार उन सभी भ्रमों की दीवार को गिराते हैं जो मानव - मानव के बीच रूकावट बनी है। 



' आग के सात फेरे ' नाटक के वैशिष्ट्य को विवेचित करती हुईं डॉ० बीना अग्रवाल लिखती हैं - " महेश दत्तानी ने नाटक को उन लोगों की आवाज बनाया है जो वर्षों से अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिनकी आवाज कुलीन लोगों ने दबा रखी है तथा जिन्हें अँधेरे में रखने के लिए बहुत सारे मिथ व सामाजिक पूर्वाग्रह रचे गए हैं। दत्तानी उन लोगों को पहचान दिलाने का प्रयास करते हैं, जिन्हें आधुनिक वैज्ञानिक, सभ्य व व्यवस्थित कहे जाने वाले सामाजिक ढांचे में कोई जगह नहीं है। "


' आग के सात फेरे' नाटक के किन्नर पात्र कमला की हत्या का आरोप दूसरी किन्नर अनारकली पर है जो जेल में कैद है। पुलिस अदिक्षक सुरेश राव की पत्नी उमोराव पी० एच० डी० के सिलसिले में अनारकली से मिलती है और जब उसे पता चलता है कि राजनेता और पुलिस की सांठगांठ के कारण निरपराधी अनारकली कारागार में है तब उसका दिल दहल उठता है। कमला का प्रेम मंत्री - पुत्र सुब्बू से क्या हो जाता है, लोक - लाज और मान - मर्यादा के भय से सलीम को सुपारी देकर कमला की हत्या करा दी जाती है और निर्दोष अनारकली को आरोपी बताकर जेल में डाल दिया जाता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या किन्नर मानव नहीं है? क्या उसे प्रेम करने का अधिकार नहीं है? किन्नर से मानवोचित व्यवहार न करने की मानसिकता मनस्वामी जैसे पुलिस वाले के चरित्र से साफ दिखाई देती है। अनारकली उमा को बहन मानती है। अतः उसके द्वारा उसकी हत्या किए जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। यहाँ किन्नर का किन्नर से बहनापा उसमें संवेदनापूरित होने का प्रमाण है। 


किन्नरों की समस्याएँ विश्वव्यापी हैं लेकिन किन्नरों की सबसे ज्यादा दयनीय स्थिति भारत में है। इन्हें यहाँ मनुष्येतर मानकर उपेक्षित - तिरस्कृत किया जाता है और ' आग के सात फेरे ' से यानि वैवाहिक बंधन से वंचित कर दिया जाता है।



निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि किन्नर विमर्श के उपर्युक्त तीनों नाटकों में किन्नरों की विभिन्न समस्याओं को उजागर करके उनके समाधान खोजने पर बल दिया गया है। किन्नर विमर्श के पहले हिन्दी नाटक ' शिखण्डी ' में भरत देव जी ने तथाकथित समाज में सभ्य माने जाने वाले लोगों, राजनेताओं, सरकार, मीडिया और फिल्म कारोबारियों द्वारा किन्नरों पर किए जाने वाले दमन - शोषण और उपेक्षा को बेबाकी से दिखाया गया है और किन्नरों को अपने अधिकार पाने के लिए संघर्षरत दिखाया गया है, जो समाज की प्रयोगशाला में अनोखा प्रयोग है जिससे किन्नर समाज की दशा और दिशा अवश्य बदलेगी।


' हरारत ' नाटक में हरीश बी० शर्मा ने

 मूलतः ये संदेश संप्रेषित किया है कि किन्नर के मन में भी माँ - बाप बनने की इच्छा होती है।


' आग के सात फेरे ' नाटक में महेश दत्तानी जी ने किन्नरों को भी वैवाहिक - बंधन का अधिकार दिलाने हेतु आवाज बुलन्द की है और प्रेम - सम्बधों के चलते किन्नरों पर होने वाले अत्याचारों को उजाकर करके सामाजिक अपराधियों की निंदा की है।



संदर्भ - 


१. सावित्रीबाई फुले के १९ अनमोल विचार - धाकड़ बातें डॉट कॉम

२. किन्नर - विमर्श : दशा और दिशा - डॉ० विनय कुमार पाठक (पृष्ठ : ५, ६, ८, ९, १०)

३. वही (पृष्ठ : २१९, २१७, २१८) 

४. विकलांग व्यक्तियों का अंतरराष्ट्रीय दिवस - संयुक्त राष्ट्र संघ की वेबसाइट

५. शिखण्डी नाटक (१९९६) - भरत वेद (पृष्ठ : १, ७, २४, २५)

६. शिखण्डी नाटक - भरत वेद (भरतवेद का मन:वृत्त एवं

अमेजन पर की गई समीक्षा)

७. हरारत नाटक (२००३) - हरीश बी० शर्मा 

८. आग के सात फेरे नाटक (२००८) - महेश दत्तानी

९. दि व्हायस ऑफ सबएलेम्स इन सेवन स्टेप्स एराउंड दि फायर - महेश दत्तानी : न्यू होरिजॉन इन इंडियन इंग्लिश ड्रामा - बीना अग्रवाल (जयपुर बुक इन्क्लेव - २००८) (पृष्ठ : ३४१)




** ( शासकीय पातालेश्वर महाविद्यालय, मस्तूरी, छत्तीसगढ़ एवं प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ के समन्वित तत्वावधान में दिनाँक - 4 सितंबर 2023 को शासकीय पातालेश्वर महाविद्यालय, मस्तूरी में आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी "किन्नर - विमर्श : नाटक एवं सिनेमा के विशेष संदर्भ में" में तृतीय पुरस्कार से पुरस्कृत शोधपत्र। ) **





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