Thursday, 10 May 2018

मैं नहीं, वो ही जानते हैं।

कविता - " मैं नहीं, वो ही जानते हैं।"


कृष का गवाह है अखबार वाला।
जो मिला था गली में उस भोर,
जब कृष लौट रहा था सौदाकर।
तभी;
अचानक उसने राम - राम की।
कृष को याद आया -
मुझे इसकी धनराशि देना है।
उसकी,
जो मैंने पाँच - छः माह पहले अखबार लिए थे।
तुरंत; कृष ने उसकी धनराशि दे दी।
तब अखबारवाला बोला -
भई! आप बड़े नेक इंसान हो।
जब भी आपको फोन किया,
तब - तब धनराशि दे देने को कहा।
लेकिन व्यस्तताओं की वजह से,
उस वक्त नहीँ दे पाए।
आज आपने बिन माँगे ही दे दी।
तभी,
कृष ने मनन किया।
मैंने जिसे भी धनराशि उधार दी,
उसने अभी तक भी न लौटाई।
क्यों?
क्योंकि;
मैं सीधा हूँ, सरल हूँ, डरता हूँ।
नहीँ,
इसलिए नहीँ।
फिर ,
वो धनराशि लौटाते नहीँ।
क्यों?
क्योंकि वो अपना फर्ज निभाना नहीं चाहते,
इंसानियत दिखाना नहीँ चाहते।
वो अपने को क्या समझते हैं?
मैं नहीँ जानता।
शायद वो ही जानते होंगे।
वो क्या हैं?
वो कैसे हैं?
उन्हें बदलना है या नहीँ,
वो ही जानते हैं।
वो ही जानते हैं।

- कुशराज झाँसी

_ 10/5/2018 _ 6:15 भोर _ दिल्ली
   

    

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