Saturday 15 June 2019

परिवर्तनवाद / कुशराजवाद


     * दार्शनिक सिद्धांत -: परिवर्तनवाद / कुशराजवाद *

मेरे (कुशराज झाँसी) विचारों को परिवर्तनवाद/कुशराजवाद की संज्ञा दी जाती है। परिवर्तनवाद दार्शनिक, राजनैतिक और सामाजिक सिद्धांत है। यही साहित्य के क्षेत्र में विकासवाद के नाम से जाना जाए। कुशराज का (मेरा) मूल मन्त्र है कि क्रान्ति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। कुशराज (मैं) हर क्षेत्र में आन्दोलन/क्रान्तियाँ करके, सार्थक परिवर्तन लाना चाहता है और विकास की गंगा बहाना चाहता है। मेरे विचारों से प्रभावित लोग और अनुयायी कुशराजवादी, कुशराजे, परिवर्तनकारी, परिवर्तनवादी और विकासवादी हैं। मेरे जैसे विचारकों के विचारों को भी परिवर्तनवाद की संज्ञा दी जाए क्योंकि यह दौर परिवर्तन और विकास का है।





परिवर्तन प्रकृति का नियम है। लेकिन मैं कहता हूँ कि क्रांति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। क्रांति यानि आन्दोलन होने से परिवर्तन होते हैं। परिवर्तन होते हैं तो विकास जरूर होता है। किसी व्यवस्था, सिस्टम,अधिकार, सत्ता और संगठित तंत्र में कम समय में आधारभूत परिवर्तन होना ही 'क्रान्ति' कहलाती है। मानव इतिहास में अनेकों क्रांतियाँ होती आयी हैं और आज भी हो रही हैं। भविष्य में भी क्रान्तियाँ होती रहेंगी, जिनका होना दुनिया के लिए बहुत जरूरी है। हर क्रान्ति पद्धति, अवधि और प्रेरक वैचारिक सिद्धांत के मामले में बहुत अलग होती  है। अलग होना भी चाहिए क्योंकि विभिन्नताएँ बहुत जरूरी हैं, जो सबको पहचान दिलाती हैं। क्रान्तियों के परिणामों के बावजूद सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक संस्थानों में बहुत परिवर्तन होते हैं। क्रांति पर विद्वत्तापूर्ण विचारों की कई पीढ़ियों ने अनेकों प्रतिस्पर्धात्मक सिद्धांतों को जन्म दिया है और इस जटिल तथ्य के प्रति वर्तमान समझ को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।


मेरा विचार है कि वैचारिक क्रान्ति ही परिवर्तन ला सकती है। ऐसी प्रक्रिया जो क्रांति होने के साथ किसी व्यवस्था, सरंचना या कार्यपद्धति में सुधार करके एक नए रूप को जन्म देती है और जो कभी न रुकती है 'परिवर्तन' कहलाती है। समकालीन विश्व में हर  क्षेत्र जैसे - समाज, शिक्षा, विज्ञान, साहित्य, सिनेमा, कृषि, राजनीति और धर्म इत्यादि में अनेकों परिवर्तन होने से विकास हो रहा है। विकास होना भी चाहिए क्योंकि यही तो परिवर्तनवाद/कुशराजवाद का लक्ष्य है। इन परिवर्तनों की गति कभी तेज रही है तो कभी धीमी। कभी - कभी ये परिवर्तन अति महत्त्वपूर्ण रहे हैं तो कभी बिल्कुल महत्त्वहीन। कुछ परिवर्तन आकस्मिक होते हैं, हमारी कल्पना से परे और कुछ ऐसे होते हैं जिसकी भविष्यवाणी सम्भव है। कुछ से तालमेल बिठाना सरल है जबकि कुछ को सहज ही स्वीकारना कठिन है। कई बार हम परिवर्तनों के मूक साक्षी भी बने हैं। लेकिन अब परिवर्तनकारियों को मूक साक्षी बनने की जरूरत नहीं है। इन्हें सार्थक परिवर्तनों को अंजाम देना है।


व्यवस्था के प्रति लगाव के कारण मानव - मन इन परिवर्तनों के प्रति प्रारंभ में शंकालु रहता है परंतु बाद में उन्हें स्वीकार कर ही लेता है। अब समय है - परिवर्तनों को सहज स्वीकरने का। परिवर्तनकारियों के विचारों, नीतियों के साथ ऐसा ही है कि इनसे लोग भले ही देर से प्रभावित हों लेकिन प्रभावित होँगे जरूर। अब युग शुरू हो चुका है - परिवर्तन और विकास का। क्रांति और परिवर्तन के परिणामस्वरूप जिसकी उत्पत्ति होती है, उसे ही 'विकास' कहते हैं। विकास शाश्वत परिवर्तनों के रूप में स्वीकार किया जा रहा है। परिवर्तन एक ऐसी प्रकिया है जो कभी नहीँ रुकती है। मनुष्य की अभिवृद्धि एवं विकास माँ के गर्भ से प्रारंभ होकर जन्म के बाद जीवनभर निरन्तर चलता रहता है। विकास कई अवस्थाओं से होकर गुजरता है क्योंकि इसके लिए बड़े संघर्ष करने पड़ते हैं। किसी अवस्था में विकास तीव्र होता है तो किसी में मंद तो किसी में सामान्य। यहाँ व्यक्तिगत भिन्नता भी देखने को मिलती है। मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के बाह्य एवं आंतरिक अंगों में होने वाली वृद्धि होती है, जबकि मानव विकास से तात्पर्य उसकी अभिवृद्धि के साथ - साथ उसके शारीरिक एवं मानसिक व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों से होता है। विकास की प्रक्रिया एक अविरल, क्रमिक एवं  सतत् प्रक्रिया है।


वैचारिक क्रांति ही परिवर्तन ला सकती है क्योंकि इस दुनिया में अनंत शक्ति विचार में ही निहित है। विचार सर्वशक्तिमान हैं। विचार हमारी सोच पर निर्भर करते हैं। विचार और सोच का घनिष्ठ संबंध है। दार्शनिक और लेखक के विचारों से ही क्रांति होती है। लेखक समाज का सच्चा सृष्टा और दृष्टा होता है। कलम चलाना अंगारों पर चलने जैसा है। हम सबको अपनी प्रतिभा, हुनर और कौशल को पहचानना है। कलम की ताकत को मानना है क्योंकि हम सबके लिए कलम का बड़ा महत्त्व है। मैं कहता हूँ - "कलम ही मेरी ताकत है।

हम परिवर्तनकारी लेखकों का विचार है कि -
"कलम चलायी है तो हर मुद्दे पर चलेगी।
वो भी निष्पक्ष भाव से चलेगी।
चाहे कुछ भी हो,
कलम नहीँ रुकेगी।
मरते दम तक भी नहीँ रुकेगी।।"

आप सबको मेरा एक ही सन्देश है -
" लिख तूँ लिख,
  सबकी सच्चाई लिख।
  सच लिखने में डरना मत,
  असली बकने में झिझकना मत।
  बेईमान तोय दबाएँगे,
  तूँ हरहाल में दबना मत।
  मौत से कभी डरना मत,
  काय मौत के बाद,
  फिर से जनम मिलत है।
  ईसें यी जनम तूँ डर गया,
  तो खुदको भी माफ नहीँ कर सकेगा।
  लिख तूँ लिख,
  सबकी सच्चाई लिख............."

।। परिवर्तन लाओ - विश्वकल्याण पाओ।।


परिवर्तनकारी कुशराज ( मैं )  'दार्शनिक सिद्धांत - परिवर्तनवाद' को परिभाषित करते हुए कहते हैं -: "परिवर्तनवाद/कुशराजवाद एक ऐसी दार्शनिक अवधारणा है जिसके द्वारा क्रान्ति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं, को असलियत में लागू करना है। परिवर्तनवाद विश्वकल्याण की बात कर रहा है। इसके द्वारा गाँवों का विकास, हर जगह समानता, अभिव्यक्ति की पूरी आजादी, सख्त कानून व्यवस्था, शिक्षा पर जोर, किसान-मजदूरों की दशा में सुधार करके सत्ता की बागड़ोर सारी दुनिया की भूँख मिटाने वाले धरतीपुत्र किसानों और घोर परिश्रमी मजदूरों को सौंपना है। इससे घिसी-पिटी मान्यताओं को मिटाकर
भाषा,साहित्य,समाज, सिनेमा, संस्कृति और राजनीति में नवीनता  लाकर विकास करना है और आस्तिक बने रहना है। परिवर्तनवाद के अनुयायियों को परिवर्तनवादी, परिवर्तनकारी, कुशराजवादी, कुशराजे, विकासवादी की संज्ञा दी जाती है। 

✍🏻 परिवर्तनकारी कुशराज

 ____31/12/2018_10:00पूर्वान्ह__झाँसी बुन्देलखण्ड


परिवर्तनवाद / कुशराजवाद के लक्ष्य और विशेषताएँ -:

1. आन्दोलन द्वारा अपने अधिकारों की प्राप्ति -:
क्रान्ति, परिवर्तन और विकास प्रकृति से शाश्वत नियम हैं। क्रान्ति के ही रूप आन्दोलन एयर विद्रोह भी हैं। परिवर्तनवाद बच्चे से लेकर बूढ़े तक को आन्दोलन करके अपने अधिकारोँ और माँगों को पाने की पूरी छूट देता है। आन्दोलन भले ही अपने सगे - सम्बन्धियों के खिलाफ ही क्यों न करने पड़ें लेकिन आन्दोलन जरूर करने चाहिए। तभी सभी की सारी मूलभूत जरूरतें पूरी होंगीं और किसी का भी शोषण नहीं होगा। जो अब समयचल रहा है उसमें कोई भी चीज आसानी से मिलने वाली नहीं है। इसमें हर चीज को पाने के लिए बड़ा संघर्ष करने की जरूरत हो गयी है। 'वीर भोग्यम् वसुंधरा' अर्थात् 'इस पृथ्वी का भोग वीर ही कर सकते हैं।' नामक उक्ति सार्थक हो रही है। आन्दोलन भले ही अकेले करना पड़े या संगठित होकर लेकिन किसी को भी किसी भी हाल में पीछे नहीं हटना है क्योंकि हम सभी वीर हैं। आन्दोलन के परिणामस्वरूप हुए परिवर्तनों द्वारा ही सबके जीवन में सुख - समृद्धि आएगी। आन्दोलन सच्चा न्याय पाने के लिए करना पड़े या शोषण - अत्याचार के विरुद्ध। हर परिस्थिति में हमें साहस से कलम की दम पर तनकर खड़े रहना है क्योंकि कुछेक आन्दोलनकारियों को ही हार का सामना करना पड़ता है ज्यादातर आन्दोलनकारियों की जीत ही होती है। परिवर्तनकारियों को आन्दोलन/क्रान्ति करना जीवन का परम कर्त्तव्य मानना चाहिए और उसका दृढ़ निश्चय के साथ पालन करना चाहिए।


2. गाँवों का विकास -:
परिवर्तनवाद गाँवों के विकास पर जोर देता है क्योंकि शहरोँ और महानगरों का खूब विकास हो चुका है। आज 21 वीं सदी में भी भारत और दुनिया के कई गाँवों और पिछड़े इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन सेवाएँ और बिजली तक नहीं पहुँची है। इण्टरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में इन गाँवो का विकास नहीं होगा तो आखिर कब होगा? गाँवों के विकास में ही देश का हित है क्योंकि भारत जैसे कई कृषिप्रधान देशों की अधिकतर आबादी गाँवों में ही निवास कर रही है। भारत की आत्मा तो गाँवों में ही बसती है। इन गाँवों में सबसे पहले गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की समुचित व्यवस्था होने की जरूरत है क्योंकि शिक्षा जीवन की आधारभूत जरूरत है। शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य दुनिया की हर चीज पा सकता है। जब गाँववासी शिक्षित होंगे तभी उनसे घिसी - पिटी रूढ़िवादी मान्यताओं को त्यागने के लिए आह्वान किया जा सकता है। आज भी गाँवों में पर्दा प्रथा, घूँघट प्रथा, दहेज प्रथा, छुआछूत, स्त्रियों के धर्मस्थलों जैसे- मंदिर, मस्जिद में प्रवेश पर रोक और यहाँ तक की बाल-विवाह प्रथा पूरी तरह विद्यमान हैं। अब समय आ गया है इन कुप्रथाओं को खत्म करके गाँवों को विकसित करने का और गाँववासियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का। गाँवों में इन घिसी-पिटी धार्मिक - सामाजिक मान्यताओं को खत्म करने के लिए भले ही परिवर्तनकारियों को आन्दोलन क्यों न करने पड़ें लेकिन अब गाँवों का चहुँमुखी विकास होकर रहेगा। गाँवों में ही पर्याप्त रोजगार की संभावना हो, ऐसी कोशिश जारी रहेगी।


3. किसान - दशा में सुधार -:
परिवर्तनवाद को किसानवाद की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। परिवर्तनवाद सारी दुनिया की भूँख मिटाने वाले, धरतीपुत्र किसानों के प्रति पूरा समर्पित है। मैं इन किसानों को 'दूसरा जीवनदाता' कहता हूँ। 21वीं सदी के आरम्भ से लेकर आजतक भारत के कई क्षेत्रों में किसानों को अपनी दुर्दशा से  आहत होकर आत्महत्याएँ करनी पड़ रही हैं। उन्हें ठीक से दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो रही है क्योंकि ये बाजारवाद और महँगाई का दौर चल रहा है। अभी तक किसानों का सरकार, अमीरों और साहूकारों द्वारा शोषण होते आया है लेकिन अब से ऐसा कदापि नहीं होगा क्योंकि अब किसान जागरूक हो गए हैं और सबसे बड़ी बात तो ये है कि उनके प्रबल पक्षधर परिवर्तनकारी उनके साथ हर वक्त खड़े हैं। भारत के कई क्षेत्रों में सिंचाई के साधनों की उचित व्यवस्था नहीं है और तो और ऊपर से प्रकृति की मार किसानों को तबाह कर रही है। कभी भयंकर अकाल/सूखा पड़ जाता है तो कभी ऐसी बाढ़ आती है कि किसानों के खेत-खलिहानों के साथ ही साथ उनके घर - मड़ईयाँ भी साफ हो जाते हैं। महँगाई के इस दौर में और इन किसान - विरोधी सरकारों में किसानों की दशा और बुरी हो गयी है। किसानों की दशा में सुधार की सख्त जरूरत है क्योंकि किसानों के बिना दुनिया की कल्पना करना असंभव है।
बाजारवाद और वैश्वीकरण के इस दौर में किसानों की दशा में सुधार होने की पूरी संभावना है। किसानों की फसलों के दाम तीन -चार गुने होने चाहिए। जैसे - अभी गेहूँ के दाम लगभग 15₹ प्रति किग्रा० हैं तो आगे गेहूँ का समर्थन मूल्य ही 45 - 60₹ प्रति किग्रा० होना चाहिए। जब किसानों को फसलों के भरपूर दाम मिलेंगे तब न ही सरकार को किसान का कर्ज माफ करने की जरूरत है और न ही खैरात में किसानों को किसान - निधि के तहत 6000₹ सालाना बाँटने की। किसानों के लिए प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था अवश्य की जाए तभी विश्वकल्याण की कल्पना की जा सकती है। जब किसान शिक्षित होंगे तो इनका कोई भी शोषण नहीं कर सकेगा। लेकिन अभी जरूरत है किसानों को एक ऐसा आन्दोलन करने की। जिससे वो अपनी फसलों का उचित समर्थन मूल्य पाने में और एक बार अपना पूरा कर्ज माफ कराने में सफल हो सकें। साथ ही साथ वैज्ञानिक कृषि करने के गुण सीखने में भी कामयाब हो सकें।


4. मजदूर - दशा में सुधार -:
मजदूरों के बलबूते पर ही सारा उद्योग - जगत खड़ा है। कारखानों में मजदूरों की दशा बहुत बुरी है। न ही उन्हें भरपेट भोजन मिल रहा है और न ही उनको स्वास्थ्य/मेडिकल सेवाऐं मुहैया करायी जा रही हैं। देश के मजदूरों को गरीबी, लाचारी में जीवन गुजरना पड़ रहा है। कोयले और खनिज की खानों में कई मजदूरों की मौत हो जाती है। जिनके परिजनों को बहुत कम सहयोग दिया जाता है। बहुत से मजदूरों की मौत का पता तक नहीं लग पाता। बेलदारी/भवन -निर्माण में मजदूरों को आठ-दस घण्टे कोल्हू के बैल की तरह जोता जाता है। लेकिन आज इनकी मजदूरी सिर्फ 300-400₹ प्रति दिन है। जिससे सिर्फ इनके परिवार का ठीक से भरण-पोषण तक ही नहीं हो पाता है। शिक्षा का बाजारीकरण होने से इनके बच्चे अच्छी शिक्षा पाने में नाकामयाब हो रहे हैं क्योंकि शिक्षा बहुत महँगी हो गई है। अब जरूरत है - मजदूरों की मजदूरी तीन - चार गुना करने की। हर मजदूर की रोजाना की मजदूरी लगभग 900-1200₹ होना चाहिए तभी इस देश और दुनिया में बाल मजदूरी पर लगाम लगाया जा सकता है क्योंकि जब मजदूर को ही रोजाना की मजदूरी 900-1200₹ मिलेगी तब मजदूर के बच्चे को बाल-मजदूरी करने की जरूरत ही नहीं है। जो बच्चे अनाथ हैं और वो बाल - मजदूरी करने को मजबूर हैं तब इन अनाथों के लिए सरकार को ज्यादा से ज्यादा अनाथालय खोलने चाहिए और वहीँ पर उनकी शिक्षा - दीक्षा की उचित व्यवस्था करनी चाहिए। इन मजदूरों और बाल - मजदूरों को अपनी दशा में सुधार लाने के लिए आन्दोलन करने चाहिए जिससे इनको अपने अधिकार मिल सकें और ये समाज की मुख्यधारा से जुड़कर विकास की राह पकड़ सकें।


5. किसान - मजदूरों का शासन -:
इस दुनिया में किसानों - मजदूरों की आबादी इतनी ज्यादा है, जितनी और किसी की भी नहीं है। सिर्फ जरूरत है इन किसान - मजदूरों को संगठित होकर लोकतंत्र में सत्ता की बागड़ोर हथियाने की। लोकतंत्र में चुनाव वही जीतता है और सत्ता उसी की होती है, जिसका जनाधार बड़ा होता है। इसलिए परिवर्तनवाद बिना किसी का विरोध किए किसानों - मजदूरों को एक मंच पर आने का निवेदन करता है और इनके शासन करने के मौके को किसी भी हाल में चूकने नहीं देना चाहता है। जब शासन किसान - मजदूरों के हाथ में होगा तभी देश - दुनिया का चहुँमुखी विकास हो सकेगा क्योंकि किसी के दुःख - दर्द को कोई और उतनी भली - भाँति नहीं समझ सकता जितना उसका सगा - सम्बन्धी।


6. पर्यावरण संरक्षण पर जोर -:
परिवर्तनवाद पर्यावरण संरक्षण पर बहुत जोर देता है क्योंकि पर्यावरण के घटक - जल, जंगल, जमीन और हवा के बगैर दुनिया के जीवधारियों का जीवन ठीक से नहीं चल सकता। क्योंकि हम मनुष्य हवा से ऑक्सीजन लेकर साँस लेते और हमारे द्वारा छोड़ी गयी कार्बनडाई ऑक्साइड से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में जंगल के सारे पेड़ - पौधे और किसान की फसलें अपना भोजन बनाती हैं। जिसने प्राप्त उत्पादों फलों, सब्जियों, अनाजों को हम अपने भोजन के रूप में उपयोग करके जीवित रहते हैं। आज पर्यावरण प्रदूषण बहुत बढ़ गया है। इस प्रदूषण से मुक्ति पाने का एकमात्र उपाय है कि ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए जाएँ और जंगलों को संरक्षित किया जाए। क्योंकि पेड़ ही बारिश कराने के लिए जिम्मेदार हैं और जल ही जीवन है। जल के बिना हमारे दैनिक क्रियाकलाप सम्पन्न हो सकते हैं और न ही फसलों की सिंचाई।आज औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के दौर में खेती की जमीन  का भी उद्योग - निर्माण और भवन - निर्माण में किया जा रहा है। इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है। खेती योग्य जमीन को बचाना बहुत जरूरी है बरना हमें भूखों मरना पड़ेगा। परिवर्तनवाद अभी से 'पर्यावरण बचाओ - जीवन बचाओ आन्दोलन' शुरू करता है।


✍🏻 परिवर्तनकारी कुशराज

 ____31/12/2018_10:00पूर्वान्ह__झाँसी बुन्देलखण्ड



Wednesday 5 June 2019

विश्व पर्यावरण दिवस की अनन्त शुभकामनाएँ 🌱🌱🌱


विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) पर विशेष_____

 कविता -: वन बचाओ 

वन बचाओ, वन बचाओ;
वृक्ष लगाओ, वृक्ष लगाओ।
     वन होंगे तो वर्षा होगी,
     वर्षा होगी तो जल होगा।
जल होगा तो कृषि होगी,
कृषि होगी तो अनाज होगा।
     अनाज होगा तो रोटी होगी,
     रोटी होगी तो हमारी भूख मिटेगी।
भूख मिटेगी तो जीवित होंगे,
जीवित होंगे तो जीवन होगा।
     जीवन होगा तो हम सब होंगे,
     वन नहीं होंगे तो हम सब नहीं होंगे।
वन बचाओ, वन बचाओ।
वृक्ष लगाओ, वृक्ष लगाओ।।

      ✍  कुशराज
(सामाजिक कार्यकर्त्ता, लेखक)
       झाँसी बुन्देलखण्ड______






Monday 3 June 2019

बुंदेली - हिन्दी सबदकोस -: सतेंद सिंघ किसान



" बुंदेली - हिन्दी सबदकोस  
-: सतेंद सिंघ किसान "


                          भूमिका

                  जब से इस धरती पर मनुष्य का जन्म हुआ तभी से भाषा का भी प्रादुर्भाव हुआ। भाषा के द्वारा ही हम मनुष्य और प्राणिजन अपने भावों, विचारों और सोच का परस्पर एक - दूसरे तक आदान - प्रदान कर पाते हैं। विचार और सोच के बल पर ही सारी दुनिया चल रही है। लिपि के आनेे से पहले भाषा का श्रव्य रूप और मौखिक रूप अनवरत् रूप से कई सालों तक विद्यमान रहा। लिपि के आने के बाद भाषा का लिखित रूप प्रचलन में आ गया, जिससे भाषा को संरक्षित और सुरक्षित करने में और भाषा का प्रचार - प्रसार करने में काफी सहूलियत हुई।

सारी दुनिया में हजारों भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। इसमें से कुछ भाषाओं को विश्वभाषा और अनेकों को राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा होने का गौरव प्राप्त है। बोलियों को लोकभाषा, देहाती भाषा, किसानी भाषा, गवारूँ, जनभाषा, बोलचाल की भाषा और आम आदमी की भाषा होने का गौरव प्राप्त है। भाषा और बोलियाँ ही संस्कृति और लोकसंस्कृति की संवाहक हैं और अस्मिता की रक्षक हैं।

क्रांति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। विकास की दौड़ फतह करने के लिए प्रतिस्पर्धाऐं चलती रहती हैं। इसमें कईयों को तो अपनी पहचान और अस्तित्त्व बनाए रखना ही मुश्किल हो जाता है। यही नियम भाषाओं और बोलियों पर भी लागू होता है। कई समृद्ध भाषाएँ असमृद्ध भाषाओँ और बोलियों को अपने आगोश में लेकर इनकी पहचान और अस्तित्त्व को मिटाने की नाकामयाब कोशिश करती हैं। भाषाओं का अपना अस्तित्त्व है और बोलियों का अपना सिर्फ बोलने वालों की आबादी और क्षेत्र का फर्क है। इस दुनिया में सबका अपना - अपना महत्त्व और विशेषता है चाहे कोई छोटा हो और चाहे कोई कितना ही बड़ा।


हिन्दी भाषा का अपना महत्त्व है और बुन्देली भाषा का अपना। बुन्देली भाषा को हिन्दी भाषा अपनी एक बोली मानती है। जो ठीक नहीं हैं। बुन्देली समृद्ध भाषा है और इसमें साहित्य और लोकसाहित्य का अपार भण्डार है। बुन्देली बुन्देलखण्ड क्षेत्र में बहुतायत में प्रयोग की जाती है। बुन्देलखण्ड के आधार पर ही इसका नाम 'बुन्देली' पड़ा। इसे 'बुन्देलखण्डी' भी कहा जाता है। बुन्देली का केंद्र वीरभूमि जिला - झाँसी और जिला - सागर है।  बुन्देली बोलने वालों और प्रयोगकर्त्ताओं की आबादी लगभग 4 - 5 करोड़ है। बुन्देली बुन्देलखण्ड की संस्कृति और अस्मिता की रक्षक है और बुन्देलखण्डियों की पहचान है। बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी और सागर विश्वविद्यालय, सागर में बुंदेली भाषा का स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर अध्ययन - अध्यापन हो रहा है और इसमें शोध भी किए जा रहे हैं।

मुझे आशा है कि जल्द ही 'बुन्देलखण्ड पृथक राज्य' बनेगा और ' बुन्देली' उसकी राजभाषा। बुन्देली भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाने के लिए हम सब बुन्देली और बुन्देलखण्ड के लिए तत्परता से कड़ी मेहनत करेंगे। इस पुस्तक 'बुन्देली - हिन्दी शब्दकोष' के लिए मैं अपने क्षेत्रवासियों को हार्दिक धन्यवाद् ज्ञापित करता हूँ , जो हम सबकी प्यारी - दुनिया की न्यारी भाषा 'बुन्देली' का प्रयोग करते हैं। मैं उन विद्वानों, भाषाविज्ञानियों और साहित्यकारों का भी हार्दिक धन्यवाद् ज्ञापित करता हूँ, जिनके पुस्तकों से शब्दकोष निर्माण में सहायता ली। साथ ही साथ, अब मैं अपने सुख - दुःख के साथी परिजन, दद्दा - पीताराम कुशवाहा, बाई - रामकली, मताई - ममता, बाप - हीरालाल, कक्का - भानुप्रताप, काकी - माया, भज्जा - ब्रह्मानंद, ब्रजबिहारी, गौरव मानवेन्द्र, प्रशांत और बिन्नू - रोशनी कुशवाहा का हार्दिक धन्यवाद् ज्ञापित करता हूँ। जिनके सहयोग से मुझे बुन्देली रचनाएँ करने में कभी भी किसी भी प्रकार की समस्या नहीं आती।

    ।। जय बुन्देली - जय जय बुन्देलखण्ड ।।

✒ सतेंद सिंघ किसान 

_ 30 मई 2019_ 02:10 दिन _ झाँसी बुन्देलखण्ड



                  * समर्पण *
" सारी दुनिया की भूख मिटाने वाले, अन्नदाता किसानों के चरणों में सादर समर्पित..........."



          * रिस्सेदार (सगे - संबंधी/ रिश्तेदार) *

* बुन्देली             -              हिन्दी *

* मताई, अम्मा     -    माँ, माता, मम्मी, अम्बा
* बाप      -      पिता, पापा
 * कक्का    -      चाचा
* काकी     -    चाची
 * बड़े पापा      -    ताऊ
* बड़ी मम्मी    -      ताई
* दद्दा       -       दादा
* बाई         -    दादी
* बब्बा, अजा    -     परदादा
* बऊ, आजी    -     परदादी
* भज्जा     -     भाई
* भौजी     -    भाभी
* बिन्नू     -     बहिन
* जीजा     -     बहनोई
* जिज्जी     -     बड़ी बहिन, दीदी, बुआ
* हल्की, देवरानी    -    देवरानी
* लला     -      देवर
* जेठ     -    ज्येष्ठ
* लौरो     -    छोटा भाई
* जेठो     - बड़ा भाई
* बड़ी, जिठानी    -     जेठानी
* फुआ    -    बुआ
* फूपा    -     फूफा
* मम्मा     -     मामा
* माईं     -      मामी
* नन्ना    -      नाना
* बाई      -       नानी
* मौसि     -      मौसी
* मौसिया     -      मौसा
* भतीजो     -      भतीजा
* भतीजी      -       भतीजी
* भानेज       -        भांजा
* भानेजन     -      भांजी
* समदी     -       समधी
* समदिन      -       समधिन
* ककयाओंतो     -       चचेरा
* ककयाओंती      -     चचेरी
* सपूत, बेटा      -      पुत्र
* सपूतन, बेटी      -       पुत्री
* सास       -       सास
* ससुर      -       ससुर
* सारो       -         साला
* सारी        -        साली
* लोग, आदमी        -        पति
* लुगाई, जनी          -        पत्नी
* मौड़ा       -        लड़का
* मौड़ी       -          लड़की
* जुगाड़      -         गर्लफ्रैंड
* प्रेमी         -         बॉयफ्रेंड


हिंदी बिभाग, बुंदेलखंड कालिज, झाँसी खों अथाई की बातें तिमाई बुंदेली पत्तिका भेंट.....

  हिंदी बिभाग, बुंदेलखंड कालिज, झाँसी में मुखिया आचार्य संजै सक्सेना जू, आचार्य नबेन्द कुमार सिंघ जू, डा० स्याममोहन पटेल जू उर अनिरुद्ध गोयल...