यूथ की आवाज (Youth Ki Awaaz) पर प्रकाशित कुशराज झाँसी का लेखन
* यूथ की आवाज (Youth Ki Awaaz) पर प्रकाशित कुशराज झाँसी का लेखन *
प्रोफाइल बायो -
KUSHRAAZ JHANSI
नाम -: कुशराज झाँसी वास्तविक नाम -: गिरजाशंकर कुशवाहा घर में उपनाम -: सतेंद जन्म -: 30 जून 1999 जन्मभूमि -: 212 जरबौ बरूआसागर, जिला - झाँसी बुन्देलखण्ड शिक्षा -: स्नातक - बी०ए० हिन्दी ऑनर्स,हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली; कानून स्नातक - बुंदेलखंड कॉलेज / बीकेडी, बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झाँसी पारिवारिक व्यवसाय -: खेती - किसानी विशेष -: सामाजिक कार्यकर्त्ता, वकील, हिन्दी और बुन्देली के लेखक, छात्रनेता और पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित ब्लॉग - kushraaz.blogspot.com , parivartanwriters.wordpress.com
8800171019
प्रोफाइल लिंक - https://www.youthkiawaaz.com/author/girzashanker_kushwaha_kshatriya
https://docs.google.com/document/d/1E9KgLpWNjvin4hpl8NtkTvM-q5M3sB6o8dO3e0Wkx9Y/edit?usp=drivesdk
* 1. *
" बुंदेलखंड के लड़के-लड़कियों को सामाजिक लैंगिक भेदभावों से कब आज़ादी मिलेगी? "
- 7 मार्च 2022 को प्रकाशित
मैं गिरजाशंकर कुशवाहा उर्फ कुशराज झांसी बीकेडी कॉलेज, झांसी में लॉ का छात्र हूं और बुंदेलखंड के दिल, वीरभूम ज़िला झांसी का रहने वाला हूं, जिस झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई की वीरता और साहस से भरी कहानियों से सारी दुनिया अब तक प्रेरणा लेती आ रही है लेकिन आज उसी झांसी की लड़कियों को कई पाबंदियों का सामना करना पड़ रहा है और अपने सपनों का गला घोंटना पड़ रहा है।
सबसे पहले हम बुंदेलखंड की लड़कियों की शिक्षा संबंधी और सामाजिक समस्याओं को उजागर करने के लिए अपनी काबिल दोस्त और लॉ क्लासमेट दिव्या तिवारी के साथ रहकर जिन समस्याओं का अनुभव किया उन्हें आपके साथ साझा55 कर रहा हूं-
हम और दिव्या जनवरी 2021 से दोस्त हैं, एलएलबी में हम लोगों का एडमिशन नवम्बर के महीने में हुआ था, क्योंकि वैश्विक कोरोना महामारी के कारण सारी व्यवस्थाएं अस्त-व्यस्त हो गईं थीं, तो नया शैक्षिक सत्र देरी से शुरू हुआ, इससे पहले तक सत्र सामान्यतया जुलाई-अगस्त में शुरू हो जाता था, जबसे हम और दिव्या दोस्त हैं तब से हमें कई समस्याओं का सामना करना पड़ा है सबसे पहले बुंदेलखंड में लैंगिक-असमानता किस तरह व्याप्त है, उस पर हम चर्चा करते हैं -
बुंदेलखंड में लैंगिक-असमानता किस तरह व्याप्त है -:
बुंदेलखंडी समाज में लैंगिक-असमानता की खाई जितनी गहरी है, उससे कहीं ज़्यादा लैंगिक भेदभाव यानि लड़के-लड़कियों में भेदभाव, यहां के कॉलेज कैम्पसेज में होता है, कॉलेज में, क्लासरूम में लड़कों को अलग पंक्तियों में और लड़कियों को अलग पंक्तियों में बैठाया जाता है। यहां तक कि सहपाठी लड़के-लड़कियों को एक ही व्हाट्सएप्प ग्रुप में भी नहीं रखा जाता है।
लैंगिक असमानता की वजह से ही बुंदेलखंड में शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है। यहां के सरकारी कॉलेजों में स्टूडेंट्स क्लासेस पढ़ने बहुत कम जाते हैं और प्राईवेट कॉलेजों में तो क्लासेज लेने बिल्कुल भी नहीं जाते हैं। बुंदेलखंड में तकरीबन 90% स्टूडेंट्स ऐसे हैं, जो कॉलेज सिर्फ परीक्षा देने जाते हैं, जिन्होंने कभी क्लासेज ली ही नहीं होती हैं।
ऐसा नहीं है कि बुंदेलखंड के स्टूडेंट्स पढ़ना नहीं चाहते हैं। वो सच में पढ़ना चाहते हैं और वो अपना सामाजिक विकास भी चाहते हैं लेकिन उन्हें ऐसा माहौल मिल नहीं पा रहा है, जहां वह अच्छी पढ़ाई कर सकें और अपना सामाजिक विकास कर सकें।
यदि हम अपने ही क्लासमेट्स की बात करें, तो हमारी क्लास एलएलबी में तकरीबन 220 स्टूडेंट्स के एडमिशन हैं लेकिन पहले सेमेस्टर में ही क्लासेज पढ़ने सिर्फ 20-30 स्टूडेंट्स ही आते थे और अब तो 10-15 ही आते हैं। अब आप ही बताइए कि जब कानून की पढ़ाई करने वाले ही कॉलेज अटेंड नहीं कर पा रहे हैं, तो और अन्य कोर्सों के स्टूडेंट्स का क्या हाल होगा? स्टूडेंट्स का कॉलेज में क्लासेज अटेन्ड ना करने का माहौल बनाने की दोषी हमारी शिक्षा व्यवस्था है।
जब कॉलेज में, क्लासेस में अच्छी साफ-सफाई और पढ़ाई के अनुकूल वातावरण ही नहीं मिलेगा, पढ़ाने वाले योग्य प्रोफेसर ही नहीं मिलेंगे, जहां कामचोर और भ्रष्टाचार में लिप्त प्रोफेसर मिलेंगे, तो वहां कौन पढ़ने जाएगा? मैं यह नहीं कह रहा कि सारे प्रोफेसर अयोग्य हैं या फिर भ्रष्ट हैं लेकिन यह ज़रूर कह रहा हूं कि अधिकतर अयोग्य और भ्रष्ट ही हैं।
बुंदेलखंड के कॉलेजों में स्टूडेंट्स की दैनिक अनुपस्थिति का एक प्रमुख कारण यह है कि बुंदेलखंड के लोग गरीबी का जीवन जी रहे हैं, भुखमरी और बेरोजगारी से मर रहे हैं। इस आसमान छूती महंगाई के दौर में हर छात्र-छात्रा और उनके माता-पिता के लिए उनकी पढ़ाई का खर्च उठाना मुश्किल होता है, जब अधिकतर परिवारों की इतनी आमदनी ही नहीं है कि वे अपने घर चलाने के साथ-साथ अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए झांसी जैसे शहर में रहकर पढ़ाई के लिए 5-6 हज़ार रुपये हर महीने खर्च कर सकें।
इसलिए हम सरकार और समाजसेवियों से विनती करते हैं कि हम बुंदेलखंडी स्टूडेंट्स के लिए शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त की जाए और हमारी आर्थिक मदद भी की जाए, ताकि हम बुंदेलखंडी भी बाकी देश और दुनिया के साथ चल सकें।
हम सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध करते हैं कि हम बुन्देलखंडियों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाए। हम लोगों के समानता, शिक्षा, संस्कृति और जीवन के अधिकार को बहाल कराने के लिए समुचित कार्यवाही की जाए। बुंदेलखंड की शैक्षिक संस्थाओं और समाज में लैंगिक समानता लाने के लिए समुचित पाठ्यक्रम और कार्यक्रम चलाए जाएं जिससे बुंदेलखंडी समाज जागरूक बनकर लैंगिक असमानता को खत्मकर दुनिया के साथ कदम-से- कदम मिलाकर चल सके।
बुंदेलखंड में व्यापक लैंगिक असमानता की समस्या को विस्तार से हम इस प्रकार समझ सकते हैं -:
यहां के कॉलेजों में भी लड़का-लड़की आपस में बातचीत नहीं कर सकते, वे साथ नहीं बैठ सकते। उनकी दोस्ती तो दूर की बात है। यदि लड़का-लड़की आपस में दोस्त हैं और साथ पढ़ रहें हैं, घूम रहे हैं, तो क्लासमेट और सोसायटी वाले उन दोस्त लड़का-लड़की को बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड समझेंगे भले ही वो आपस में दोस्त ही हैं।
ऐसा मेरे और दिव्या के साथ हुआ है, वो वाकया आपको भी सुनाता हूं। हमारे पहले सेमेस्टर के एग्जाम थे। हम लोग एग्जाम देने बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी कैम्पस साथ जाते थे और साथ में ही लौटते थे। उस दिन पहला ही पेपर था, तो हम लोग 1 घण्टे ज़ल्दी पहुंचकर एग्जाम सेंटर पर प्रश्नोत्तर के रिवीजन के लिए आपस में डिस्कस करने लगे और फिर एग्जाम रूम में पहुंचे तो सहपाठी लड़के कहने लगे कि अरे भाई जीएस! तुम अपनी गर्लफ्रैंड का बहुत ध्यान रखे हो? ऐसे ही कई सवाल किए।
तो, मैंने उन्हें समझाने वाले अपने अंदाज़ में जवाब दिया, यार पता है भाईयों! अपने बुंदेलखंड की और अपने जैसे शिक्षित युवाओं की अब तक सोच बहुत नीची है, क्योंकि हम लोग दुनिया के प्रगतिशील नज़रिए से नहीं सोचते हैं। यदि कोई लड़की किसी लड़के की दोस्त है, तो उसे गर्लफ्रेंड समझ रहे हैं, जो अन्यायपूर्ण है क्योंकि जैसे लड़के-लड़के, लड़कियां-लड़कियां आपस में अच्छे दोस्त होते हैं ठीक वैसे ही लड़के-लड़कियां भी आपस में अच्छे दोस्त होते हैं या हो सकते हैं।
लड़का-लड़की की दोस्ती को कोई और नाम देना ठीक नहीं है लेकिन हमारे बुंदेलखंड में एक निश्चित उम्र के बाद घरवालों की तरफ से लड़के-लड़कियों का आपस में बातचीत करना, साथ में पढ़ना-लिखना, साथ घूमना-फिरना और मिलना-जुलना बन्द कर दिया जाता है।
घरवालों की तरफ से लगाई गईं इन पाबंदियों को ना मानना सामाजिक कायदों का उल्लंघन माना जाता है और इसके परिणामस्वरूप अपनी और घरवालों की बदनामी मानी जाती है। जो लड़के इन सामाजिक पाबंदियों को तोड़ते हैं, उन्हें बुरे लड़के, गैरसंस्कारी लड़के, बदचलन लड़के आदि नाम से पुकारा जाता है और लड़कियों को बुरी लड़कियां, गैरसंस्कारी लड़कियां, बदचलन लड़कियां कहकर बुलाया जाता है और जो इन पाबन्दियों के अनुसार चलते हैं उन लड़के-लड़कियों को अच्छे लड़के-अच्छी लड़कियां, संस्कारी लड़के-संस्कारी लड़कियां, लाड़ले बेटे- लाड़ली बेटियां मानकर समाजहितैषी माना जाता है। वाह रे वाह! हमाओ बुंदेलखंडी समाज।
लड़कों को तो बहुत छूट है सब कुछ करने की लेकिन लड़कियों की तो और हालात खराब है, वो अकेले किसी सहेली की बर्थडे पार्टी या शादी आदि प्रोग्रामों में नहीं जा सकती हैं जब तक उनका भाई या परिवार का कोई अन्य सदस्य उनके साथ ना जाए।
अभी एक महीने पहले मेरी दादी ने मेरी बहिन रोशनी को भी अकेले अपनी सहेलियों के साथ एक शादी में नहीं जाने दिया था और ये कहकर मना कर दिया था कि तुम अब बड़ी हो गई हो, जमाने के हिसाब से अकेले जाना ठीक नहीं है जबकि दादी के हिसाब से लड़के कहीं भी घूम सकते हैं, दिल्ली जाकर पढ़ाई कर सकते हैं और क्षेत्र में राजनीति भी कर सकते हैं क्योंकि हम लड़के जो ठहरे। यदि हम लडक़ी होते, तो हम भी सामाजिक समस्याओं के शिकार होते।
हमारी दिल्ली यूनिवर्सिटी में बैचमेट्स रही युवा लेखिका प्रेरणा मिश्रा अपने व्हाट्सएप्प कैप्शन में लिखती है, “आपहुदरी यानि वह स्त्री जो अपनी शर्तों पर अपनी मर्जी से अपना जीवन जीती है।”
इस कैप्शन से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं। सच में हमारी दोस्त प्रेरणा सबकी प्रेरणा है। वो आपहुदरी है। एक बात और पाठकों! पता हम और प्रेरणा की अभी तक आमने-सामने मीटिंग नहीं हई, हम लोग एक-दूसरे को सिर्फ सोशल मीडिया से ही जानते हैं फिर भी अच्छे दोस्त हैं।
हम लोग कभी-कभार इन्हीं सब सामाजिक समस्याओं पर कॉलिंग और सोशल मीडिया पर बहुत डिस्कस करते हैं। प्रेरणा भी समाजसुधार करना चाहती है, मैं भी समाजसुधार करना चाहता हूं और दिव्या भी समाजसुधार करना चाहती है।
हम लोग समाजसुधार तो करके रहेंगे, चाहे कुछ भी हो। प्रेरणा वैसे भी आपहुदरी है और हम भी तो आपहुदरा हैं, जो लड़का अपनी शर्तों पर अपनी मर्जी से अपना जीवन जी रहा है और रही बात दिव्या की तो वो भी समय के हिसाब से बदल जाएगी ज़ल्द ही हम बुंदेलखंडी के ऐसे दिन आएंगे कि जब यहां की लड़कियां खुले आसमान में अपने सपनों की उड़ान भर सकेगीं।
सबखों हमाई ताएं सें दुनियाई औरत दिनां की भौत-भौत बधाई और जै जै बुंदेलखंड।
* 2.*
" कुरीतियों, असमानताओं को मिटाकर मानवता और विश्व शांति लाना है। "
- 17 जून 2019 को प्रकाशित
https://www.youthkiawaaz.com/2019/06/we-need-a-equality-based-society-hindi-poem
चाहे हो दिव्यांग जन
चाहे हो अछूत
कोई ना रहे वंचित
सबको मिले शिक्षा
कोई ना मांगे भिक्षा
दुनिया की भूख मिटाने वाला
किसान कभी ना करे आत्महत्या
किसी पर कर्ज़ का ना बोझ हो
सबके चेहरे पर नई उमंग और ओज हो
ना कोई ऊंचा
ना कोई नीचा
सब जीव समान हो
हम सब भी समान हो
ना कोई बनिया नाजायज़ ब्याज ले
ना कोई कन्यादान के संग दहेज ले
कोई बहू-बेटी पर्दे में ना रहे
सबको दुनिया की असलीयत दिखती रहे
कोई ना स्त्री को हीन माने
वह साहस की ज्वाला है,
अब सब कुरीतियों, असमानताओं को मिटाना है
मानवता और विश्व शांति लाना है।
* 3. *
कविता : “ क्यों हमें नारीवादी आंदोलन को भड़काना है? ”
- 9 जुलाई 2019 को प्रकाशित
https://www.youthkiawaaz.com/2019/07/a-poem-on-sexual-harassment-in-india-hindi
ऐसे देश पर लानत है,
ऐसे संविधान पर लानत है,
जहां दिन प्रतिदिन बहन-बेटी सताई जाती हैं,
कभी हवस का शिकार होती हैं,
कभी ज़िंदा ही जला दी जाती हैं।
सरकारें सोई रहती हैं,
केवल मंदिर-मस्जिद के मुद्दे पर लड़ती हैं,
माँ, बहन और बेटी पर हो रहे अत्याचारों पर चुप्पी साध लेती हैं,
कभी-कभी दोषियों का साथ भी देती हैं,
पर्दे के बाहर कुछ और पर्दे के भीतर कुछ और करती हैं।
यहां फांसी होती है सिर्फ नाबालिग कन्या से रेप करने पर,
बाकी स्त्रियों पर अत्याचार करने पर होती है छोटी-मोटी सज़ा,
रिश्वत देने पर सज़ा माफ भी कर दी जाती है,
उल्टा बहन-बेटी पर ही बदचलन होने के इल्ज़ाम लगाए जाते हैं।
यहां कानून भी बिक जाता है
क्योंकि यह बहुत लचीला, हल्का, नरम है,
शायद सख्त होता तो नहीं बिकता,
दोषियों को रेप जैसे मामलों में कड़ी से कड़ी सज़ा सुनाता,
सिर्फ एक ही सज़ा-फांसी,
तब कानून खुद का स्वाभिमान बचाता और देश की लाज।
बहन-बेटी सुरक्षित होगी तो हमारी इज्ज़त भी सुरक्षित होगी,
आज बहन-बेटी हैवानियत की शिकार है,
जिसके दोषी हम खुद हैं,
क्योंकि हम ठोस कदम नहीं उठाते,
अत्याचारियों से मुकाबला नहीं करते।
हमारा कानून सच्चा न्याय नहीं सुना रहा है,
एक केस को सुलझाने में सालों लगा रहा है,
अब हमें खुद दोषियों को सज़ा देनी है,
नारीवादी आंदोलन को भड़काना है,
नए सख्त कानूनों को लाना है।
बहन-बेटी तुम्हें किसी से नहीं डरना है,
पापियों को मौत के घाट उतारना है,
हम सबको मिलकर हैवानियत का नामोनिशान मिटाना है,
सिर्फ इंसानियत लाना है।
* 4. *
* किसानों की आत्महत्या और बलात्कार वाला देश कैसा विकास कर रहा है? *
- 1 जनवरी 2021 को प्रकाशित
कहते हैं हर क्षेत्र में परिवर्तन होने चाहिए क्योंकि क्रान्ति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम है। इसलिए एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते मेरी भी यही कोशिश है कि मैं इन परिवर्तनों को समझूं, जानू और उनके प्रति सबको जागरूक करूं।
यह दौर है, बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे अर्थात् अपनी हर बात सब तक बेझिझक पहुंचाने का। हर लेखक को सच्चाई लिखकर समाज का सही मार्गदर्शन करके विश्व कल्याण में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।
सोशल मीडिया ने हर आदमी को अभिव्यक्ति की सच्ची आज़ादी दी है और 21वीं सदी को जिसे विकास की सदी संज्ञा दी जाती है उसका विश्लेषण करने का मौका भी। ऐसे में सोशल मीडिया के इस दौर में हम युवाओं की ज़िम्मेदारी हो जाती है कि हम मुद्दों के बारे में बात करें और साथ ही चर्चा का एक माहौल बनाएं।
आज युवा लेखक अच्छा कर रहे हैं -
आज युवा लेखक और नए लेखक बहुत बेहतर कर रहे हैं लेकिन मुझे लगता है कि स्थापित लेखक नहीं। तथाकथितों द्वारा ऐसा माना जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में भारत विकसित बनकर उभरा है और देश में विकास की गंगा बही है लेकिन हकीकत कुछ यूं है कि इस दौर में किसान आत्महत्याओं और बलात्कार के मामले हद से ज़्यादा सामने आए।
किसानों की स्थिति पर बीते साल हुई कुछ घटनाओं पर आपकी नज़र दौड़ाना चाहूंगा,
महाराष्ट्र में सन् 2015 से 2018 के बीच तकरीबन 12 हज़ार से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्याएं की। सारी दुनिया की भूख मिटाने वाले धरती पुत्र को दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं हुई।
यत्र-तत्र किसान आंदोलन हुए लेकिन तानाशाही सरकार से किसान अपना हक पाने में नाकामयाब रहें।
मज़दूरों की हालात भी बहुत बुरी रही और सूखे की मार से ग्रसित बुन्देलखण्ड हमेशा उपेक्षित रहा।
जहां तक शिक्षा के बात है तो इस क्षेत्र में भी किसानों-मज़दूरों के बच्चों की अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाई क्योंकि कुछ को छोड़कर ज़्यादातर सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था अस्त-व्यस्त रही।
प्राईवेट शिक्षण संस्थानों और कॉन्वेंट स्कूलों का हाल और बुरा रहा। छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद रोज़गार और नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। भारत में शिक्षित बेरोज़गार युवाओं की भरमार हो गई है और युवाओं को सरकार सिर्फ जुमले दे रही है।
आरक्षण ज़रूरतमंदों तक नहीं पहुंच रहा -
मेरा मानना है कि भारत के लिए आरक्षण घातक सिद्ध हो रहा है, आरक्षित लोग ही नौकरी पाने में सफल हो रहे हैं। इसमें वही लोग हैं, जो कुछ हद तक सम्पन्न हैं लेकिन आज भी गरीब किसान मज़दूर और आदिवासियों के बच्चे आरक्षण नहीं पा रहे हैं क्योंकि देश में जागरूकता का अभाव है।
भुनाए गए कुछ मुद्दे -
सन् 2014 का आम चुनाव अयोध्या राम मंदिर निर्माण के मुद्दे पर जीता गया लेकिन अभी तक राम मंदिर नहीं बना और ना ही बनने की संभावना है। सन् 2019 का आम चुनाव पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे पर जीता गया लेकिन देश के अंदर के विवादों को सुलझाने की कोशिश नहीं की जा रही है।
अब धर्म और सीमा सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बनाना भारत के हित में नहीं है। भारत के हित में है- शिक्षा, पर्यावरण, महिला सुरक्षा, किसान, मज़दूर कल्याण और रोज़गार को चुनावी मुद्दा बनाकर चुनाव जीतना और भारत को विकसित भारत बनाने में अपना अतुलनीय योगदान देना।
क्रान्ति से ही आएगा परिर्वतन -
अब लगने लगा है कि देश का पतन हो रहा है लेकिन सब चुप बैठे हैं। सबको अपने काम से मतलब है और किसी से कोई लेना-देना नहीं है। मैं जनता से आग्रह करता हूं कि देश को बचाने के लिए हम सशक्त क्रान्ति करे, तभी हम भी बच पाएंगे।
मोदी सरकार ने देश की ऐतिहासिक इमारत लाल किले समेत अनेक सरकारी कम्पनियों को बेच दिया है और निजीकरण कर दिया है। जागरूक देशवासियों अपना एक ही लक्ष्य बनाओ, क्रान्ति मन, क्रान्ति तन और क्रान्ति ही मेरा जीवन।
भाषाई भेदभाव बढ़ गए -
देश में भाषाई भेदभाव कुछ ज़्यादा ही देखने को मिल रहे हैं। हर ओर हिन्दी बनाम अंग्रेज़ी का बोलबाला रहा। आज हिन्दी भाषा आधुनिक भारतीय भाषाओं का नेतृत्त्व कर रही है।
हिन्दी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जानेवाली भाषा भी बन गई है फिर भी उसकी जन्मभूमि भारत में ही हिन्दी और उसकी जननी संस्कृत की घोर उपेक्षा की जा रही है।
आज दुनिया के विभिन्न देशों के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है और हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में भारतीय संघ की राजभाषा और देश की सम्पर्क भाषा, कई राज्यों की राजभाषा होने के बावजूद विदेशी भाषा अंग्रेज़ी से मात खाती हुई दिखाई दे रही है, जो हम सबके लिए सोचनीय है।
आजकल हमारे देश में उस अंग्रेज़ी को विकास की भाषा, आधुनिक बुद्धजीवियों और प्रतिभाशालियों की भाषा करार दिया जा रहा है। हर जगह हिन्दी सह अंग्रेज़ी की बदौलत हिन्दी बनाम अंग्रेज़ी नज़र आ रही है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में संसद व राज्य विधानमण्डल में विधेयकों और अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा उपबंध होने तक अंग्रेज़ी जारी रहेगी। जब देश की आम जनता को न्याय उसकी मातृभाषा में ही ना सुनाया जाए तो इससे बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है? आखिर कब हमें न्याय अपनी भाषा में मिलेगा?
गाँव - गाँव में अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल -
आज हमारे लिए सबसे बड़ी दुःख की बात यह है कि भारतीय संस्कृति पर नाज़ करने वाली, हिन्दूवादी एवं राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्त्व वाली योगी सरकार प्रदेश के गाँव-गाँव ने अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल खोल रहे हैं। इसके साथ अगर वे हिंदी माध्यम के स्कूलों की व्यवस्थआ दुरुस्त करती तो ज़्यादा बेहतर होता।
हमारी शिक्षा व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त ना होने की वजह से इन गाँवों के सरकारी स्कूलों में हिन्दी माध्यम की पढ़ाई-लिखाई ठीक से नहीं हो रही है। ऊपर से सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के माता -पिता, किसान या मजदूर हैं, जिन्हें अपने काम से ही फुर्सत नहीं मिलती। यदि फुर्सत मिले तो ही यह अपने बच्चों की पढ़ाई का जायजा भी ले सकें।
यह किसान और मजदूर कर ही क्या सकते हैं, जो करना है सरकार को करना है। सरकार द्वारा अंग्रेज़ी माध्यम के सरकारी स्कूल खोलकर जनमानस में बेरोज़गारी और कुशिक्षा को बढ़ावा देने की साजिश नज़र आ रही हैं।
क्षेत्रीय भाषाओं में स्कूल खुलने चाहिए -
अंग्रेज़ी माध्यम की जगह सरकार को क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों वाले माध्यमों में स्कूल खोलने चाहिए ताकि विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा प्राप्त कर सके और मातृभाषा का विकास कर सके।
माननीय मुख्यमंत्री को हिन्दी के साथ-साथ संस्कृत भाषा को अनिवार्य करना चाहिए। तभी हमारी भारतीय संस्कृति की विजयी पताका सारी दुनिया में लहरा सकेगी और भारत देश विकसित देश बन सकेगा।
* 5. *
* स्कूलों में अंग्रेज़ी की जगह क्षेत्रीय भाषाओं को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती? *
- 2 जनवरी 2021 को प्रकाशित
21वीं सदी को विकास की सदी की संज्ञा देना ठीक है, क्योंकि इसी सदी में ही हर क्षेत्र में विकास हो रहा है, जिसमें सूचना प्रौद्योगिकी, इंटरनेट और सोशल मीडिया की अहम भूमिका है। इंटरनेट के कारण हर खबर क्षण भर में सारी दुनिया में फैल रही है और इसके कारण ही भाषा, समाज और संस्कृति में कई सार्थक परिवर्तन हुए हैं।
हर क्षेत्र में परिवर्तन होने भी चाहिए क्योंकि क्रांति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। आज भारत में इंटरनेट और सोशल मीडिया का प्रयोग ज़ोरों पर हो रहा है। गाँव-गाँव में सोशल मीडिया का सार्थक उपयोग होते देखा जा रहा है। जो खबरें और समाचार अखबारों और पत्रिकाओं में कुछ घंटों बाद मिलती थीं, उन्हें सोशल मीडिया पर लोग तुरन्त देख पा रहे हैं, वह भी अधिक प्रमाणिकता के साथ।
सोशल मीडिया ने हर आदमी को अभिव्यक्ति की सच्ची आज़ादी दी है। यह दौर है, बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे अर्थात अपनी हर बात सब तक बेझिझक पहुंचाने का। हर लेखक को सच्चाई लिखकर समाज का सही मार्गदर्शन करके विश्व कल्याण में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।
शिक्षित बेरोज़गार युवाओं की भरमार -
आज युवा और नए लेखक बहुत बेहतर कर रहे हैं लेकिन स्थापित लेखक नहीं। तथाकथितों द्वारा ऐसा माना जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में भारत विकसित बनकर उभरा और देश में विकास की गंगा बही लेकिन हकीकत कुछ यूं है कि इस दौर में किसानों की आत्महत्याएं और बलात्कार के मामले हद से ज़्यादा सामने आए हैं।
महाराष्ट्र में सन् 2015 से 2018 के बीच तकरीबन 12 हज़ार से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की। सारी दुनिया की भूख मिटाने वाले धरती पुत्र को दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं हुई।
यत्र-तत्र किसान आंदोलन हुए लेकिन तानाशाही सरकार से किसान अपना हक पाने में नाकामयाब रहे। मज़दूरों के हालात भी बहुत बुरे रहे और सूखे की मार से ग्रसित बुन्देलखंड हमेशा उपेक्षित रहा। किसानों-मज़दूरों के बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाई, क्योंकि कुछ को छोड़कर ज़्यादातर सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था अस्त-व्यस्त रही।
प्राइवेट शिक्षण संस्थानों और कॉन्वेंट स्कूलों का हाल और बुरा रहा। स्टूडेंट्स को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद रोज़गार और नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं।
भारत में शिक्षित बेरोज़गार युवाओं की भरमार हो गई है और युवाओं को सरकार सिर्फ जुमले दे रही है।
देश में भाषायी भेदभाव कुछ ज़्यादा ही देखने को मिले। हर ओर हिन्दी बनाम अंग्रेज़ी का बोलबाला रहा। आज हिन्दी भाषा आधुनिक भारतीय भाषाओं का नेतृत्त्व कर रही है और देश की आधी से अधिक आबादी हिन्दी का प्रयोग कर रही है।
हिन्दी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा भी बन गई है फिर भी उसकी जन्मभूमि भारत में ही हिन्दी और उसकी जननी संस्कृत की घोर उपेक्षा की जा रही है।
आज कल सिर्फ अंग्रेज़ी का दौर है -
आज दुनिया के विभिन्न देशों के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है और हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में भारतीय संघ की राजभाषा और देश की सम्पर्क भाषा, कई राज्यों की राजभाषा होने के बावजूद विदेशी भाषा अंग्रेज़ी से मात खाती हुई दिखाई दे रही है, जो हम सबके लिए सोचनीय है।
आज कल हमारे देश में अंग्रेज़ी को विकास की भाषा, आधुनिक बुद्धिजीवियों और प्रतिभाशालियों की भाषा के तौर पर देखा जा रहा है। हर जगह हिन्दी सह अंग्रेज़ी की बदौलत हिन्दी बनाम अंग्रेज़ी नज़र आ रही है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में संसद व राज्य विधानमंडल में विधेयकों और अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा उपबंध होने तक अंग्रेज़ी जारी रहेगी।
जब देश की आम जनता को न्याय उसकी मातृभाषा में ही ना सुनाया जाए, तो इससे बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है? आखिर कब हमें न्याय अपनी भाषा में मिलेगा?
गाँव-गाँव में अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल -
आज हमारे लिए सबसे बड़ी दुःख की बात यह है कि भारतीय संस्कृति पर नाज़ करने वाली, हिन्दूवादी एवं राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्त्व वाली योगी सरकार प्रदेश के गाँव-गाँव ने अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल खोल रहे हैं और देश के भविष्य को अंग्रेज़ी का मानसिक गुलाम बना रहे हैं और हमारी मातृभाषा हिन्दी का अपमान कर रहे हैं।
हमारी शिक्षा व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त ना होने की वजह से इन गाँवों के सरकारी स्कूलों में हिन्दी माध्यम की पढ़ाई-लिखाई ठीक से नहीं हो रही है। ऊपर से सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स के माता-पिता, किसान या मज़दूर हैं, जिन्हें अपने काम से ही फुर्सत नहीं मिलती। यदि फुर्सत मिले तो ही यह अपने बच्चों की पढ़ाई का जायज़ा भी ले सकें।
यह किसान और मज़दूर कर ही क्या सकते हैं, जो करना है सरकार को करना है। सरकार द्वारा अंग्रेज़ी माध्यम के सरकारी स्कूल खोलकर जनमानस में बेरोज़गारी और कुशिक्षा को बढ़ावा देने की साज़िश नज़र आ रही हैं।
क्षेत्रीय भाषाओं में स्कूल खुलने चाहिए -
अंग्रेज़ी माध्यम की जगह सरकार को क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों वाले माध्यमों में स्कूल खोलने चाहिए ताकि स्टूडेंट्स अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा प्राप्त कर सके और मातृभाषा का विकास कर सके। माननीय मुख्यमंत्री को हिन्दी के साथ-साथ संस्कृत भाषा को अनिवार्य करना चाहिए और अंग्रेज़ी का पूर्णतः बहिष्कार करना चाहिए तभी हमारी भारतीय संस्कृति की विजयी पताका सारी दुनिया में लहरा सकेगी और भारत देश विकसित देश बन सकेगा।
* 6. *
* भारत में किसानों को उनके परिश्रम का फल कब मिलेगा ? *
- 14 जनवरी 2021 को प्रकाशित
https://www.youthkiawaaz.com/2021/01/condition-of-indian-farmers-hindi-article
जब से इस धरती पर जीवन की उत्पत्ति हुई है, तब से किसान खेती करके खाद्य-सामग्री उत्पादित कर रहे हैं। यानी किसान ही सारी दुनिया के लिए भोजन हेतु खाद्यान्न, फल, सब्ज़ियां और चारे का उत्पादन करते आ रहे हैं।
इन धरती पुत्र किसानों को अन्नदाता भी कहा जाता है लेकिन मैं इन्हें दूसरा जीवनदाता कहता हूं। यदि किसान खेती-किसानी नहीं करेंगे, तो खाद्यान्नों का उत्पादन नहीं होगा और जब खाद्यान्नों का उत्पादन नहीं होगा, तब हमारे भोजन की भी व्यवस्था नहीं होगी। बिना भोजन के हमारा जीवित रहना असंभव ही नहीं, बल्कि नामुमकिन है। यदि हम भोजन नहीं करेंगे तो भूखे मर जाएंगे और कुछ भी नहीं कर पाएंगे।
कभी अकाल की मार तो कभी प्रलयकारी बाढ़ -
आज हमारे देश भारत में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया में सबसे ज़्यादा दुर्दशा किसानों की ही है। किसान सबके लिए तो अन्न उगा रहे हैं लेकिन खुद भूखे मरने के लिए विवश हैं। किसान अपनी फसलों से इतना नहीं कमा पाते हैं कि वे अपने परिवार के लिए ठीक-ठाक कपड़ों और शिक्षा का प्रबंध कर सकें।
किसान दिन-रात एक करके अन्न उपजाते हैं, वे ना जेठ मास की तमतमाती धूप देखते हैं और ना ही माव-फूस की कड़ाके की ठंड। किसान जितना परिश्रमी और धैर्यवान कोई नहीं है फिर भी किसान सुखी नहीं है।
कभी वह भयानक अकाल की मार से मारा जाता है तो कभी प्रलयकारी बाढ़ से। इन आपदाओं से ज़्यादा तो किसान कर्ज़ के बोझ से आत्महत्या करने के लिए मजबूर होते हैं।
किसान विरोधी सरकार -
अब तक की अधिकतर सरकारें किसान विरोधी रही हैं। सरकारों ने कभी किसानों का भला नहीं करना चाहा है और शायद इसलिए देश अब तक पीछे है। सरकारी और प्रशासनिक व्यवस्था किसान को ही हमेशा हर प्रकार से लूटती रही है और दमनकारी रवैया चलाती रही है लेकिन अब से ऐसा नहीं होगा। अब मेरे जैसे किसानों के बेटे जागरूक हो गए हैं और किसान भी एकजुट हो गए हैं। वे अपने अधिकारों की आर-पार की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो गए हैं।
बाज़ारवाद के इस दौर में किसान अपनी फसलों के चार-पांच गुणा मूल्य पाने के लिए परिवर्तनवादी आंदोलन कर रहे हैं और अपनी हालात बेहतर करके विश्व कल्याण में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं। इन किसानों की विचारधारा परिवर्तनवाद का नारा है कि दुनियाभर के किसानों एक हो।
किसानों को अब समाज, साहित्य, राजनीति और सिनेमा में अगल से सम्मानीय दर्ज़ा दिया जाए। दुनिया के हर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय की हर कक्षा के पाठ्यक्रमों में किसान-साहित्य और किसान-विमर्श को अनिवार्यता के साथ शामिल किया जाए, क्योंकि किसानों के बिना यह दुनिया नहीं चल सकती इसलिए किसानों की हर मांग को पूरा किया जाए।
किसान साहित्य की परिभाषा -
मेरे अनुसार किसान-साहित्य की परिभाषा इस प्रकार है- “किसान के जीवन पर लिखा गया अनुभूतिपरक एवं स्वानुभूतिपरक साहित्य ही किसान-साहित्य है और ऐसा विमर्श जिसमें किसानों की हर मनोदशा, भावना और अधिकारों की अभिव्यक्ति हुई हो, वह किसान-विमर्श है।”
तथाकथितों द्वारा ऐसा माना जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में भारत, विकसित भारत बनकर उभरा और देश में विकास की गंगा बही लेकिन हकीकत यह है कि इस दौर में किसानों की आत्महत्याएं और बलात्कार के मामले हद से ज़्यादा सामने आए।
किसानों की आत्महत्या और बेरोज़गार युवा -
महाराष्ट्र में सन् 2015 से 2018 के बीच तकरीबन 12 हज़ार से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्याएं की। सारी दुनिया की भूख मिटाने वाले धरती पुत्र को दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं हो रही है। यत्र-तत्र किसान आंदोलन हुए लेकिन तानाशाही सरकार से किसान अपना हक पाने में नाकामयाब रहे।
मज़दूरों की हालात भी बहुत बुरी रही। सूखे की मार से ग्रसित बुंदेलखंड हमेशा उपेक्षित रहा। किसानों और मज़दूरों के बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाई, क्योंकि कुछ को छोड़कर ज़्यादातर सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था अस्त-व्यस्त रही।
प्राईवेट शिक्षण संस्थानों और कॉन्वेंट स्कूलों का हाल और बुरा रहा। छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद रोज़गार और नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। भारत में शिक्षित बेरोज़गार युवाओं की भरमार हो गई है, युवाओं को सरकार सिर्फ जुमले दे रही हैं।
भारत के लिए घातक आरक्षण -
भारत के लिए आरक्षण घातक सिद्ध हो रहा है, आरक्षित लोग ही नौकरी पाने में सफल हो रहे हैं। इसमें वे लोग अधिक हैं, जो कुछ हद तक सम्पन्न हैं लेकिन आज भी गरीब किसान, मज़दूर और आदिवासियों के बच्चे आरक्षण नहीं पा रहे हैं क्योंकि देश में जागरूकता का अभाव है।
अब भारत के हालात बहुत ठीक हो चुके हैं और अब समय आ गया है कि आरक्षण को खत्म किया जाए। मोदी सरकार ने सन् 2018-19 में 10% सवर्णों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था की थी लेकिन आरक्षण देना अब भारत के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि विश्व गुरू भारत के निवासी वैसे ही प्रतिभाशाली होते हैं और आज के युवा तो 21वीं सदी के हैं, जो बहुत ज़्यादा प्रतिभाशाली हैं।
हमारा देश भारत प्रमुख कृषि प्रधान देश है और यहां लगभग 70% आबादी कृषि कार्य पर निर्भर है इसलिए मैं अपने देश को किसानों का देश कहता हूं। आजकल देश में किसानों की हालात बहुत बदत्तर हो गई है। प्रकृति की मार और अतिवृष्टि ने किसानों की फसलों को चौपट कर दिया है। तेज़ वर्षा के साथ ओलों के गिरने से फसलें सर्वनाश हो गई हैं। किसानों को अपना पेट भरने के लिए भी अन्न उत्पादन करना मुश्किल हो गया है।
सरकार को उठाने चाहिए कदम -
आज बुंदेलखंड क्षेत्र में किसान अपनी फसल को चौपट देखकर आत्महत्या कर रहे हैं मगर सरकार इस घटना की ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दे रही है।
सरकार को पीड़ित किसान को आर्थिक सहायता के रूप में फसल-सर्वेक्षण के आधार पर अधिक से अधिक मुआवज़ा देना चाहिए। इसके साथ ही सरकार को किसानों का बिजली बिल और बैंक ऋण माफ करना चाहिए।
भारत सरकार को किसानों की इस स्थिति पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि किसान ही देश की शान हैं। किसान ही खाद्यान्न, फल और सब्ज़ियों आदि खाद्य-पदार्थों का उत्पादन करता है और सरकार इन खाद्य-पदार्थों का निर्यात विदेशों में करती है, जिससे काफी विदेशी मुद्रा भारत आता है एवं आर्थिक कोष में बढ़ोत्तरी होती है।
किसान ही देश की जनता की भूख मिटाते हैं इसलिए सरकार को किसानों के विकास की अनेक कल्याणकारी योजनाएं बनानी चाहिए। जैसे- मुफ्त सिंचाई योजना और मुफ्त खाद योजना आदि। सरकार को देश में अनेक कृषि विद्यालय और विश्वविद्यालय खुलवाने चाहिए और किसानों को वैज्ञानिक तकनीक के ज़रिये खेती कराने में मदद करनी चाहिए।
सरकार और राजनेताओं को रुपये किसानों के विकास में खर्च करना चाहिए। सरकार को महंगाई कम करनी चाहिए।
आज की तरह ही यदि किसान आत्महत्याएं करते रहे तो हमें अन्न कौन देगा? देश की अर्थव्यवस्था कैसे मज़बूत होगी? भारत कैसे विकसित देश बनेगा? ऐसे हज़ारों प्रश्न उठते हैं।
ऐसे प्रश्नों का जवाब सिर्फ और सिर्फ किसानों का विकास करना है और उन्हें किसी भी हालात में दुःखी नहीं होने देना है। इसलिए तो मैं कहता हूं, “किसान बचाओ-देश बचाओ।” किसान रहेंगे तो कृषि होगी और कृषि होगी तो अन्न होगा, अन्न होगा तो हम होंगे।
किसानों पर स्वरचित पंक्तियां आपसे साझा कर रहा हूं
‘किसान’
बारहों महीने जो खेतों में करता है काम
सच्चा किसान है उसका नाम।
खेतों को जोतता, बीज बोता
बीज उगकर जब तैयार हो जाता,
तो फसल को सिंचित करता।
खाद और दवाइयां देता
आदि करता है काम।
सच्चा किसान है उसका नाम।
किसान-विमर्श पर मेरी विकासवादी कविता : सब समान हो इस प्रकार है -
चाहे हो दिव्यांगजन
चाहे हो अछूत,
कोई ना रहे वंचित
सबको मिले शिक्षा
कोई ना मांगे भिक्षा।
दुनिया की भूख मिटाने वाला
किसान कभी ना करे आत्महत्या,
किसी पर कर्ज़ का ना बोझ हो
सबके चेहरे पर नई उमंग और ओज हो।
ना कोई ऊंचा
ना कोई नीचा,
सब जीव समान हो
हम सब भी समान हों।
ना कोई बनिया नाजायज़ ब्याज ले
ना कोई कन्यादान के संग दहेज ले,
कोई बहू-बेटी पर्दे में ना रहे
सबको दुनिया की असलीयत दिखती रहे।
कोई ना स्त्री को हीन माने
वह साहस की ज्वाला है।
अब तक वह चुप रही
तो हुआ यह,
सिर्फ मानवता की हीनता
और हैवानियत का चरमोत्कर्ष।
अब सब कुरीतियों-असमानताओं को मिटाना है
मानवता और विश्व शांति लाना है।
* 7. *
* हे! मेरी वुमनिया *
- 10 मार्च 2021 को प्रकाशित
https://www.youthkiawaaz.com/2021/03/hey-my-womania-hindi-poetry
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर मेरी सबसे काबिल दोस्त के लिए कविता -
हे! मेरी वुमनिया
तुम पढ़ो-लिखो
फिर मनचाहा ख्वाब पूरा करो
खूब मौज करो
जीवन में जो मन करे वो काम करो
पर आलस को अभी से दूर करो।
क्योंकि, आराम हराम है
अनोखे काम से हमारा नाम है
जिंदगी में काम करो ऐसा
कि हर कोई बनना चाहे तुम्हारे जैसा।
तुम साहसी हो
तुम संस्कारी हो
तुम सोच से आधुनिकतावादी हो
तुम बेहद प्रतिभाशाली हो।
तुम हमारा संग हर वक्त देती हो
पढ़ने के लिए भोर चार बजे से जगाती हो
लेकिन, हमें जगाकर खुद सो जाती हो
कभी-कभी साथ पढ़-लिख भी लेती हो।
तुम हम पर बहुत भरोसा करती हो
हमारी हर बात पर अमल भी करती हो
तुम जो कहती हो, वही हम भी करते हैं
जैसी तुम रहती है, वैसा हम रहने की कोशिश करते हैं
तुम जिंदगी भर दोस्त रहने का वादा भी करती हो
हम भी तुम्हारे दोस्त रहने का वादा करते हैं।
तुम अभी जैसी हो वैसे ही रहना
वूमेन डे पर यही है मेरा कहना
ओ! मेरी वुमनिया।
* 8. *
* कविता : अब मैं अबला नहीं, सबला हूं *
- 23 अप्रैल 2021 को प्रकाशित
https://www.youthkiawaaz.com/2021/04/now-i-am-not-an-abla-i-am-a-sabla-hindi-article
हे नारी! अब तुम अबला नहीं
सबला हो
फिर भी तुम हमेशा क्यों ठगी जाती हो?
मुझे समझ नहीं आता
तुम जल्द ही किसी के प्रेमजाल में
क्यों फंस जाती हो?
और समाज में हर बार तुम ही
दोषी साबित होती हो
प्रेम करना बुरी बात नहीं है, लेकिन
प्रेम सोच समझकर करो,
क्योंकि ज़माना बदल गया है
उसके साथ ही साथ लोग
और उनकी सोच भी
वे आज भी तुम्हें
भोग-विलास की वस्तु समझते हैं
फिर भी तुम सब कुछ जानते हुए भी
अबला ही बनी रह जाती हो
क्यों?
अब तुम ईंट का जवाब पत्थर से दो
लड़कों से कहो कि अब तुम सुधर जाओ
संभल जाओ
और मुझ पर अत्याचार करना बंद करो
यदि तुम मेरा सम्मान नहीं करोगे तो
मैं भी तुम्हारा सम्मान नहीं करूंगी।
* 9. *
* प्रेम प्रसंग शुरू करने से पहले इन चीज़ों को समझना बेहद ज़रूरी है। *
- 21 फरवरी 2021 को प्रकाशित
झांसी में 19 फरवरी को हुए गोलीकाण्ड से शासन-प्रशासन, देश-दुनिया, समाज और युवाओं को सबक लेने की ज़रूरत है और साथ ही इसपर गंभीरता से विचार करने की।
प्रेम के मामलों में जल्दबाज़ी न करें -
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, प्रेम-प्रसंग के चलते एक छात्र ने अपने सहपाठी पर भरे क्लासरूम में ही गोली चला दी। जिससे छात्र गंभीर रूप से घायल हो गया और फिर आरोपी ने एक छात्रा के घर पर जाकर उसपर भी गोली चला दी। छात्रा को गोली गर्दन में जा लगी जिससे तुरंत ही उसकी मौत हो गई। ये तीनों एक ही कॉलेज से मनोविज्ञान विषय में एमए कर रहे थे।
फिलहाल गोली चलाने वाले को झांसी पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया है। आरोपी को इस हत्या के लिए उम्रकैद की सजा मिलती है या फिर फांसी यह तो कोर्ट के निर्णय निर्भर करेगा लेकिन ऐसे हत्यारों को जल्द ही सजा मिले। कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिए ऐसे लोगों पर कारवाई आवश्यक है।
अब हम बात करते हैं इस गोलीकाण्ड से सबक लेने की। तो सबसे पहले युवाओं को इससे यह सबक लेना चाहिए कि उनको जमाने के हिसाब से तो चलना है मगर सावधान होकर। इस गोलीकाण्ड वाले मामले में यह हो सकता है कि गोली खाने वाले छात्र-छात्रा आपस में प्रेमी-प्रेमिका हों और अपराधी की किसी वजह से इन दोनों से रंजिश चलती हो। या फिर छात्रा अपराधी की प्रेमिका रही हो और अब उससे दूर होना चाहती हो। इन सब पहलुओं में से कुछ भी हो सकता है। यह बस एक अनुमान है।
कॉलेज लाइफ में अक्सर छात्र-छात्राएं प्रेम में पड़ जाते हैं। प्रेम में पड़ने यानि किसी से प्यार करने को मैं सही या गलत नहीं कह रहा हूं। मगर इतना ज़रूर कह रहा हूं कि यदि कोई छात्र किसी छात्रा के प्रेम में पड़े या फिर कोई छात्रा किसी छात्र के प्रेम में पड़े, तो वह जल्दबाज़ी में कोई फैसला ना लें। इसलिये कि जल्दबाज़ी में लिए गए फैसले अक्सर गलत साबित होते हैं।
हमें फैसले चार-छह महीने तक बहुत सोच-विचार कर लेने चाहिए, क्योंकि इन चार-छह महीनों में दोनों एक-दूसरे के बारे में बहुत कुछ जान जाते हैं। साथ ही एक एक विश्वास और भरोसा भी बन जाता है।
प्रेम करने से पहले एक दूसरे के साथ हालात को भी समझना जरूरी -
किसी से प्रेम होने पर सबसे पहले एक-दूसरे के बारे में कुछ ज़रूरी बातें ज़रूर जान लेनी चाहिए कि उसकी सोच और विचारधारा हमसे मिलती है या नहीं? उसे क्या पसंद है और क्या नहीं? वो अमीर परिवार से है या फिर गरीब परिवार से? उसे भविष्य में क्या बनना है? वो जीवन में क्या करना चाहती है? यदि वो दोनों प्रेमी-प्रेमिका बन जाते हैं तो दोनों को कोई परेशानी तो नहीं होगी?
समाज में हमारे प्रेम-प्रसंग के कारण इस गोलीकांड जैसी कोई अनहोनी घटना तो नहीं होगी? मतलब अपने प्रेम के चलते दोनों को समाज, परिवार और दोस्तों से सावधान रहने की ज़रूरत होती है। कोई हमारे प्रेम को अच्छी नज़र से देखता है तो कोई बुरी नज़र से। ये सब हमको मैनेज करके चलना चाहिए होता है।
प्रेमी-प्रेमिका बनने के समय यह बात भी ज़रूर जान लेनी चाहिए कि लड़के की पहले से तो कोई प्रेमिका नहीं है या फिर लड़की का पहले से तो कोई प्रेमी नहीं है? और यदि हैं भी तो उसे आगे भी तो चोरी-छिपे जारी नहीं रखेंगे? रिश्ते में ईमानदारी होने से दोस्ती और प्रेम लंबे समय तक भी कायम रहता है, बशर्ते उन दोनों में से कोई एक-दूसरे को धोखा न दे।
किसी से छुपाकर कोई अशोभनीय कार्य न करे और दोनों एक-दूसरे पर अटूट विश्वास बनाए रखें। दोनों में से किसी को भी यदि कोई परेशानी होती है या फिर किसी मदद की ज़रूरत होती है तो वे आपस में ही निपटा लें। यही न्याय, साम्य और सद्विवेक के सिद्धांत के अनुसार ठीक भी है। आगे सबकी अपनी-अपनी मर्जी। मगर सबकी मर्जी भी नहीं चलती क्योंकि सरकार और समाज के हिसाब से भी चलना होता है क्योंकि राज्य और समाज के बगैर हमारा कोई अस्तित्त्व ही नहीं है।
लड़का-लड़की आपस में अच्छे दोस्त भी हो सकते हैं -
यह ज़रूरी नहीं कि छात्र-छात्रा आपस में प्रेमी-प्रेमिका ही बनकर रहें। वो दोनों अच्छे और सच्चे दोस्त बनकर भी रह सकते हैं, क्योंकि दोस्ती का रिश्ता अटूट रिश्ता होता है। इस रिश्ते जैसा दुनिया में कोई रिश्ता नहीं। आज के समय में एक लड़का-लड़की भी आपस में सच्चे दोस्त होते हैं। जैसे लड़के आपस में दोस्त होते हैं और लड़कियां आपस में सहेलियां। आज के समय की मांग के हिसाब से मैं कहता हूं – “लड़का-लड़की सब एक समान। सबको शिक्षा-सबका सम्मान।”
यदि लड़का-लड़की आपस में सच्चे दोस्त हैं तो वे ज़िन्दगी में कभी बिछड़ने का नाम नहीं लेते। वे जिंदगी में कभी भी एक दूसरे से मिलकर खैरियत पूछ सकते हैं। यदि दोस्त लड़के की शादी हो गयी है तो दोस्त लड़की उसकी शादी के बाद भी उससे मिल सकती है। ऐसा ही लड़की की शादी होने पर होता है और दोस्त लड़का-लड़की की शादी के बाद भी उससे मिल सकता है।
बशर्ते लड़के की पत्नी मॉडर्न सोच वाली मिले और लड़की का पति भी मॉर्डन सोच वाला हो। तभी ऐसा संभव है। यदि लड़का-लड़की आपस में प्रेमी-प्रेमिका हों और किसी वजह से आपस में खटपट हो गई तो वो ब्रेकअप कर लेते हैं और फिर कभी मिलने का नाम नहीं लेते। ऐसा देश के छोटे-बड़े शहरों में ट्रेंड में चल रहा है।
ऐसा बुंदेलखंड के रूढ़िवादी समाज और ग्रामीण भारतीय समाज के हिसाब से ठीक नहीं माना जा रहा है और ठीक माना भी नहीं जाना चाहिए। इसलिये कि विकसित और अविकसित समाज की संस्कृति और सभ्यता में जमीन-आसमान का अंतर होता है, जिसे हम सबको भलीभांति समझ लेना चाहिए।
समाज को अपराधियों के खौफ से बचाना होगा -
अब हम सबको इस गोलीकांड से दूसरा सबक ये लेना चाहिए कि जबतक शिक्षण संस्थानों में सुरक्षा के कड़े इंतजाम नहीं होते, या कानून व्यवस्था दुरुस्त नहीं होती तबतक डरकर रहने में ही फायदा है। हमारी जान बचेगी तभी तो दुनिया देख सकेंगे। मानता हूं कि शिक्षा ही एकमात्र ऐसा हथियार है, जो दुनिया की कोई भी जंग जिता सकता है लेकिन जबतब बीकेडी जैसे शिक्षण संस्थानों में सुरक्षा के कड़े इंतजाम नहीं हो जाते तब तक वहां शिक्षा ना लेने में ही हम सबकी भलाई है।
कॉलेज में सुरक्षा के लिए कॉलेज के गेटों पर वॉचमेन और गार्डों की व्यवस्था की जा सकती है, और आज के तकनीकी युग में मेटल डिटेक्टर गेट की भी व्यवस्था कराई जा सकती है। इसलिए हर वक्त सतर्क रहिए और थोड़ी सी अनहोनी की आशंका होने पर वहां से खिसक लीजिए। इसी में हम सबकी भलाई है।
कॉलेजों में और समाज के सार्वजनिक स्थलों पर नारी-सुरक्षा और नागरिक सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम होना बहुत ज़रूरी है। नहीं तो समाज और देश अपराधियों के खौफ के कारण और पीछे चला जाएगा। इसलिए शासन और प्रशासन को वक्त रहते नागरिक सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम कर देने चाहिए जिससे बीकेडी गोलीकाण्ड जैसी कोई घटना न घट सके।
* 10. *
* कॉलेज के सफर को दर्शाती मेरी डायरी का एक हिस्सा *
- 15 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित
https://www.youthkiawaaz.com/2020/10/diary-of-a-college-student-hindi-article/
प्रिय क्रान्ति,
मैं सुबह साढ़े नौ बजे सोकर उठा मगर तब तक एक क्लास का समय निकल चुका था। जल्दी-जल्दी बिना नहाए तैयार हुआ और नेहरू विहार बस स्टैंड से ई-रिक्शा पकड़कर विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पहुंचा। रिक्शे में पांच लोग बैठते हैं मगर इसमें तीन लोग थे। रोड पर गड्ढे होने के कारण धक्के कुछ ज़्यादा ही लगे।
मेट्रो गेट नम्बर 1-2 से 3-4 की ओर जाने के लिए हाईवे पार करना पड़ता है। बस, कार, ट्रैक और बाइक्स का लम्बा जाम होने के कारण इस पार से उस पार जाने में पन्द्रह मिनट लग गए। देश की राजधानी, महानगर दिल्ली में ट्रैफिक जाम लगना आम बात है।
यातायात नियमों के मुताबिक गाड़ी चलाने की स्पीड और आत्मसुरक्षा के साधन निश्चित किए गए हैं। मगर लोग हाई-स्पीड में बिना हेलमेट के गाड़ी चलाते हैं और जाने-अनजाने में दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं।
विद्यार्थियों के आंदोलन -
आज के युवा फोन पर बात करते हुए, ध्रूमपान के साथ नशे में गाड़ी चलाते हैं फिर इसका परिणाम भुगतते हैं। गेट नम्बर 3-4 पर ई-रिक्शों की भारी संख्या होने के बावजूद मुझे वहां से हंसराज कॉलेज जाने के लिए रिक्शा नहीं मिला क्योंकि अधिकतर रिक्शे गर्ल्स कॉलेज, दौलतराम और मिराण्डा हाऊस की सवारियां बिठा रहे थे, जो कॉलेज से पहले पड़ते हैं इसलिए मुझे थोड़ा दूर चलकर मेनरोड से रिक्शा लेना पड़ा।
रास्ते में मैंने देखा कि दिल्ली यूनिवर्सिटी की वॉल ऑफ डेमोक्रेसी पर छात्र राजनैतिक पार्टी, क्रांतिकारी युवा संगठन (KYS) के पर्चे चिपके हुए थे। जिनपर लिखा हुआ था, स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग (SOL) ने भी बिना स्टूडेंट्स को अवगत कराए DU की भांति सेमेस्टर परीक्षा सिस्टम (CBCS) लागू कर दिया है। यह फैसला एसओएल (SOL) और दिल्ली विश्वविद्यालय (DU) ने मिलकर लिए हैं जो स्टूडेंट्स के लिए अन्याय है।
आगे लिखा था, UGC के रवैये पर हल्ला बोल, छात्र-छात्राओं के साथ अत्याचार नहीं सहेंगे। KYS का छात्र-आन्दोलन करना उचित है और यह होने भी चाहिए क्योंकि क्रांति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं।
देश की टॉप यूनिवर्सिटीज़ में छात्र-छात्राओं के साथ ज़्यादा ही अन्याय हो रहे हैं। कभी बेवजह फीस बढ़ा दी जाती है तो कभी सिलेबस बदल दिया जाता है और लड़कियों को हॉस्टल से रात में बाहर जाने पर पाबंदी लगाई जाती है जबकि लड़के रात-रात भर हॉस्टल से बाहर कैम्पस में आज़ाद घूमते हैं।
DU की छात्राओं ने कुछ दिनों पहले अपनी आज़ादी के लिए और पाबंदियों को हटाने के लिए ‘पिंजड़ा तोड़ों आंदोलन’ किया था, जो आज के लिए परम आवश्यक है।
वाहनों की चेकिंग हो रही थी -
आगे चलकर आर्ट्स फैकल्टी के पास पुलिस बैरिकेट लगे हुए थे और चार ट्रैफिक पुलिसवाले वाहनों की चेकिंग कर रहे थे। मेरे रिक्शे के जस्ट पीछे स्कूटी से आने वाली सुंदर युवती हेलमेट लगाने के बजाय हाथ में लटकाए हुए थी तो पुलिस ने उसे रोककर डांटा। जिस पर रिक्शे के ड्राइवर ने कहा -
मैडम हेलमेट क्यों लगाएंगी? इन्हें तो अपनी सूरत दिखानी होती है।
रिक्शेवाले ने हंसराज हॉस्टल गेट पर उतार दिया। 10:40 से 11:40 तक ‘अस्मितामूलक विमर्श और हिन्दी साहित्य’ विषय की क्लास चली। डॉ. प्रेम प्रकाश मीणा सर ने स्त्री विमर्शवादी कविता “मैं किसकी औरत हूं” का अध्यापन कराया, जिसकी रचयिता सविता सिंह हैं।
कविता की मूल संवेदना यह है कि पितृसत्तात्मक समाज में औरत की कोई पहचान नहीं है। यहां उसे सिर्फ एक उपभोग की वस्तु माना जाता है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं।
एक औरत को हमेशा किसी की पत्नी, बहन या बेटी के नाम से ही जाना जाता है, जबकि सविता सिंह इस पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं और कहती हैं कि मैं किसी की औरत नहीं हूं। मैं अपना खाती हूं, जब जी चाहता है तभी खाती हूं और मैं किसी की मार नहीं सहती।
एक औरत को अपनी पहचान खुद बनानी होगी बिल्कुल आत्मनिर्भर और सशक्त बनकर तभी इस समाज का कल्याण होगा और व्यवस्था में सामंजस्य बन सकेगा।
11:40 से 12:40 तक ‘पाश्चात्य काव्यशास्त्र’ विषय की क्लास चली। इसमें डॉ. नृत्य गोपाल शर्मा सर ने ‘मिथक’ के बारे में समझाया। उन्होंने कहा -
कुछ वजहों से मिथक जैसे, रामायण या महाभारत आधुनिक भारत के इतिहास भिन्न होते हैं।
जबकि मैंने सर से डिबेट करके यह सिद्ध करने की कोशिश की कि मिथक भी इतिहास है। मैं मिथक को भी इतिहास मानता हूं और सबको मानना भी चाहिए क्योंकि राम-मन्दिर अयोध्या और बाबरी मस्ज़िद के बीच के विवादों को कोई झुठला नहीं सकता।
तुमसे मुलाकात -
12:40 से 01:00 के बीच लंच हुआ तब हम दोस्तों के साथ कैंटीन गए। तब मैंने देखा कि मेरी गर्लफ्रेंड क्रान्ति सिंह अपने क्लासमेट्स के साथ लंच कर रही है।
इस प्रेयसी से मेरी कुछ दिनों से बात नहीं है, जो शायद ठीक ही है क्योंकि आज का ज़माना ऐसा ही चल रहा है और कॉलेज लाइफ में तो प्रेमी-प्रेमिकाओं के रिलेशन मुश्किल से अधिकतम साल-छः महीने तक ही चल पाते हैं और इससे भी बड़ी बात यह है कि दिल्ली जैसे शहरों में एक लड़के की कई गर्लफ्रैंड और एक लड़की के कई बॉयफ्रेंड रहते हैं, जो मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं।
लंच में हमलोगों ने रोटी-सब्जी, मसाला डोसा और अंडा-चाऊमीन लिया फिर सारे दोस्त अलग-अलग हो गए और मैं लाइब्रेरी गया। जहां से चार किताबें घर के लिए इश्यू करवाई। जिनमें साहित्य, सिनेमा, समाज, मीडिया, सोशल मीडिया और विमर्श जैसे विषय समाहित हैं। लगभग 2 बजे कॉलेज के मेन गेट से ई-रिक्शा लिया और विश्वविद्यालय आ पहुंचा।
वहां 20 रुपए का अनानस खाए और फिर दूसरा रिक्शा पकड़कर नेहरू विहार आ गया, जहां मेरा फ्लैट छठे फ्लोर पर है। फ्लैट तक तकरीबन 80-90 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। इतनी ऊंची चढ़ाई में सबकी हालत पस्त हो जाती है मगर यही हम युवा स्टूडेंस्ट्स का संघर्ष है।
आपका, कुशराज
झाँसी बुन्देलखण्ड
* 11. *
कविता : “ अब राजा वही बनेगा जो हकदार होगा ”
- 25 सितंबर 2019 को प्रकाशित
https://www.youthkiawaaz.com/2019/09/how-can-we-create-a-society-of-equal-opportunity-hindi-poem/
अब ऐसा कतई नहीं होगा
हम तुमाए इतै मजूरी नहीं करेंगे
हम तुमाई बातों के झमेलों में नहीं फंसेंगे
हम भी आंनद कुमार की फ्री आईआईटी कोचिंग में पढ़ने जाएंगे
हम भी चांद पर जाएंगे
तुम भी ताकते रह जाओगे मेरा मुंह।
अब ऐसा ही होगा
अब राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा
राजा वही बनेगा जो हकदार होगा
हम सारी व्यवस्थाओं से टकराएंगे
तुमाई बनी बनाई परिपाटी को तोड़ेंगे
हम मज़दूर-किसान के बच्चे हुए
तो क्या हुआ?
हम भी इंजीनियर और साइंटिस्ट बनेंगे
अब ऐसा ही होगा
सारी दुनिया देखेगी
ये चमत्कार
बदलती हुई मानसिकता
बदलता हुआ समाज
भृष्टों की पराजय
और श्रेष्ठों की जय-जय
तुम भी नाज़ करोगे हम पर
अब ऐसा ही होगा
कोई भी धनाभाव में कैम्ब्रिज छोड़ने को ना होगा मजबूर
ना ही किसी जीनियस की गर्लफ्रेंड ब्रेकअप करेगी
वो भी अपने जीनियस का साथ निभाएगी
अब ऐसे नेता नहीं रहेंगे
जो प्रशासन की मिलीभगत से काले धन्धे चलाते हैं
ना ही जीनियस को जान से मारने वाले बचेंगे
बचेंगे वही ‘वीर भोग्यम् वसुंधरा’ वाले परोपकारी इंसान
अब ऐसा ही होगा।
* 12. *
लेख : " दलितों और आदिवासियों के बच्चों में कुपोषण का स्तर सर्वाधिक - NFHS रिपोर्ट "
- 12 दिसम्बर 2019 को प्रकाशित
आखिर क्या वजह है कि आज देश की आज़ादी के 70-72 साल बाद भी दलित और आदिवासियों के बच्चे सबसे ज़्यादा कुपोषण के शिकार हैं? दलित जिन्हें हमारे संविधान में अनुसूचित जाति (SC) वर्ग में रखा गया है और आदिवासी जिन्हें अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्ज़ा प्राप्त है।
संविधान में दलित और आदिवासी समुदाय समेत अन्य पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए आरक्षण जैसी विशेष सुविधाओं का प्रावधान किया गया है फिर भी दलित और आदिवासी समुदाय समेत किसानों की स्थिति दयनीय है।
सन 2015-16 में आयोजित किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-4) की रिपोर्ट के अनुसार वंचित श्रेणी में से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों सहित अल्पसंख्यक वर्गों के बच्चों में खून की कमी (एनीमिया) जैसी खतरनाक बीमारी और कुपोषण का प्रसार सबसे अधिक पाया गया है। यह स्थिति देश को सोचने और विचार-विमर्श करने पर मजबूर करती है।
सर्वेक्षण में 5 साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण के बढ़ने के संकेतों को काफी बारिकी से दिखाया गया है, जो इस प्रकार हैं-
देश में 38% अविकसित (उम्र से कम)
21% कमज़ोर (ऊंचाई के मुकाबले पतले)
36% वजन कम (उम्र के मुकाबले पतले) वाले बच्चे हैं।
अनुसूचित जनजाति के 5 साल से कम उम्र के बच्चों में 43.8% अविकसित बच्चे हैं, 27.4% कमज़ोर और 45.3% कम वजन वाले हैं। इन तीनों श्रेणियों में अनुसूचित जाति में सबसे ज़्यादा प्रतिशत अविकसित बच्चों में 42.8% है। 21.2% कमज़ोर हैं और 39.1% कम वजन वाले बच्चे हैं।
5 साल से कम उम्र के बच्चों में जाति आधारित कुपोषण के प्रतिशत को इस प्रकार दिखाया गया है-
इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि SC और ST कम्युनिटी के बच्चों के बीच एनीमिया (खून में हीमोग्लोबिन की कमी) का प्रसार ज़्यादा है। सामान्य श्रेणी में यह 53.9 प्रतिशत बच्चों की तुलना में पांच साल से कम उम्र के 58 प्रतिशत बच्चे एनीमिया से प्रभावित हैं। SC, ST और OBC वर्ग की जातियों की पीढ़ीगत बच्चों का प्रतिशत क्रमशः 60.5, 63.1 और 58.6 से कम है।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर हम उन मूल कारणों को बताने जा रहे हैं, जो दलितों और आदिवासियों की दयनीय स्थिति के लिए ज़िम्मेदार हैं। मैं बुन्देलखंड के ज़िला झांसी अन्तर्गत जरबौ गाँव का रहने वाला हूं। वहां मैंने समाज और गाँव की जो स्थिति देखी, वह आपसे साझा करने जा रहा हूं।
हमारे गाँव में अशिक्षा का कारण जन-जागरूकता की कमी है जिसकी वजह से लोगों को पता ही नहीं चल पाता कि सरकार हमारे कल्याण और पतन के लिए कौन- कौन सी योजनाएं चला रही हैं।
सरकार हमारी शिक्षा और रोज़गार जैसी मूलभूत ज़रूरतों का व्यवसायीकरण और निजीकरण करके हमारा पीढ़ी दर पीढ़ी शोषण करने की मंशा बना रही है।
गाँव की ज़्यादातर जनता किसान है, जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। उनकी भी स्थिति बहुत बुरी है। उन्हें कभी कर्ज़ की मार से और कभी फसलों के लगातार गिरते दामों के कारण आत्महत्या जैसे कदम उठाने पड़ रहे हैं, जो दुनिया के पतन का संकेत है।
हमारे गाँव में गरीबों के लिए सरकारी राशन दुकान पर राशन तो मिलती है लेकिन वह माप-तौल में बहुत कम होता है। जो यह दर्शाता है कि हमारे तंत्र (व्यवस्था) में भ्रष्टाचार व्याप्त है।
हमारे गाँव में ही नहीं, बल्कि देश के हर छोटे-छोटे शहरों में आज अशिक्षा के कारण बेरोज़गारी बढ़ रही है। गाँवों के हालात तो बहुत खराब हैं, वहां के ज़्यादातर गरीब किसान-मज़दूर जनता अनपढ़ हैं जिससे वे अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों को लेकर जागरूक नहीं हो पाते हैं। लोगों को संविधान की भी ठीक से जानकारी नहीं है।
कुपोषित बच्चों वाले देश में क्या कर रही है सरकार?
देश में चुनाव जाति, धर्म और सीमा-सुरक्षा जैसे मुद्दों पर जीते जा रहे हैं। शासन और प्रशासन व्यवस्था में बैठे लोग स्वार्थी और भ्रष्ट हैं जिसका प्रमाण “चारा घोटाला” जैसे घोटाले हैं। उनको जनता के रोज़गार और कल्याण की कोई चिंता ही नहीं है।
आज़ादी से पहले आदिवासियों की मूल समस्याएं वनोपज पर प्रतिबंध, तरह-तरह के लगान, महाजनी शोषण, पुलिस-प्रशासन की ज़्यादतियां आदि रही हैं। जबकि आज़ादी के बाद भारत सरकार द्वारा अपनाए गए विकास के गलत मॉडल ने आदिवासियों से उनके जल, जंगल और ज़मीन छीनकर उन्हें बेदखल कर दिया।
विस्थापन उनके जीवन की मुख्य समस्या बन गई। आंकड़े गवाह हैं कि पिछले एक दशक में अकेले झारखंड से 10 लाख से अधिक आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं। इनमें से अधिकांश लोग दिल्ली जैसे महानगरों में घरेलू नौकर और दिहाड़ी पर काम करते हैं। विडंबना यह है कि सरकार के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में मूलतः कोई आदिवासी नहीं है।
इसलिए यहां की शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आदिवासियों के लिए आरक्षण या कोई विशेष प्रावधान नहीं है। विकास के नाम पर अपने पैतृक क्षेत्रों से बेदखल किए गए ये लोग आखिर कहां जाएं?
इस प्रकिया में एक ओर उनकी सांस्कृतिक पहचान उनसे पीछे छूट रही है, तो वहीं दूसरी ओर उनके अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया है। अगर वे पहचान बचाते हैं तो अस्तित्व पर संकट खड़ा होता है और अगर अस्तित्व बचाते हैं तो सांस्कृतिक पहचान नष्ट होती है।
दलितों के साथ जाति के आधार पर भेदभाव किया जाता रहा है और हिन्दू धर्म में हमेशा से इन्हें अछूत माना गया है। इसलिए कुछ दलित धर्म परिवर्तन करके बौद्ध धर्म को अपना रहे हैं। दलित और किसान विमर्श के दार्शनिक, सामाजिक क्रांति के अग्रदूत महात्मा ज्योतिबा फुले शिक्षा का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं,
विद्या बिन गई मति, मति बिन गई नीति।
नीति बिन गई गति, गति बिन गया वित्त।
वित्त बिन चरमराए शुद्र।
एक अविद्या ने किए इतने अनर्थ।।
अब संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक-2019 पास करके भाजपा सरकार द्वारा धर्म के आधार पर देश का पुनः विभाजन करने की साज़िश रची जा रही है। संविधान की प्रस्तावना के अनुसार; धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में तनाव का माहौल पैदा किया जा रहा है।
दलितों के मसीहा, बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा लिखित भारतीय संविधान की खिल्ली उड़ाई जा रही है। तानाशाही रवैये के ज़रिये शिक्षण संस्थानों का निजीकरण करने के बाद फीस वृद्धि करने का काम किया जा रहा है।अब नागरिक संशोधन बिल 2019 लाना भाजपा सरकार द्वारा लोकतंत्र की हत्या करना है।
मैं अपनी कविता के माध्यम से देश हित की बात कर रहा हूं। कविता का शीर्षक है - सब समान हों’
चाहे हो दिव्यांग जन
चाहे हो अछूत,
कोई ना रहे वंचित
सबको मिले शिक्षा
कोई ना मांगे भिक्षा।
दुनिया की भूख मिटाने वाला
किसान कभी ना करे आत्महत्या,
किसी पर कर्ज़ का ना बोझ हो
सबके चेहरे पर नई उमंग और ओज हो।
ना कोई ऊँचा
ना कोई नीचा,
सब जीव समान हो
हम सब भी समान हो
ना कोई बनिया नाजायज ब्याज़ ले
ना कोई कन्यादान के संग दहेज ले,
कोई बहु-बेटी पर्दे में ना रहे
सबको दुनिया की असलीयत दिखती रहे।
कोई ना स्त्री को हीन माने
वह साहस की ज्वाला है
अब तक वह चुप रही
तो हुआ ये।
सिर्फ मानवता की हीनता
और हैवानियत का चरमोत्कर्ष,
अब सब कुरीतियों-असमानताओं को मिटाना है
मानवता और विश्व शांति लाना है।
* 13. *
कविता : “ अब हम चेहरा ना ढककर अपनी पहचान दिखाएंगे ”
- 13 जुलाई 2019 को प्रकाशित
https://www.youthkiawaaz.com/2019/07/women-empowerment-hindi-poem
तुम सब कुछ देखते हो,
बिना ढके आंखों को।
क्यों रोकते हो हमें?
दुनिया की असलियत देखने को।
क्यों पर्दा-घूंघट करने को बाध्य करते हो?
धर्म के कानूनों की जंज़ीरों में जकड़ते हो,
परम्पराएं-कुरीतियां चलाते रहते हो,
हमें नीचा दिखाते रहते हो
चारदीवारी में कैद रखते हो,
आखिर क्यों?
तुम ऐसा करते हो?
जबाव दो हमें।
अब हम जाग चुके हैं,
तुम्हारी किसी प्रथा को नहीं मानेंगे,
हम भी दुनिया देखेंगे।
चेहरा ना ढककर अपनी पहचान दिखाएंगे,
साहस, शौर्य से भरपूर नया इतिहास बनाएंगे,
ना पर्दा, न घूंघट और ना चेहरा ढकेंगे।
मेरा कोई कन्यादान ना करे,
मेरे लिए कोई दहेज ना दे,
मेरी कोई भ्रूण हत्या ना करे,
मेरा कोई यौन-शोषण ना करे,
ना ही कोई मेरा बलात्कार करे।
ये चेतावनी है सारे जहां को,
सुधर जाओ, संभल जाओ,
हम नहीं रह पाएंगे इस दुनिया में,
तो मेरे बिन तुम्हारा कोई अस्तित्त्व नहीं।
क्योंकि मैं ही तुमको जन्म देती हूं,
तुम्हे पालती-पोसती हूं,
शिक्षा-संस्कार भी देती हूं,
फिर भी तुम हमें ही धिक्कारते हो।
समझ जाओ, संभल जाओ,
हम तुमसे कभी ना कम थे, ना हैं और ना रहेंगे,
हर मोड़ पर तुम्हारा सामना करेंगे,
हम भी साहसी हैं, वीरांगना हैं और जगत जननी।



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