Thursday, 12 December 2019

किसानबादी कविता - किसान की आबाज



तुम औरें मारत रए भैंकर मार
और मार रए अबै भी
धीरें - धीरें सें
धरम, जात, करजा और कुरीतयंन मेँ बाँधकें
अन्धविश्वास, जुमले और बेअर्थ कानून बनाकें
पढ़ाई - लिखाई सें बंचित करकें
लूटत रए हमें


पर
अब हम जग गए हैं
अपन करम की कीमत पैचान गए हैं
अब सें हम अपन फसल कै दाम खुद तै करहैंगे
अपन मैनत कौ पूरो फल चखहैंगे


तुम भी हमाए करम की कीमत पैचानो
भूँख मिटाबे बायन कौ संग दो
नईं तो तुम भी मारे जाओगे
जल्दीं
हम किसानन की परिवर्तनबादी क्रान्ति में
सिर्फ बचेंगे अन्न उगाबेबाय
और परिवर्तनकारी जन...

✒ सतेंद सिंघ किसान
    झाँसी बुन्देलखण्ड
 ४/१२/२०१९_११:३० रात


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