गुवाहाटी हाईकोर्ट के निर्णय पर पुनर्विचार हो और स्त्री - पुरूष हेतु नियम समान हों।
लेख - " गुवाहाटी हाईकोर्ट के निर्णय पर पुनर्विचार हो और स्त्री - पुरूष हेतु नियम समान हों। "
" मैं एक आधुनिक विचार वाला पुरुष हूँ। मैं चाहे पितृसत्ता हो या मातृसत्ता दोनों का विरोध करता हूँ। मेरा सपना है कि मानवता के नाते स्त्री और पुरुष में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, वैचारिक और शैक्षिक समानता हो। आने वाली पीढ़ियाँ स्त्री - पुरूष में किसी भी तरह का भेदभाव न देखें। असमानता मिटाने के लिए और समाज में बदलाओ लाने के लिए हम सबको मिलकर काम करने की जरूरत है। तो आओ हम असमानता मिटाने के लिए अभी से काम करना शुरू करें। जै हो।"
अब हम बात करते हैं गुवाहाटी हाईकोर्ट के एक निर्णय की। अभी हाल ही में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने एक तलाक के मुकद्दमे की सुनवाई करते हुए कहा है कि "अगर पत्नी चूड़ियाँ पहनने और सिंदूर लगाने से मना करे तो इसका मतलब है कि उसे शादी मंजूर नहीं है।" कोर्ट ने इस आधार पर तलाक के लिए याचिका डालने वाले इंसान को तलाक दे दिया भी है। जबकि फैमिली कोर्ट ने इसके उलट में फैसला सुनाया था, जिसके बाद मामला हाईकोर्ट पहुँचा।
हाईकोर्ट के इस निर्णय पर मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि जब हमारे कानून, भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों में से एक है - समता का अधिकार, आर्टिकल 14-18। जिसमें कहा गया है कि "विधि यानि कानून के समक्ष एवं विधियों का समान संरक्षण (आर्टिकल 14)। धर्म, मूलवंश, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर विभेद का रोक (आर्टिकल 15)। लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता (आर्टिकल 16)। अस्पृश्यता यानि छुआछूत का अंत और उसका आचरण निषिद्ध (आर्टिकल 17)। सेना और विद्या सम्बन्धी सम्मान के सिवाय सभी उपाधियों पर रोक (आर्टिकल 18)। दूसरा मौलिक अधिकार है - स्वतंत्रता का अधिकार, आर्टिकल - 19-22। जिसमें सबकी आजादी की बात कही गयी है। जैसे कि "छह अधिकारों - वाक एवं अभिव्यक्ति, सम्मेलन, संघ, संचरण, निवास और वृत्ति की सुरक्षा (आर्टिकल 19)। अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंधों में संरक्षण (आर्टिकल 20)। प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण (आर्टिकल 21)। शिक्षा का अधिकार (आर्टिकल 21'क)। कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण (आर्टिकल 22)। एक और सबसे जरूरी अधिकार था - सम्पत्ति का अधिकार, जिसे सन 1978 में 44वें संविधान संशोधन द्वारा मौलिक अधिकार (आर्टिकल 31) से विधिक अधिकार (आर्टिकल 300'क) में बदल दिया गया है।
अब हम हाईकोर्ट के इस फैसले को कानूनों के हिसाब से देखते हैं। सबसे पहले हम समता के अधिकार के आधार पर यदि बात करें तो इस मामले में या कहें स्त्री - पुरुष के अन्य मामले समता कहीं दूर - दूर तक नजर नहीं आती। स्त्री - पुरूष भेदभाव की खाई तो समाज में और गहरी है। जब हाईकोर्ट ही स्त्री और पुरुष में भेदभाव करेगा तो समाज का कहना ही क्या। जब एक स्त्री को विवाह के बाद साज - सिंगार करने (जैसे - माँग में सिंदूर लगाना, कलाई में चूड़ियाँ पहनना, गले में मंगलसूत्र पहनना आदि - आदि।) को कानूनी तौर पर सही माना जाता है। तो ऐसा विधान पुरूषों के लिए क्यों नहीं है। पुरुष को भी विवाह के बाद साज - सिंगार करने और विशेष पहनावे को लेकर कानून बनना चाहिए। या फिर स्त्री को भी साज - सिंगार और विशेष पहनावे से आजादी मिलनी चाहिए। स्त्री को साज - सिंगार आदि के आधार पर कुँवारी या विवाहित नहीं मानना चाहिए। आज का समाज बदलाओ चाहता है।
अब इस मामले को स्वतंत्रता के अधिकार के आधार पर आँकते हैं। जब सबको अभिव्यक्ति, वृत्ति, प्राण और दैहिक आदि की स्वतंत्रता है। तब कोई स्त्री को साज - सिंगार करने आदि को विवश नहीं कर सकता और न ही उस पुरुष से अगल रहने से मना कर सकता है।
इस मामले को हम संपत्ति के अधिकार के आधार पर भी विश्लेषित करना चाहते हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए एक निर्णय में नागरिकों के निजी संपत्ति पर अधिकार को मानवाधिकार घोषित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार भले ही संपत्ति का अधिकार अब मौलिक अधिकार नहीं रहा इसके बावजूद भी राज्य किसी व्यक्ति को उसकी निजी संपत्ति से उचित प्रक्रिया और विधि के अधिकार का पालन करके ही वंचित कर सकता है। दरअसल, समाज में सम्पत्ति के मामले में स्त्री और पुरुष में काफी भेदभाव देखने को मिलते हैं। और सबसे दुःख की बात ये है कि आज भी पुरुष औरत को अपनी निजी सम्पत्ति समझता है और इससे भी ज्यादा दुःखद ये है कि पुरुष औरत को भोग - विलास की वस्तु समझता है। ऐसा कतई नहीं होना चाहिए। न ही औरत पुरुष की सम्पत्ति है और न ही पुरुष औरत की। अब पुरुष औरत को भोग - विलास की वस्तु समझना बन्द करे बरना कहीं ऐसा न हो कि औरत पुरूष को भोग - विलास की वस्तु समझने लगे। मैं चाहता हूँ कि जमीनी स्तर पर पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी संपत्ति का मालिकाना हक मिले। चाहे कृषि योग्य भूमि हो या फिर निवास योग्य, हर भूमि में पुरूष की भाँति स्त्री को भी यानि 50- 50% मालिकाना हक मिले। जमीनी कागजातों पर पुरुष किसान यानि किसान से साथ महिला किसानों यानि किसानिनों का भी नाम दर्ज हो। तभी दुनिया की आधी आबादी को अपना हक मिल सकेगा।
अब वक्त आ गया है, स्त्री और पुरुष दोनों को अपनी सोच में बदलाओ लाने का। समाज में असमानता को मिटाकर समानता लाने का क्योंकि स्त्री और पुरुष में सामंजस्य जरूरी है। आपसी सामंजस्य से ही ये दुनिया चलती है।
इस मामले की एक जरूरी बात ये भी है कि -
पति की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए, चीफ जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया ने फैमिली कोर्ट के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि "पत्नी की ओर से पति पर कोई क्रूरता नहीं दिखाई गई है, जिसके चलते तलाक का कोई आधार नहीं बनता।"
19 जून 2020 को दिए गए इस फैसले में हाईकोर्ट ने कहा - "पत्नी का चूड़ियाँ पहनने और सिंदूर लगाने से मना करना उसे या तो कुंवारी दिखाता है या फिर इसका मतलब है कि उसे शादी मंजूर नहीं है। पत्नी का ऐसा रुख यह साफ करता है कि वो अपना विवाह जारी नहीं रखना चाहती।"
गौर करने की बात ये है कि इस केस में उस पुरूष की महिला से शादी 17 फरवरी, 2012 को हुई थी, लेकिन जल्द ही उनका किसी कारण से आपस में झगड़ा होने लगा था। पति - पत्नी, प्रेमी - प्रेमिका में छोटा - मोटा झगड़ा होना लाजिमी है। पत्नी अपने ससुराल के सदस्यों के साथ नहीं रहना चाहती थी। जिसके बाद दोनों ही 30 जून, 2013 से अलग रह रहे हैं।"
पत्नी ने पति के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी और उस पर और अपने ससुरालवालों पर प्रताड़ना का आरोप लगाया था। लेकिन बेंच ने कहा कि आरोप प्रमाणित नहीं हो पाए हैं।" कोर्ट ने यह भी कहा कि पति और ससुराल पर प्रताड़ना पर प्रमाणित होने योग्य आरोप लगाना क्रूरता के बराबर है। हाईकोर्ट ने यह भी कहा फैमिली कोर्ट ने इस तथ्य को भी पूरी तरह से नजरअंदाज किया था कि महिला अपने पति को अपनी बूढ़ी मां के प्रति Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act, 2007 के तहत बताए गए दायित्वों को निभाने से भी रोकती थी। ऐसे साक्ष्य प्रमाणित होना इसे क्रूरता की श्रेणी में रखते हैं।
इस मामले में यदि महिला की पति के पुलिस में की गई एफआईआर पर विचार करें तो हम इस तरीके से देख सकते हैं कि महिला को किसी ने प्रताड़ित नहीं किया किन्तु पति से अगल होने का उसने ये उपाय निकाला और हम इस तरीके से भी देख सकतें हैं कि महिला को उसके पति ने और ससुराल वालों ने दहेज के कारण प्रताड़ना दी। पति ने पत्नी पर घरेलू हिंसा की। जैसा देश - दुनिया के ज्यादातर मामलों में पाया जाता है। हम माननीय सुप्रीम कोर्ट से माँग करते हैं कि "दहेज उत्पीड़न क़ानून (498 A) यानि परिवार में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की प्रमुख वजहों में से एक दहेज के ख़िलाफ़ है ये क़ानून। इस धारा को आम बोलचाल में 'दहेज के लिए प्रताड़ना' के नाम से भी जाना जाता है।
498-ए की धारा में पति या उसके रिश्तेदारों के ऐसे सभी बर्ताव को शामिल किया गया है जो किसी महिला को मानसिक या शारीरिक नुकसान पहुँचाये या उसे आत्महत्या करने पर मजूबर करे। दोषी पाये जाने पर इस धारा के तहत पति को अधिकतम तीन साल की सज़ा का प्रावधान है।" का सख़्ती से पालन किया जाए। समाज से दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा आदि बुराइयों का कलंक मिटाने लिए गाँव - गाँव और शहर - शहर में कानून - जागरूकता अभियान चलाए जाएँ, जिसमें वकीलों, छात्र - छात्राओं और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं का सहयोग लिया जाए।
✒️ कुशराज झाँसी
(छात्र - दिल्ली विश्वविद्यालय)
_ 2/7/2020_1:43रात _जरबौगाँव
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