Friday 31 May 2019

हम हिन्दुस्तानिओं को अंग्रेजी का गुलाम मत बनाओ - कुशराज झाँसी

लेख - " हम हिन्दुस्तानिओं को अंग्रेजी का गुलाम मत बनाओ "


हम हिन्दुस्तानी सरकार से गुजारिश करते हैं कि हमें विदेशी भाषा अंग्रेजी का गुलाम मत बनाओ। हम हिन्दुस्तानी अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही सारा काम - काज करना चाहते हैं। जिससे हमारी प्रगति होगी और देश का मान - सम्मान बढ़ेगा। हम अंग्रेजी का पूर्णतः बहिष्कार करते हैं। सुनो सरकार! ऐसी परिस्थितियाँ मत बनाओ कि हमें विवश होकर अंग्रेजी का मानसिक गुलाम बनना पड़े और अपनी शाश्वत भारतीय संस्कृति को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाना पड़े। जैसा आजकल ज्यादातर लोग कर भी रहे हैं, जिन पर सरकार कोई अंकुश नहीं लगा रही है। साथ ही साथ इनका सहयोग करती भी नजर आ रही है।

किसी भी देश की भाषा उस देश की संस्कृति की संवाहक, अस्मिता की रक्षक और देशवासियों की पहचान होती है। हमारा भारत देश विभिन्नताओं में एकता के रूप में शुमार है। इसे बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी देश के रूप में भी जाना जाता है। आज अनेकों भारतीय भाषाओँ का नेतृत्त्व हिन्दी कर रही है।

हमारी भारतीय संस्कृति के प्रतीक ग्रन्थ चारों वेद, अट्ठारह पुराण, उपनिषद्, महाभारत और रामायण इत्यादि आदिभाषा देववाणी संस्कृत में लिखे हुए हैं, जो प्राचीन कल से लेकर आज तक भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि धर्म 'हिन्दू (सनातन) धर्म' का प्रचार - प्रसार कर रहे हैं और भारत की विजयी पताका अध्यात्म एवं दर्शन के क्षेत्र में सारी दुनिया में फहरा रहे हैं।

बौद्धकाल (500 ई. पू. से 01 ई. तक) में संस्कृत का स्थान लोकभाषा पालि ने ले लिया। इसी पालि भाषा में भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए और बौद्ध धर्म का आधार ग्रन्थ 'त्रिपिटक' भी लिखा गया। आज बौद्ध धर्म के अनुयायी दुनिया के हर देश में हैं।

जैनकाल (01 ई. से 500 ई. तक) में प्राकृत भाषा का चलन हो गया। सम्पूर्ण जैन साहित्य प्राकृत भाषा में ही लिखा गया है। जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने उपदेश प्राकृत में ही दिए। आजकल जैन धर्म दुनिया का बहुत अच्छा धर्म माना जाता है।

सन् 500 से 1000 ई. की अवधि के बीच अपभ्रंश भाषा का प्रचलन हो गया। इस भाषा को अवहट्, अवहत्थ और 'देशभाषा' आदि की संज्ञा दी गयी। अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ होता है - 'बिगड़ा हुआ या गिरा हुआ' अर्थात् अपभ्रंश देहाती लोगों और आमजन की भाषा है जिसे तथाकथित सभ्य समाज और शिक्षित वर्ग 'गिरा हुआ' समझते हैं।

असल बात तो यह है कि हमारे भारत की आत्मा गाँवों (देहात) में बसती है। उन गाँवों में जहाँ अनपढ़, किसान, मजदूर और गरीब रहते हैं। आज इन किसान - मजदूरों भी भाषा को 'देहाती' और 'गवारूँ' की संज्ञा दी जाती है। अपभ्रंश काल में यही 'देशभाषा' थी, जो सारे देश में बहुतायत में बोली जाती थी।

सन् 1000 ई. के बाद अपभ्रंश (देशभाषा) के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से विकसित आधुनिक आर्य (भारतीय) भाषाओँ जैसे - हिन्दी, खड़ीबोली, बुन्देली, ब्रजभाषा, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी गुजराती, मराठी, पंजाबी, बंगला, उड़िया और असमिया इत्यादि भाषाओँ और बोलियों का वर्चस्व रहा। हिन्दी भाषा जो 17 बोलियों (खड़ीबोली, अवधी, ब्रजभाषा, बुन्देली, हरियाणवी, छत्तीसगढ़ी, मारवाड़ी, जयपुरी, भोजपुरी, मगही, गढ़वाली इत्यादि) का समूह है। आज हिन्दी भाषा आधुनिक भारतीय भाषाओँ का नेतृत्त्व कर रही है। देश की आधी से अधिक आबादी हिन्दी का प्रयोग कर रही है। हिन्दी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जानेवाली तीसरी भाषा भी बन गयी है। फिर भी उसकी जन्मभूमि भारत में ही 'हिन्दी' और उसकी जननी 'संस्कृत' की घोर उपेक्षा की जा रही है। आजकल सिर्फ अंग्रेजी का दौर नजर आ रहा है।

आज दुनिया के विभिन्न देशों के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्ययन - अध्यापन हो रहा है और हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद - 343 के अनुसार भारतीय संघ की राजभाषा और देश की सम्पर्क भाषा, कई राज्यों की राजभाषा होने के बावजूद विदेशी भाषा अंग्रेजी से मात खाती हुई दिखाई दे रही है। जो हम सबके लिए सोचनीय है।


आजकल हमारे देश में उस अंग्रेजी को जो स्वार्थ और धनलिपसा की परिचायक है, को विकास की भाषा और आधुनिक बुद्धजीवियों, प्रतिभाशालियों की भाषा करार दिया जा रहा है। हर जगह हिन्दी सह अंग्रेजी की बदौलत हिन्दी बनाम अंग्रेजी नजर आ रही है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद - 348 के अनुसार उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में संसद व राज्य विधानमण्डल में विधेयकों, अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा, उपबंध होने तक अंग्रेजी जारी रहेगी। जब देश की आमजनता को न्याय उसकी मातृभाषा में ही न सुनाया जाए तो इससे बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है ? आखिर कब हमें न्याय अपनी भाषा में मिलेगा ?

आजकल अंग्रेजी का बोलबाला संघ लोकसेवा आयोग (यू. पी. एस. सी.) की सिविल सेवा परीक्षा (सी. एस. ई.) में कुछ ज्यादा ही दिख रहा है। सिविल सेवा परीक्षा में जहाँ हिन्दी माध्यम के सिर्फ 40 - 50 अभ्यर्थी ही सफल हो पाते हैं और वहीँ अंग्रेजी माध्यम के 850 - 950 अभ्यर्थी सफल होते हैं। आजतक कोई भी हिन्दी माध्यम से सिविल सेवा परीक्षा में टॉप नहीं कर सका। जो हमारी राजभाषा हिन्दी के लिए घोर अपमानजनक है। जबतक देश की सर्वोच्च परीक्षा में ही विदेशी भाषा अंग्रेजी का बोलबाला रहेगा तबतक हिन्दी वालों का उद्धार न हो सकेगा और न ही देश का विकास। आखिर कब सिविल सेवा परीक्षा से अंग्रेजी माध्यम का अस्तित्त्व खत्म होगा ? आखिर कब सिविल सेवा परीक्षा में हिन्दी माध्यम वालों को उनका हक मिलेगा ? मेरा मत है कि सिविल सेवा परीक्षा सिर्फ और सिर्फ देशीभाषाओँ में ही होनी चाहिए तभी देश का विकास हो सकेगा।


शिक्षा - संस्थान ही भाषा का सच्चा प्रचार - प्रसार करते हैं और छात्र ही देश के भाग्यविधाता होते हैं। आजकल देश दुनिया में प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय और संबद्ध कॉलेजों में अधिकतर कार्यालयी काम - काज सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में हो रहे हैं। वहीँ कॉलेजों में हिन्दी भाषा और साहित्य को लेकर लाखों - करोड़ों रूपए राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों (सेमिनारों), व्याख्यानों,पत्र - पत्रिका और पुस्तक प्रकाशन तथा प्रतियोगिताओं में खर्च किए जा रहे हैं। अधिकतर हिन्दी के प्रोफेसर, छात्र और साहित्यकार ही हिन्दी में हस्ताक्षर नहीं करते। ये तथाकथित लोग सिर्फ और सिर्फ भाषणों में ही हिन्दी के प्रयोग और विकास की बात करते हैं और जमीनी स्तर पर नाममात्र के काम करते हैं। स्नातक हिन्दी ऑनर्स, संस्कृत ऑनर्स और दो - चार कोर्सों को छोड़कर सभी स्नातक और परास्नातक पाठ्यक्रमों का अध्ययन - अध्यापन अंग्रेजी माध्यम में ही हो रहा है। जब अपने ही देश के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अपनी मातृभाषा में अध्ययन - अध्यापन ही नहीं कर पा रहे हैं तो और कहाँ कर पाएँगे। आखिर कब देश के हर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में सारे कोर्सों का अध्ययन - अध्यापन मातृभाषा, हिन्दी माध्यम में होगा ?


आज हमारे लिए सबसे बड़ी दुःख की बात यह है कि भारतीय संस्कृति पर नाज करने वाली, हिन्दूवादी एवं राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्त्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश के गाँव - गाँव ने अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोल रहे हैं और देश के भविष्य 'छात्रों' को अंग्रेजी के मानसिक गुलाम बना रहे हैं। हमारी मातृभाषा हिन्दी का अपमान कर रहे हैं। हमारी शिक्षा - व्यवस्था चुस्त - दुरुस्त न होने की बजह से इन गाँवों के सरकारी स्कूलों में हिन्दी माध्यम की पढ़ाई - लिखाई ठीक से नहीं हो रही है। यहाँ पर शिक्षा विद्यार्थियों का मिड - डे  मील की सामग्री तक हजम कर जा रहे हैं। ऊपर से सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के मताई - बाप किसान - मजदूर हैं, जिन्हें अपने काम से ही फुर्सत नहीं मिलता। यदि फुर्सत मिले तो ये अपने बच्चों की पढ़ाई का जायजा भी ले सकें। ये किसान - मजदूर कर ही क्या सकते हैं, जो करना है सरकार को करना है। सरकार द्वारा अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल खोलकर जनमानस और ज्यादा बेरोजगारी और कुशिक्षा को बढ़ावा देने की साजिश नजर आ रही हैं। अंग्रेजी माध्यम की जगह सरकार को क्षेत्रीय भाषाओँ और बोलियों वाले माध्यमों में स्कूल खोलने चाहिए ताकि विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा प्राप्त कर सके और मातृभाषा का विकास कर सके। सरकार को अंग्रेजी माध्यम में संचालित होने वाली संस्थाओं पर प्रतिबंध भी लगाना चाहिए। माननीय मुख्यमंत्री को हिन्दी के साथ - साथ संस्कृत भाषा को अनिवार्य करना चाहिए और अंग्रेजी का पूर्णतः बहिष्कार करना चाहिए तभी हमारी भारतीय संस्कृति की विजयी पताका सारी दुनिया में लहर सकेगी और भारत देश विकसित देश बन सकेगा। हमें हमेशा अपनी मातृभाषा में काम करना चाहिए। इस संदर्भ में मेरा लेख 'अपनी मातृभाषा में काम करो' उल्लेखनीय है। जो इस प्रकार है -:


                आज मेरी सबसे बड़ी कमी और परेशानी ये है कि मुझे अंग्रेजी नहीँ आती है। मैं न ठीक से अंग्रेजी समझ पाता हूँ और न ही बोल पाता हूँ। मुझे अंग्रेजी का थोड़ा बहुत ज्ञान तो है। पर सबसे बड़ी बात ये है कि मैं विदेशी भाषा को उतना महत्त्व नहीं देता जितना अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा 'हिन्दी' को और आपसे भी कहता हूँ कि आप भी मेरा साथ दीजिए और विदेशी भाषा का कामचलाऊ ज्ञान रखिए और अपनी मातृभाषा में सारा काम कीजिए और अपनी तरक्की और अपने देश की तरक्की कीजिए ।

                     कोई भी देश किसी विदेशी भाषा में कामकाज करके तरक्की नहीं करता और न ही कर सकता है। प्रत्येक विकसित देश सदैव अपनी मातृभाषा में काम करके इस मुकाम तक पहुँचा है। इसी संबंध में 'भारतेंदु हरिश्चन्द जी' ने कहा हैं - " निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।। "

                     हमारे भारत देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि ये मातृभाषा के साथ विदेशी भाषा अंग्रेजी में अपने राज - काज का क्रियान्वयन करता है। जिस दिन से हमारा देश विदेशी भाषा अंग्रेजी, जिसके हम मानसिक गुलाम हैं, उसमें राज - काज करना छोड़ देगा और केवल अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा 'हिंदी' में राज - काज का क्रियान्वयन शुरू कर देगा। उसी दिन से इसकी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की होना शुरू हो जायेगी और ये विकसित देश बन जायेगा और साथ ही साथ फिर से 'विश्वगुरु' और 'सोने की चिड़िया' की पदवी को पा लेगा।

               
     ✍ कुशराज झाँसी

  (महासचिव - हिन्दी साहित्य परिषद्, हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय)

_ 28/5/2019_ 4:24 शाम _ झाँसी बुंदेलखंड

  





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