कविता : हम - तुम
कविता - " हम - तुम "
अरे यार!
कब लौटोगी ?
घर से;
कॉलेज की ओर,
या फिर लौटना ही नहीँ।
यार लौट आओ,
सुधर गए हम।
तुम भी बदल गई हो,
पहले जैसी नहीँ रही।
कभी हम बेकरार थे,
अब तुम बेकरार हो।
कब तक ?
समाज की जंजीरों में जकड़ी रहोगी,
रूढ़िवादी खौफ से डरती रहोगी।
इक न इक दिन,
जंजीरों को तोड़ना ही होगा।
यदि समाज में क्रांति संग;
बदलाव लाना है,
चहुँओर खुशी की बहार लाना है।
✍🏻 कुशराज झाँसी
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