हिन्दी नाटक में किन्नर विमर्श - गिरजाशंकर कुशवाहा ' कुशराज झाँसी '

 शासकीय पातालेश्वर महाविद्यालय, मस्तूरी (छत्तीसगढ़) एवं प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के समन्वित तत्वावधान में दिनाँक - ०४ सितंबर २०२३ को आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी " किन्नर - विमर्श : नाटक एवं सिनेमा के विशेष संदर्भ में " में प्रस्तुत शोधपत्र


*** शोधपत्र - " हिन्दी नाटक में किन्नर विमर्श " ***


©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'


(छात्र - परास्नातक हिन्दी, बुंदेलखंड महाविद्यालय, झाँसी / पूर्व महासचिव - हिन्दी साहित्य परिषद, हिन्दी विभाग एवं इक्वल अपॉर्च्युनिटी सेल, हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय /  सामाजिक कार्यकर्त्ता / बुंदेलखंडी युवा लेखक / सदस्य - बुंदेलखंड साहित्य उन्नयन समिति, झाँसी / जिला संगठन विस्तार प्रमुख - संस्कृत संस्कृति विकास संस्थान, झाँसी)

पता -  २१२ नन्नाघर, जरबो गॉंव, बरूआसागर, झाँसी (अखंड बुंदेलखंड) - २८४२०१

सम्पर्क - 9569911051, 8800171019

ईमेल - kushraazjhansi@gmail.com


_ २२ अगस्त २०२३, ११: ३५ रात, झाँसी



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भारत में साहित्य, सिनेमा, दर्शन, राजनीति, मीडिया और अकादमिक जगत में विमर्शों की शुरूआत १९वीं सदी से हुई। भारत में दुनिया के समकालीन विमर्शों में से सबसे पहले ' स्त्री विमर्श ' मुख्यधारा में आया। इसके बाद अन्य विमर्श चर्चा में आए। 



२१वीं सदी में तो विमर्शों की बाढ़ - सी आ गई। इस सदी तक मुख्यधारा में चल रहे अस्मितामूलक विमर्शों जैसे - स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श के साथ ही किन्नर विमर्श, विकलांग विमर्श, किसान विमर्श, पुरूष विमर्श, वेश्या विमर्श, वृद्ध विमर्श, बाल विमर्श, छात्र विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, भाषा विमर्श, पर्यावरण विमर्श इत्यादि की भी चर्चा जोर - शोर से होने लगी।



" हम २१वीं सदी को अस्मितामूलक विमर्शों और स्त्री, किसान, दलित, आदिवासी, दिव्यांग, पुरूष एवं वेश्या - अधिकारों से दुनिया में आए युगान्तकारी बदलाओ की सदी की संज्ञा देते हैं। "



विकलांग विमर्श के प्रवर्त्तक और विश्वविख्यात लेखक ' डॉ० विनय कुमार पाठक जी ' कहते हैं कि इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से ही अनेक विमर्शों ने जन्म लिया लेकिन इन दो दशकों में जिन विमर्शों को प्रतिष्ठा मिली, उनमें विकलांग और किन्नर - विमर्श  महत्त्वपूर्ण हैं। जाति और लिंग से रहित विशुद्ध मानवतावादी दृष्टि पर आधारित ये दोनों नव्य विमर्श सर्वाधिक वंचित और उपेक्षित या कहें, वर्जित ही रहे हैं। विकलांग - चेतना पर पहले ध्यान गया। परिणामत: समाजसेवी संगठनों और सरकार के प्रयास से मानवाधिकार की दृष्टि से संविधान में इन्हें अधिकार दिए गए और आरक्षण का लाभ भी मिला। विकलांग - चेतना विश्वव्यापी है इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ की आमसभा - १९७६ में यह निर्णय लिया गया कि सन १९८१ को 'विकलांगजनों के लिए अंतरराष्ट्रीय वर्ष' के रूप में मनाया जाएगा।  इसके बाद सन १९८३ - ९२ के दशक को 'विकलांगजनों के लिए अंतरराष्ट्रीय दशक' मनाया गया। सन १९९२ में संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा के बाद हर साल ३ दिसंबर को 'अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस' मनाया जाता है। 



विवेच्य विषय  - " हिन्दी नाटक और सिनेमा में किन्नर विमर्श " पर चर्चा करने से पहले हम विमर्शों के इतिहास को समझना उचित समझते हैं इसलिए हम दुनिया के सबसे पुराने विमर्श स्त्री विमर्श / नारीवाद पर अपने विचार रख रहे हैं -



यदि हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो स्त्री विमर्श की शुरूआत फुले दम्पत्ति यानी सावित्रीबाई फुले और महात्मा जोतिबा फुले ने की थे। जो पेशे से किसान थे लेकिन समाज की अशिक्षा नामक कुरीति को दूर करने के कारण सावित्रीबाई फुले भारत की प्रथम महिला शिक्षिका कहलाईं और वहीं महात्मा जोतीबा फुले समाज के वंचित वर्गों जैसे -  स्त्री, किसान, दलित आदि के अधिकारों के लिए और इनकी सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए आवाज बुलन्द करके महान दार्शनिक - समाजसुधारक कहलाए।



स्त्री विमर्श दुनिया में सबसे पहले नारीवादी आंदोलन के रूप में चर्चा में आया। स्त्री विमर्श पर सावित्रीबाई फुले की ये पंक्तियाँ स्त्रियों को शिक्षा हेतु प्रेरित करतीं हैं और पितृसत्ता को स्त्री शिक्षा का विरोधी ठहराती हैं -  


" आखिर कब तक तुम अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों को सहन करोगी। देश बदल रहा है। इस बदलाव में हमें भी बदलना होगा। शिक्षा का द्वार जो पितृसत्तात्मक विचार ने बंद किया है, उसे खोलना होगा। "



सावित्रीबाई फुले जिन बदलाओकारी विचारों की थीं, उसकी झलक उनकी कविताओं में भी मिलती है। वो स्त्री शिक्षा की प्रबल समर्थक थीं, जो लड़कियों के घर में काम करने, चौका - बर्तन करने की अपेक्षा उनकी पढ़ाई - लिखाई को बेहद जरूरी मानती थीं। इन पंक्तियों में को देखिए - 


" चौका बर्तन से बहुत जरूरी है पढ़ाई

क्या तुम्हें मेरी बात समझ में आई? "


सावित्रीबाई फुले ने स्त्री - पुरूष समानता के लिए भी आवाज बुलन्द की। वो कहती हैं कि -


" स्त्रियाँ सिर्फ रसोई और खेत पर काम करने के लिए नहीं बनीं हैं, वे पुरुषों से बेहतर कार्य कर सकती हैं।"


सावित्रीबाई फुले ने स्त्रियों के उत्थान के लिए शिक्षा, लेखन और सामाजिक सुधार के माध्यम से जो योगदान दिया वो विश्व - इतिहास में उल्लेखनीय हैं। हम किसान लेखक गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी' सावित्रीबाई फुले को भारत की प्रथम स्त्रीवादी लेखिका, स्त्री विमर्शकार मानते हैं - " जन्म से किसानिन, पेशे से शिक्षिका और समाज सुधारिका, स्त्रियों के साथ - साथ वचिंत वर्गों किसान और दलितों के लिए जीवनभर संघर्ष करने वाली सशक्त नारी, अपनी कलम से स्त्री - अधिकारों को धार देने वाली लेखिका सावित्रीबाई फुले सच्चे अर्थों में भारतीय नारीवाद या स्त्री विमर्श की सूत्रधार थीं। स्त्रियों के उत्थान हेतु उनके संघर्षों को विश्व इतिहास सदा याद रखेगा " 



सावित्रीबाई फुले के पति महात्मा जोतिबा फुले ने 'किसान का कोड़ा' नामक पुस्तक लिखकर जहाँ 'किसान - विमर्श' का प्रवर्तन किया, वहीं 'गुलामगिरी' किताब के द्वारा दलित विमर्श को दार्शनिक आधार दिया और 'सत्य शोधक समाज' के माध्यम से समाज में दलित, पिछड़ों, किसानों और स्त्रियों के उत्थान को नईं ऊँचाईयों पर पहुँचाया।



जब हम किन्नर विमर्श की बात करते हैं तो सबसे पहले हमें साहित्य के पुरोधा और आलोचना जगत के युगपुरुष ' डॉ० विनय कुमार पाठक जी ' याद आते हैं क्योंकि वे समकालीन नए विमर्शों को प्रतिस्थापित कराने और मान्यता दिलाने हेतु संघर्षरत हैं। वे अपने ग्रंथ - " किन्नर - विमर्श : दशा और दिशा " में लिखते हैं, जो किन्नर विमर्श पर अब तक का अनोखा आलोचनात्मक ग्रंथ है - " अन्य विमर्श यदि वंचित हैं तो किन्नर - विमर्श वर्जित की श्रेणी में आने के कारण इसमें चेतना अपेक्षाकृत विलंब से आई। वैसे यह भी विकलांग - चेतना से समीकृत है। किन्नर आज भी समाज से अस्पर्शित, अशिक्षा और अंधविश्वास से आच्छादित और अजीबोगरीब हरकत व जीवन - शैली से दर्शित उपेक्षणीय बने हुए हैं। संक्रमण की इस संस्थिति में इन्हें नए दायित्व - निर्वाह करने के लिए एकता और संगठन के सोपान से अस्मिता के अन्वेषण के लिए न केवल वातावरण बनाना है, वरन सदभाव और सौमनस्य के उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अस्तित्व के लिए संघर्ष और न्याय के पथ पर अग्रसित भी होना है। इस उपक्रम में चुनौतियों से सामना करने और अधिकारों के लिए संघर्ष करने के प्रमुख कारक इस प्रकार हैं - 


१. किन्नर सामान्य जन की तरह जीने का अधिकार चाहता है।

२. किन्नर संविधान में निर्दिष्ट अधिकारों को अधिगृहीत कर जनसामान्य की भांति रोटी, कपड़ा और मकान व शिक्षा के साथ योग्यतानुरूप व्यवसाय व सेवा / नौकरी के द्वारा समाज में सम्मानजनक स्थिति की पहुँच चाहता है।

३. जैसे दलितों के लिए आरक्षित सीटें हैं, वैसे ही किन्नरों लिए भी कम - से - कम एक पद आरक्षित हो या फिर इसे राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाए। 

४. किन्नरों के लिए पृथक शैक्षणिक संस्थाएँ - विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय हों।

५. किन्नर - साहित्य को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाए, जिससे नई पीढ़ी की समझ विकसित होगी और किन्नरों के संदर्भ में सकारात्मकता से समाज समुन्नत होगा। "



हिन्दी नाटक के क्षेत्र में किन्नर विमर्श की शुरूआत सन १९९२ में ' भरत वेद ' द्वारा लिखित और निर्देशित नाटक " शिखण्डी " से होती है। शिखण्डी नाटक फरवरी सन २०२३ को डॉ० आनंद कश्यप के सम्पादन में प्रकाशित हुआ है। इस नाटक को हम किन्नर विमर्श का पहला नाटक मानते हैं। भरत वेद के अनुसार - " नाटक शिखण्डी मेरे लिखे नाटकों में एक आले दर्जे का नाटक है। इस नाटक को मैंने वर्ष 1992 में लिख लिया था, किन्तु समर्पित कलाकारों के अभाव के कारण यह नाटक मंचन होने से चुकता गया। सारी अड़चनों बाधाओं 

को पार करते हुए अंततः नाटक शिखण्डी का पहला मंचन हमने वर्ष 1996 में पंडित देवकीनंदन दीक्षित सभागार बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में किया, जिसे अभूतपूर्व सफलता व लोकप्रियता मिली। "


" मेरी यह सोच थी कि शिखण्डी नाटक तथ्यों पर आधारित हो ताकि एक मौलिक व विशिष्ट सर्जना का सृजन हो। इस बात को ध्यान में रखकर मैं शिखंडियो के बाड़े में गया। उनके मुखिया से मिला, परन्तु उनसे कोई अपेक्षित जानकारी मुझे नहीं मिली। संभवतः वे अपने जीवनवृत्त का रहस्य किसी बाहरी व्यक्ति को बताना नहीं चाहते थे, फलस्वरूप उनके बाड़े के आसपास बसे उन तमाम सामान्य लोगों से मिली जानकारी के आधार पर और कुछ स्वविवेक के सहारे नाटक शिखण्डी की रचना मैंने की। यह नाटक कटक - नाट्य उत्सव में और प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद नाट्य उत्सव में अवॉर्ड हासिल कर अपनी विशिष्टता की छाप छोड़ने में कामयाब रहा। इस तरह यह नाटक वर्ष 1996 से 1998 के बीच पाँच बार मंचित हुआ। "

 

शिखण्डी नाटक में मुख्य पात्र किन्नर  रमजानी है, जिसे उसके सभी साथी रमजानी बुआ कहकर पुकारते हैं। अन्य सहयोगी पात्रों में कीरन और नरमदा प्रमुख हैं। 


शिखण्डी नाटक में समकालीन ज्वलंत समस्या 'जनसंख्या वृद्धि की समस्या'  को उजाकर करते हुए परिवार नियोजन के समाधान को समझाने का संदेश दिया गया है। 

मंत्री फकीरचंद के पाँचवें लड़के के जन्मोत्सव पर रमजानी और कीरन का ये संवाद जनसंख्या वृद्धि की समस्या को उजागर करता है -


" रमजानी : अरे मंत्री फकीरचंद का 

पाँचवां लड़का हुआ है रे कीरन। बधाई गाने जाना है छुई - मुई। "


" कीरन : ये मंत्री भी बड़े दो मुहें होते हैं। एक तरफ फीता काट काटकर परिवार नियोजन का नारा लगाते हैं और दूसरी तरफ खुद फौज खड़ी करते हैं। " 


जब नेता दौलतराम चुनाव में रामनगर की जनता से वोट माँगने आते हैं तब सभा में नरमदा नेताजी के काले कारनामों की पोल खोलती है और नेताजी द्वारा किए गए तथाकथित विकास कार्यों की असलियत बयाँ करती है। 


दौलतराम और नरमदा के बीच के ये संवाद राजनेताओं द्वारा किए जाने वाले झूठे वालों और किन्नरों की समस्या को दिखाते हैं -


" दौलतराम : नहीं… नहीं… सब बकवास है। "


" नरमदा : क्या बकवास है मेरी कथनी कि तुम्हारी करनी। अरे असली शिखण्डी तुम जैसे लोग हैं। "


" दौलतराम : भगवान के लिए चुप हो जाईए देवी…।"


" नरमदा : न मैं देवी हूँ न देवता, न नर हूँ न मादा। मैं नरमदा हूँ नरमदा शिखण्डी।"


जब रंगा स्वामी रिपोर्टर नरमदा का इंटरव्यू लेता है तब रिपोर्टर और नरमदा के बीच का संवाद -


" रिपोर्टर : नहीं, मेरा यह मतलब नहीं है…. अच्छा यह बताएँ कि आप राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री ही क्यों बनना चाहते हैं? "


" नरमदा : यही दो पद शक्तिशाली हैं, इस पद में आने के बाद मैं शिखण्डी जाति के लोगों को प्रतिष्ठित पदों पर रख सकूँगी। सम्मानित धंधे व्यवस्था में लगा सकूँगी। उनकी शिक्षा का विशेष व्यवस्था कर सकूँगी…।


" रिपोर्टर : आपके विचार उत्तम और मन को झकझोरने वाले हैं। "


" नरमदा : मैं दुनियाँ को बताना चाहती हूँ कि हम आधे अधूरे लोगों को अंधेरे कुएँ में सभ्य समाज ने धकेल रखा है। जिन शिखंडियों को दुनियाँ ने जमाने से शोषण किया, दबाया है वह शिखण्डी समाज आज कुंठाग्रस्त जीवन व्यतीत कर रहा है इसलिए मेरे शासन काल में हिजड़े जाति को नया जन्म मिलेगा तभी हम आधे अधूरे लोग पूर्णता को प्राप्त कर सकेंगे। "


वस्तुतः शिखण्डी नाटक में तथाकथित समाज में सभ्य माने जाने वाले लोगों, राजनेताओं, सरकार, मीडिया और फिल्म कारोबारियों द्वारा किन्नरों पर किए जाने वाले दमन - शोषण और उपेक्षा को बेबाकी से दिखाया गया है और किन्नरों को अपने अधिकार पाने के लिए संघर्षरत दिखाया गया है, जो समाज की प्रयोगशाला में अनोखा प्रयोग है जिससे किन्नर समाज की दशा और दिशा अवश्य बदलेगी।



किन्नर विमर्श पर दूसरा नाटक 'हरीश बी० शर्मा' का लघु नाटक " हरारत " (सन २००३) है। हरारत में मुख्य किन्नर पात्र ' चम्पा ' के मानवीयता के मान देखने की हरारत को दिखाया गया है। परिवार में रहने वाले इंसान साथ रखे बर्तनों की भाँति टकराते रहते हैं जबकि किन्नर परिवार से लाड़ - प्यार पाने के लिए तरसते रहते हैं। इन्हीं मानवीय मूल्यों को हरारत उजागर करता है। 


हरीश बी० शर्मा के अनुसार - " एक खबर किस तरह नाटक के लिए थीम दे सकती है। इसका उदाहरण है मेरा नाटक ' हरारत ' वर्ष २००३ में एक खबर फाइल की थी : लव स्टोरी - २००३ पति, पत्नी और किन्नर। इस खबर में एक ऐसे किन्नर की कहानी थी, जिसने एक पुरुष से शादी रचाई लेकिन जब उसे लगा कि पुरुष को पत्नी के रूप में एक स्त्री की जरूरत है तो उसने खुद पहल कर उसकी शादी कराई। इस मूल प्रसंग के प्रश्रय से इस लघु नाटक का प्रणयन हुआ, जिसमें मूलतः यह संदेश भी संप्रेषित किया गया कि किन्नर के मन में माँ - बाप बनने की इच्छा होती है। " 


हरारत नाटक की दूसरी मुख्य पात्र 

' शशि ' दवा, डॉक्टर और दाई का सहारा लेती है और अपना समझकर उसकी सेवा - सुश्रुषा में संलग्न रहती है। उसे लगता है कि उसकी ही संतान उसके घर आ रही है। वह मातृत्व के हरारत में आ जाती है। शशि भी चम्पा के निश्छल - निष्कपट वात्सल्य को देखकर अभिभूत है। 


" चम्पा की मातृत्व भावना अत्यंत संवेदनशील हो जाती है… तू कान खोलकर सुन ले, पैदा होते ही सबसे पहले मैं गोद में लूँगी… उसने मुझे माँ पुकारा… नहीं चम्पा… माँ नहीं हो सकती रे, बच्चा है न, जानता नहीं, दुनियादारी। बाहर आएगा, कुछ समझेगा - परखेगा तो भूल जाएगा। "


" मैं तो भगवान से भी यही अरदास करती हूँ कि ये मुझे भूल जाएँ। … तुम्हें नहीं भूले। "


शशि प्रसव - पीड़ा से बिलख रही थी। थोड़ी देर बाद एक औरत आकर शुभ समाचार सुनाती है कि बेटा पैदा हुआ है। ये सुनकर - चम्पा की खुशी का ठिकाना नहीं रहता लेकिन थोड़ी देर बाद खबर मिलती है कि शशि की मृत्यु हो गई है। शशि के अंतिम शब्द भविष्यवाणी की भाँति सच साबित होते हैं - " ये मुझे भूल जाए, … तुम्हें न भूले। "


इस तरह चम्पा किन्नर को पुत्र - रत्न की प्राप्ति हो जाती है। इस घटना की प्रत्याशा में प्रश्न अभी भी स्थिर है कि क्या किन्नर माँ - बाप नहीं बन सकते? 

क्या किन्नरों को बच्चा गोद लेने का अधिकार है? यहाँ कुँवारी माँ की जिद को समर्थन देने वाली महिला किन्नर ही हो सकती है, ये लक्ष्य भी हरारत नाटक में साधा गया है। जिसमें नाटक सफल भी हुआ है।



किन्नर विमर्श पर तीसरा नाटक ' महेश दत्तानी ' द्वारा लिखित " आग के सात फेरे " ( सन २००८) है। आग के सात फेरे नाटक अपने नाम के अनुरूप अग्नि को साक्षी मानकर सप्तपदी के द्वारा वर - वधु के मिलन - संधि यानि विवाह संस्कार को दिखाता है। इस पवित्र वैवाहिक बंधन पर ही नाटककार ने प्रश्नचिन्ह लगाकर संभ्रांत जन को कटघरे में खड़ा कर दिया है। उनकी चिंता इस बात पर भी है कि किन्नर यानी तीसरा लिंग भी पुल्लिंग और स्त्रीलिंग की भाँति ईश्वर की रचना है इसलिए उसकी उपेक्षा क्या ईश्वरीय आदेश की अवहेलना नहीं है?  



उनका ये भी तर्क विचारणीय है कि ' आग के सात फेरे ' लेने के बाद यदि स्त्री और पुरुष निसंतान है या स्त्री बाँझ है तो क्या समाज उन्हें उपेक्षित कर देता है? फिर किन्नर के लिए ही यह दोहरा - दोगला आचरण क्यों? किन्नर के पक्ष को रखता हुआ नाटककार उन सभी भ्रमों की दीवार को गिराते हैं जो मानव - मानव के बीच रूकावट बनी है। 



' आग के सात फेरे ' नाटक के वैशिष्ट्य को विवेचित करती हुईं डॉ० बीना अग्रवाल लिखती हैं - " महेश दत्तानी ने नाटक को उन लोगों की आवाज बनाया है जो वर्षों से अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिनकी आवाज कुलीन लोगों ने दबा रखी है तथा जिन्हें अँधेरे में रखने के लिए बहुत सारे मिथ व सामाजिक पूर्वाग्रह रचे गए हैं। दत्तानी उन लोगों को पहचान दिलाने का प्रयास करते हैं, जिन्हें आधुनिक वैज्ञानिक, सभ्य व व्यवस्थित कहे जाने वाले सामाजिक ढांचे में कोई जगह नहीं है। "


' आग के सात फेरे' नाटक के किन्नर पात्र कमला की हत्या का आरोप दूसरी किन्नर अनारकली पर है जो जेल में कैद है। पुलिस अदिक्षक सुरेश राव की पत्नी उमोराव पी० एच० डी० के सिलसिले में अनारकली से मिलती है और जब उसे पता चलता है कि राजनेता और पुलिस की सांठगांठ के कारण निरपराधी अनारकली कारागार में है तब उसका दिल दहल उठता है। कमला का प्रेम मंत्री - पुत्र सुब्बू से क्या हो जाता है, लोक - लाज और मान - मर्यादा के भय से सलीम को सुपारी देकर कमला की हत्या करा दी जाती है और निर्दोष अनारकली को आरोपी बताकर जेल में डाल दिया जाता है। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या किन्नर मानव नहीं है? क्या उसे प्रेम करने का अधिकार नहीं है? किन्नर से मानवोचित व्यवहार न करने की मानसिकता मनस्वामी जैसे पुलिस वाले के चरित्र से साफ दिखाई देती है। अनारकली उमा को बहन मानती है। अतः उसके द्वारा उसकी हत्या किए जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। यहाँ किन्नर का किन्नर से बहनापा उसमें संवेदनापूरित होने का प्रमाण है। 


किन्नरों की समस्याएँ विश्वव्यापी हैं लेकिन किन्नरों की सबसे ज्यादा दयनीय स्थिति भारत में है। इन्हें यहाँ मनुष्येतर मानकर उपेक्षित - तिरस्कृत किया जाता है और ' आग के सात फेरे ' से यानि वैवाहिक बंधन से वंचित कर दिया जाता है।



निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि किन्नर विमर्श के उपर्युक्त तीनों नाटकों में किन्नरों की विभिन्न समस्याओं को उजागर करके उनके समाधान खोजने पर बल दिया गया है। किन्नर विमर्श के पहले हिन्दी नाटक ' शिखण्डी ' में भरत देव जी ने तथाकथित समाज में सभ्य माने जाने वाले लोगों, राजनेताओं, सरकार, मीडिया और फिल्म कारोबारियों द्वारा किन्नरों पर किए जाने वाले दमन - शोषण और उपेक्षा को बेबाकी से दिखाया गया है और किन्नरों को अपने अधिकार पाने के लिए संघर्षरत दिखाया गया है, जो समाज की प्रयोगशाला में अनोखा प्रयोग है जिससे किन्नर समाज की दशा और दिशा अवश्य बदलेगी।


' हरारत ' नाटक में हरीश बी० शर्मा ने

 मूलतः ये संदेश संप्रेषित किया है कि किन्नर के मन में भी माँ - बाप बनने की इच्छा होती है।


' आग के सात फेरे ' नाटक में महेश दत्तानी जी ने किन्नरों को भी वैवाहिक - बंधन का अधिकार दिलाने हेतु आवाज बुलन्द की है और प्रेम - सम्बधों के चलते किन्नरों पर होने वाले अत्याचारों को उजाकर करके सामाजिक अपराधियों की निंदा की है।



संदर्भ - 


१. सावित्रीबाई फुले के १९ अनमोल विचार - धाकड़ बातें डॉट कॉम

२. किन्नर - विमर्श : दशा और दिशा - डॉ० विनय कुमार पाठक (पृष्ठ : ५, ६, ८, ९, १०)

३. वही (पृष्ठ : २१९, २१७, २१८) 

४. विकलांग व्यक्तियों का अंतरराष्ट्रीय दिवस - संयुक्त राष्ट्र संघ की वेबसाइट

५. शिखण्डी नाटक (१९९६) - भरत वेद (पृष्ठ : १, ७, २४, २५)

६. शिखण्डी नाटक - भरत वेद (भरतवेद का मन:वृत्त एवं

अमेजन पर की गई समीक्षा)

७. हरारत नाटक (२००३) - हरीश बी० शर्मा 

८. आग के सात फेरे नाटक (२००८) - महेश दत्तानी

९. दि व्हायस ऑफ सबएलेम्स इन सेवन स्टेप्स एराउंड दि फायर - महेश दत्तानी : न्यू होरिजॉन इन इंडियन इंग्लिश ड्रामा - बीना अग्रवाल (जयपुर बुक इन्क्लेव - २००८) (पृष्ठ : ३४१)




** ( शासकीय पातालेश्वर महाविद्यालय, मस्तूरी, छत्तीसगढ़ एवं प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ के समन्वित तत्वावधान में दिनाँक - 4 सितंबर 2023 को शासकीय पातालेश्वर महाविद्यालय, मस्तूरी में आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी "किन्नर - विमर्श : नाटक एवं सिनेमा के विशेष संदर्भ में" में तृतीय पुरस्कार से पुरस्कृत शोधपत्र। ) **





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