Friday 17 November 2023

बदलाव की नुमाइंदगी करतीं हैं 'कुशराज' की कहानियाँ - डॉ० रामशंकर भारती

 कुशराज की किताब 'पंचायत' की पुस्तक समीक्षा...


*** " बदलाव की नुमाइंदगी करतीं हैं 'कुशराज' की कहानियाँ " ***




            गाँव, गरीबी, किसान, खेतीबाड़ी और ग्रामीण जीवन की दुश्वारियाँ, स्त्रियों की विडंबनाएँ, उनके पहाड़ों से दर्द, सामंती सोच के प्रेतों की क्रूरताएँ व करगुजारियों आदि विसंगतियों - विद्रूपताओं को ध्वस्त करने की अदम्य जिजीविषा लेकर आई है युवा लेखक कुशराज की "पंचायत"।


   सामाजिक सरोकारों, किसानों, अभावग्रस्तों, वंचितों, स्त्रियों, अशिक्षा, गरीबी, दिव्यांगों तथा मानवीय मूल्यों के संरक्षण जैसे आधारभूत विषयों को युवा लेखक कुशराज ने अपने कहानी संग्रह "पंचायत" में आधार बनाया है। "पंचायत" की कहानियाँ नाइंसाफियों के खिलाफ मुखर विद्रोह करतीं हैं। इन कहानियों में अशिक्षा, रुढिवादिता, पाखण्डवाद, अँधविश्वास, ऊँच-नीच और सामंती सोच को दरकिनार करते हुए समतामूलक समाज की स्थापना के स्वरों का शंखनाद गुंजायमान है।


    छात्र, अधिवक्ता, किसान, सामाजिक सरोकारी और युवा लेखक गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी' ने "पंचायत" में अपने युवा अनुभवों को गंभीरता की स्याही में डुबोकर परिपक्वता के साथ प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की है। 



   वस्तुतः कहानियाँ हमारे समाज-जीवन का ऐसा विलक्षण पक्ष होतीं हैं, जिन्हें न अनदेखा किया जा सकता है, न अनसुना और न अनगुना। समकालीन कहानी- विमर्श की जो वर्तमान धारा प्रवाहित है, उस दृष्टिकोण से कुशराज के कहानी संग्रह "पंचायत" की कहानियाँ अपनी मौलिक और बेलाग अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करतीं हैं।


    कुशराज की किताब "पंचायत" के कहानी-खण्ड में कुल सात कहानियों के अतिरिक्त चौबीस कविताएँ भी काव्य-खंड में संकलित हैं, जो बदलाव की नुमाइंदगी करतीं हैं - 


"मत रुकना तूँ कभी मत रुकना तूँ

समाज बदलना है तुझे 

देश बदलना है तुझे

विश्व कल्याण करना है तुझे

दुनिया में शाँति लाना है तुझे 

मत रुकना तूँ कभी मत रुकना तूँ

 

जानता हूँ तो अकेला बढ़ रहा है 

समाज-देश की समस्याओं पर

विचार रहा है

तूँ ऐसा परिवर्तन लाना चाह रहा है

जहाँ स्त्री-पुरुष सब समान हों

मत रुकना तूँ कभी मत रुकना तूँ।"


     सच में, कविता हो या कहानी अथवा अन्य कोई विधा, यदि उसमें मानवमूल्यों की प्रतिष्ठा नहीं है, विसंगतियों, वर्जनाओं, विद्रूपताओं आदि के निवारण की प्रतिबद्धता न हो, असंगतियों के प्रति आक्रोश-विद्रोह न हो, तो फिर वह सस्ते मनोरंजन तक ही सीमित रहती है।




कुशराज ने "पंचायत" कहानी संग्रह के प्लेफ पृष्ठ पर जो कुछ लिखा है, उससे उनकी अभीप्सा, आकांक्षा और अभिलाषा को भलीभाँति जाना जा सकता है। कुशराज लिखते हैं -


"चाहे हों दिव्यांगजन 

 चाहे हों अछूत 

 कोई न रहे वंचित

 सबको मिले शिक्षा 

 कोई न माँगे भिक्षा 

 दुनिया की भूख मिटानेवाला 

 किसान कभी न करे आत्महत्या

 किसी पर कर्ज का न बोझ हो 

 सबके चेहरे पर नई 

 उमंग और ओज हो 

 न कोई ऊंचा 

 न कोई नीचा 

 सब जीव समान हों

 हम सब भी समान हों।"


    प्रिय कुशराज की उपर्युक्त चौदह पंक्तियों में भारतीय दर्शन और संस्कृति के मूलाधार स्पंदित हो रहे हैं। आज के प्रमुख विमर्शों, किसान, दलित, स्त्री, विकलांग आदि विमर्शों की उद्भावना उपर्युक्त कविता में परिलक्षित होती दिखाई देती है। कुशराज की यह रचना उनकी उद्भावना का प्रतीक है। उनके व्यक्तित्व-कृतित्व की बानगी है। लोकमंगल की आकाँक्षिणी है।




       अस्तु, साहित्य के अध्येताओं, विद्वानों, समीक्षकों, छात्रों, सुधी पाठकों और सामाजिक सरोकारों से संबद्ध जनों के मध्य कुशराज की किताब "पंचायत" प्रतिष्ठित व प्रशंसित हो, ऐसी मेरी शुभाकाँक्षा है।


            प्रिय शिष्य कुशराज को उत्तरोत्तर प्रगति के लिए अशेष शुभाशीष।



किताब : पंचायत

विधा : कहानी - कविता

लेखक : कुशराज

प्रकाशक : अनामिका प्रकाशन, प्रयागराज

प्रकाशन वर्ष : सन 2022, प्रथम संस्करण

मूल्य : ₹450


समीक्षक - ©️ डॉ० रामशंकर भारती 

(पूर्व प्राचार्य - विद्या भारती,

साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी )

दीपोत्सव 12, नवंबर 2023, झाँसी







Wednesday 15 November 2023

शोधछात्र और शोधछात्रा के लिए सार्थक गाइड की भूमिका निभाती है आचार्य पुनीत बिसारिया की किताब 'शोध कैसे करें?' - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

 ** आचार्य पुनीत बिसारिया की किताब 'शोध कैसे करें?' की किताब समीक्षा... **


*** शोधछात्र और शोधछात्रा के लिए सार्थक गाइड की भूमिका निभाती है आचार्य पुनीत बिसारिया की किताब 'शोध कैसे करें?' ***



आचार्य पुनीत बिसारिया द्वारा लिखी गई किताब 'शोध कैसे करें?' शोध और शिक्षा के क्षेत्र में दुनिया की महानतम किताबों में से एक है। सन 2007 में प्रकाशित इस किताब की भूमिका में आचार्य बिसारिया जी ने शोध के इतिहास को रेखांकित करते हुए कहा है कि शोध का वर्तमान प्रचलित स्वरूप प्रारंभिक उन्नीसवीं शताब्दी के जर्मनी की देन है, जिस पर विल्हेम वॉन हमबोल्ट के सुधारों तथा विचारों का स्पष्ट प्रभाव था। वहॉं पर इसे 'सेमिनार' नाम दिया गया और शोध निर्देशक को 'डॉक्टरवेटर' कहा गया। सन 1860 ई० तक दुनिया में केवल जर्मनी में ही शोध उपाधियाँ दी जा रहीं थीं। सन 1860 के बाद से अमेरिका और ब्रिटेन दोनों देशों ने अपने यहाँ यूनिवर्सिटी सिस्टम लागू किया और 'डॉक्टरेट' का वर्तमान स्वरूप पी-एच०डी० अस्तित्त्व में आया। पहली पी-एच०डी० अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी द्वारा सन 1861 में प्रदान की गई, किन्तु वास्तव में सन 1880 से ही पी-एच०डी० का वास्तविक स्वरूप तैयार हो सका। सन 1890 से बैचलर, मास्टर और डॉक्टर डिग्री सिस्टम शुरू हुआ। इस प्रकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सन 1860 से 1890 के बीच का समय क्रांतिकारी परिवर्तन लेकर आया। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने पहली पी-एच०डी० सन 1917 में अवॉर्ड की। सन 1920 के आस-पास ही पी-एच०डी० का एक विधिवत स्वरूप स्थिर हो पाया था। लगभग इसी समय भारत में भी पी-एच०डी० की शुरूआत होती है। वास्तव में पी-एच०डी० 'सत्य की खोज', 'अनदेखे का अन्वेषण', ज्ञान के नए क्षितिज की खोज, नई अवधारणाओं की तलाश वैज्ञानिक पद्धति के द्वारा प्रामाणिक तथ्यों का पता लगाना है। 


'शोध कैसे करें?' किताब में आचार्य बिसारिया जी ने बारह अध्यायों के अंर्तगत शोध उपाधि - पी-एच०डी० में प्रवेश लेने की तैयारी से लेकर  पी-एच०डी० उपाधि मिलने तक की यात्रा के विभिन्न पक्षों को बड़ी बारीकी से आसान भाषा में समझाया है।


आचार्य बिसारिया जी ने पहले अध्याय 'पहला कदम कैसे रखें?' में पी-एच०डी० में प्रवेश से पहले और प्रवेश के बाद शोधछात्र और शोधछात्राओं को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उन समस्याओं और उनके उचित समाधानों को 'शोध निर्देशक का चयन कैसे करें?', 'क्यों कुछ छात्र पी-एच०डी० अधूरी छोड़ देते हैं?', 'अपने शोध निर्देशक से किस प्रकार अच्छे संबंध बनाएँ?' इत्यादि शीर्षकों के अन्तर्गत समझाया है। वो लिखते हैं - आप इस बात से भलीभाँति जानते होंगे कि सभी विश्वविद्यालय तथा संस्थाएँ अनुसंधान हेतु शोधार्थी चाहते हैं, विशेषकर अच्छे अनुसंधान हेतु मेधावी तथा गंभीर शोधार्थी लेना ही पसंद करते हैं। उनको वे शोधार्थी चाहिए, जो न सिर्फ अपनी डिग्री करें, बल्कि वे विश्वविद्यालय अथवा संस्था के कार्य तथा जीवन में अपनी अविस्मरणीय छाप भी छोड़ें।


दूसरे अध्याय 'शोध की गली में कैसे जाएँ?' में शोधछात्र और शोधछात्राओं को उनके कार्य की प्रकृति से अवगत कराते हैं। आगे वो बताते हैं कि पहला प्रश्न शोध के टॉपिक से सम्बंधित है। भारत में दुर्भाग्यवश अभी भी यह निर्धारण प्रायः शोध निर्देशक ही करता है कि शोध का शीर्षक क्या हो।  जबकि यह अधिकार शोधछात्र - शोधछात्रा के हाथ में होना चाहिए कि उसे किस टॉपिक पर शोध करना है।


एक बार अपने टॉपिक का निर्धारण करने के बाद नम्बर आता है, उसकी रूपरेखा तैयार करने का जिसे अंग्रेजी में सिनॉप्सिस कहते हैं। सिनॉप्सिस तैयार करना सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य होता है क्योंकि इसके माध्यम से आप अपने शोधकार्य की आउटलाइंस खींच सकते हैं और शोध किस दिशा में किया जाना है, इसे निर्धारित कर सकते हैं। सफलतापूर्वक सिनॉप्सिस तैयार कर लेने का मतलब है, शोध का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दौर पार कर लेना। 


तीसरे अध्याय 'पथ के कंकड़ कैसे दूर करें?' में आचार्य बिसारिया जी बताते हैं कि अब आप शोध स्वीकृति पा गए हैं और शोध के पथ पर चलने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। चूँकि आप पथ पर हैं, तो इस पर चलते समय कंकड़ भी मिलेंगें ही, उन कंकड़ों अर्थात समस्याओं से निजात पाने का सर्वश्रेष्ठ रास्ता है समय का सही विभाजन करना।वैसे तो लगभग सभी विश्वविद्यालयों में पी-एच०डी० जमा करने की न्यूनतम समय सीमा 18 माह की होती है, लेकिन दो से तीन वर्ष के भीतर पी-एच०डी० जमा करा देना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। 


पार्ट टाइम शोधार्थियों और फुल टाइम शोधार्थियों के लिए समय की प्लानिंग अलग - अलग हो सकती है लेकिन दोनों के लिए समय की प्लानिंग के अनुसार शोधकार्य को पूरा करना श्रेष्यकर है। 


आई० सी० यू० फैक्टर का शोधकार्य में बहुत महत्त्व होता है। इसका कार्य आपको आपके कार्यों के प्रति वरीयता क्रम का निर्धारण कराना होता है, जिससे आप अपने शेड्यूल को इसके अनुसार तय कर सकते हैं। आई० सी० यू० फैक्टर में तीन शब्द हैं। जहाँ 'आई' का अर्थ है - इम्पोर्टेन्ट, 'सी' का अर्थ है - कम्पलसरी और 'यू' का अर्थ है - अर्जेंट। आपको अपने शोधकार्य के विभिन्न चरणों के कार्यों को इस प्रकार की ग्रेडिंग देनी होगी कि कौन सा कार्य आपके लिए इम्पोर्टेन्ट है, कौन सा कम्पलसरी

है और कौन सा अर्जेंट। इसमें सबसे पहले आप  अर्जेंट काम को पूरा करने का प्रयास करें, फिर कम्पलसरी को लें और अंत में इम्पोर्टेन्ट कार्य को हाथ में लें। ऐसा करने से आप शोधकार्य में सफल हो सकते हैं।


चौथे अध्याय 'हर चमकदार चीज सोना नहीं होती!' में सूचनाओं की सत्यता पर जोर दिया गया है। शोध के विभिन्न प्रकार हमें सूचनाओं के अच्छे अथवा बुरे ग्राहक बनाते हैं। अपने विषय के मुताबिक शोध के तरीके अपनाने से आप अपने विषय की आवश्यकता के अनुरूप सही तथा प्रभावशाली सूचनाएँ प्राप्त कर सकते हैं। यदि हम सर्वश्रेष्ठ क्वालिटी की सूचनाओं से खुद को लैस करना चाहते हैं, तो हमें जानने का वैज्ञानिक तरीका अपनाना होगा। 


पाँचवें अध्याय 'आंकड़ों की बाजीगरी' में शोध हेतु आंकड़ों की खोज और उनके संग्रह पर जोर दिया गया है। आंकड़ों की खोज और उनका संग्रह करना अध्ययन की प्रारंभिक प्रक्रिया है। यह वह समय होता है, जब आपको अपनी विलक्षण प्रतिभा, अनुभव और ज्ञान के कौशल का प्रदर्शन करने की शुरुआत करनी होती है। इससे आपकी संगठनात्मक और सामाजिक बोध की विशेषज्ञता का भी मूल्यांकन हो जाता है। अब वह समय आ गया होता है जब आपको अपने शोध से सम्बंधित समस्याओं के हल की खोज करनी होती है। अध्ययन की शुरुआत करने के लिए इन तीन गतिविधियों से सबसे पहले सामना होता है - अपने विषय से सम्बंधित आंकड़ों का संग्रह करना, अपने आंकड़ों का विश्लेषण करना और प्राप्त आंकड़ों से निष्कर्ष निकालना।


छठे अध्याय 'स्थान, वस्तुओं, पुस्तकों तथा समूहों का चुनाव' में अपने शोध विषय की जरूरत के अनुरूप उचित स्थानों, वस्तुओं, पुस्तकों तथा समूहों का चुनाव करने के तौर - तरीकों को समझाया गया है। यदि शोध की आवश्यकता के अनुरूप स्थान, वस्तुओं और पुस्तकों का चयन नहीं किया जाता है, तो शोध की सार्थकता पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। 


समाज विज्ञान के शोधार्थी को शोध कार्य हेतु किसी स्थान पर जाने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि वह लोगों के बीच जाकर उनके व्यवहार, उनकी रुचियों, उनकी मानसिकताओं तथा उनकी संस्कृति को समझने का प्रयास करता है। इसलिए इस प्रकार के शोध को अत्यधिक व्यवस्थित तथा गहन विश्लेषणपरक माना जाता है। अपने ज्ञान को विस्तृत करने के उद्देश्य से शोधार्थी वहाँ के लोगों से वार्तालाप करते हैं तथा उनके अनुभवों से अपने शोध को समृद्ध बनाते हैं।


सातवें अध्याय 'साक्षात्कार' में शोध में साक्षात्कार की महत्त्वता को प्रतिपादित किया गया है। साहित्य और मानविकी के विषयों के शोध में साक्षात्कार का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। साक्षात्कार शोध का प्रमुख पहलू भी होता है क्योंकि शोध में साक्षात्कार के द्वारा इन उद्देश्यों की पूर्ति होती है - प्रत्यक्ष सम्पर्क द्वारा सूचनाओं की प्राप्ति, अवधारणाओं का निर्माण, निरीक्षण का अवसर और अन्य प्रविधियों को प्रभावशाली बनाना इत्यादि। 


आचार्य बिसारिया जी एक अच्छे साक्षात्कारकर्त्ता में इन गुणों को जरूरी मानते हैं - आकर्षक व्यक्तित्व, अच्छा स्वास्थ्य, दृढ़ परिश्रमी, धैर्यवान, रचनात्मक कल्पना शक्ति, शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता, विचारों की स्पष्टता, तर्कशीलता, निष्पक्षता, सांख्यिकीय योग्यता, व्यवहारकुशल, संतुलित वार्तालाप, सतर्कता, आत्मनियंत्रण, विषय में रुचि, एकाग्रता, विषय में पारंगत होना, विभिन्न अध्ययन पद्धतियों तथा उपकरणों का मूलभूत ज्ञान, साधन सम्पन्नता, जिज्ञासु और वैज्ञानिक दृष्टिकोण इत्यादि। 


आठवें अध्याय 'प्रश्नावली तथा अनुसूची' में प्रश्नावलियों और अनुसूचियों की शोध की उपयोगिता को रेखांकित किया गया है। जहाँ एक ओर साक्षात्कार कुछ - कुछ अविश्वसनीय अथवा संदिग्ध आंकड़े दे सकते हैं, वहीं प्रश्नावली ऐसे संदेहों को प्रायः दूर करने का प्रयास करती है। प्रश्नावली के द्वारा बड़े भूभाग का अध्ययन करना सम्भव होता है, समय तथा धन की बचत होती है, शीघ्र सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं और स्वतंत्र तथा प्रामाणिक सूचनाएँ प्राप्त की जाती हैं। वहीं अनुसूची द्वारा शिक्षित, अशिक्षित तथा सभी प्रकार के सूचनादाताओं से आँकड़े प्राप्त किए जा सकते हैं। अनुसूची द्वारा गहन अध्ययन किया जा सकता है लेकिन इसके द्वारा सीमित क्षेत्र का अध्ययन किया है। 


नवें अध्याय 'फील्डवर्क' में शोध में फील्डवर्क अर्थात बाहर किए गए अनुसंधान कार्य के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। पुस्तकालयों में बैठकर किया गया अनुसंधान प्रायः प्रत्येक पुस्तकालय में एक जैसा ही होता है जबकि दूसरे प्रकार का शोध अर्थात फील्डवर्क विषय की आवश्यकता और मांग के मुताबिक भिन्न - भिन्न ढंग से किया जा सकता है। शोध हेतु आँकड़े एकत्र करने की जितनी भी प्रविधियाँ हैं, उनमें फील्डवर्क से सम्बंधित प्रविधियाँसर्वाधिक व्यावहारिक आँकड़े प्रदान करती है। इनमें सिद्धांतों से अधिक अनुप्रयोगों को महत्त्व दिया जाता है। साहित्य और मानविकी के विषयों में तो फील्डवर्क के बिना एक आदर्श अनुसंधान की कल्पना भी नहीं की जा सकती। 


दसवें अध्याय 'आंकड़ों का विश्लेषण तथा व्याख्या' में शोधार्थियों को ये समझाया गया है कि एक बारे आपने सारे आँकड़े एकत्र कर लिए तो आपका अगला कदम प्राप्त सूचनाओं को व्यवस्थित करने का होता है। अभी तक आपने जितने भी आँकड़े एकत्र किए हैं, वे उद्योग की भाषा में कच्चा माल हैं क्योंकि इन्हें अभी तक आप द्वारा छूआ नहीं गया है और ये सभी सूचनाएँ इधर - उधर बिखरी हुई हैं। आपका काम इन आंकड़ों को वर्गीकृत करके उनसे प्राप्त सभी सूचनाओं का विश्लेषित करने का है। यदि इसे आसान भाषा में कहें तो आंकड़ों के साथ 'बांटों और राज करो' की नीति सर्वश्रेष्ठ है। आंकड़ों को इस प्रकार से वर्गीकृत किया जाना चाहिए कि उनसे आपके शोध से संबंधित निष्कर्ष आसानी से प्राप्त किए जा सकें।


ग्याहरवें अध्याय 'थीसिस लेखन' में शोध-प्रबंध लिखने के तौर - तरीकों को बड़ी आसान भाषा में समझाया गया है। वास्तव में थीसिस एक पूर्व निर्धारित फॉर्मेट होती है, जिसमें कई अध्याय तथा उपअध्याय होते हैं। जिनका विवरण सिनॉप्सिस या संक्षिप्तिका या शोध सार के रूप में शोध प्रस्ताव के रूप में पहले ही दे दिया जाता है, जिस पर शोध समिति अपनी स्वीकृति दे देती है और शोधार्थी शोध कार्य हेतु उस विश्वविद्यालय में पंजीकृत हो जाता है। इसलिए अध्यायों तथा अध्यायों का विभाजन एवं शोध प्रविधि के बारे में पहले ही शोधछात्र - शोधछात्रा जानकारी दे चुके होते हैं और अब वे थीसिस लेखन में सिनॉप्सिस में पहले से बताए जा चुके बिंदुओं का ही अपने शोध अध्ययन से प्राप्त आंकड़ों के द्वारा विस्तार करते हैं।


थीसिस लिखते समय शोधछात्र - शोधछात्रा को इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए - 

अपने पाठक वर्ग को सदैव ध्यान में रखें, प्रायः सरल शब्दों का प्रयोग करें, संक्षिप्ताक्षरों का प्रयोग करने से बचें, विरोधाभासी वक्तव्य न हों, नकारात्मक वाक्य न हों, छोटे पैराग्राफ हों, वर्तनी शुद्ध हो, पाठ प्रवाहमय हो और तर्कसंगत निष्कर्ष हों इत्यादि।


बारहवें अध्याय 'वाइवा' में शोध उपाधि के अंतिम पड़ाव मौखिकी या वाइवा की तैयारी से लेकर वाइवा  देते समय शोधछात्र - शोधछात्रा को जिन बातों को ध्यान में रखना चाहिए, उनको समझाया गया है। 


वाइवा पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त करने से पूर्व की एक अंतिम औपचारिकता होती है, जिसमें आपके विषय के विद्वान आपकी थीसिस के निष्कर्षों तथा गुणों की जानकारी आपसे प्राप्त करते हैं। आपका मूल्यांकन करने वाले विषय विशेषज्ञ आपसे एक बौद्धिक विमर्श करते हैं, जो प्रायः अनौपचारिक वातावरण बनाते हुए किया जाता है। 


वाइवा वाले दिन आप वास्तव में हॉट सीट पर बैठे होते हैं और यह दिन आपके जीवन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दिनों में से एक होता है क्योंकि इस दिन आपको अपने प्रतिभाशील व्यक्तित्व और गहन अध्ययनशील दिमाग का सबूत देना होता है। आपको अपने ज्ञान के विषय में तीक्ष्ण तर्कशक्ति दिखानी होती है और अपने शोध में लिखे गए तथ्यों का बचाव करना होता है। इसके लिए आपको गहन आत्मविश्वास का परिचय देना होता है और सामने बैठे हुए विद्वानों को यह विश्वास दिलाना पड़ता है कि मैंने जो कुछ भी लिखा है, वह मौलिक है तथा इससे ज्ञान के क्षेत्र में नवीन संभावनाओं  के द्वार अवश्य खुलेंगे। ऐसा तभी सम्भव है, जब आप वाइवा में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर पूर्ण आत्मविश्वास के साथ दें। 


एक बार जब आपका वाइवा सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाए तथा आप कक्ष से बाहर आ जाएँ तो आप अपने सभी शिक्षक - शिक्षिकाओं, मित्रों, शुभचिंतकों तथा परिवार के सदस्यों के आभार जरूर जताएं क्योंकि ये छोटी-छोटी औपचारिकताएँ जीवन में निश्चित सफलता के द्वार खोलती हैं। इससे भविष्य में आपके पुस्तक लेखन, प्रोजेक्ट बनाने इत्यादि में इनकी सहायता फौरन मिलेगी और आप 'स्वार्थी' जैसे विशेषणों से बेचेंगे।  प्रायः भारत के सभी विश्वविद्यालय वाइवा होने के एक माह के अंदर परिणाम की अधिसूचना जारी कर देते हैं। एक माह के बाद आप अपनी प्रोविजनल डिग्री विश्वविद्यालय से कुछ फीस का भुगतान कर प्राप्त कर सकते हैं। अब आप अपने नाम के आगे 'डॉक्टर' लिख सकते हैं और लिख सकती हैं।


अतः इस प्रकार 'शोध कैसे करें?' किताब पी-एच०डी० में प्रवेश लेने की तैयारी से लेकर  पी-एच०डी० उपाधि मिलने तक की यात्रा के विभिन्न पक्षों को रेखांकित करते हुए शोधछात्र - शोधछात्राओं को जरूरी मार्गदर्शन देते हुए उनकी विभिन्न समस्याओं का समाधान पेश करती है और शोधछात्र - शोधछात्राओं के शोध जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसलिए हम इसे दुनिया की महानतम किताबों में से एक मानते हैं और इसे 'शोधछात्र - शोधछात्राओं के लिए सार्थक गाइड' की संज्ञा देते हैं। इस किताब को शोधछात्र - शोधछात्राओं के साथ ही शोधनिर्देशकों और आम पाठकों को जरूर पढ़ना चाहिए। इस किताब को पढ़ने से आपके जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होगा। 




किताब : शोध कैसे करें?

लेखक : पुनीत बिसारिया

प्रकाशक : अटलांटिक पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

प्रकाशन वर्ष : सन 2007, पहला संस्करण

नया संस्करण : सन 2023, तीसरा संस्करण

मूल्य : ₹595

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समीक्षक : ©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

(बुंदेलखंडी युवा लेखक, सामाजिक कार्यकर्त्ता)

१४/११/२०२३, जरबो गॉंव, झाँसी


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  हिंदी बिभाग, बुंदेलखंड कालिज, झाँसी में मुखिया आचार्य संजै सक्सेना जू, आचार्य नबेन्द कुमार सिंघ जू, डा० स्याममोहन पटेल जू उर अनिरुद्ध गोयल...