हिन्दी उपन्यासों में दिव्यांग विमर्श - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

*** शोधपत्र : " हिन्दी उपन्यासों में दिव्यांग विमर्श " ***


- किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

(परास्नातक छात्र - हिन्दी विभाग, बुंदेलखंड महाविद्यालय, झाँसी; बुन्देलखंडी युवा लेखक; सामाजिक कार्यकर्त्ता; पूर्व महासचिव - इक्वल अपॉर्च्युनिटी सेल, हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय)

ईमेल - kushraazjhansi@gmail.com

मो० - 8800171019, 9596911051

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_ 08/06/2023 _ 10:30 रात_ झाँसी



** ( 08 एवं 09 जुलाई 2023 को अखिल भारतीय विकलांग चेतना परिषद एवं प्रयास प्रकाशन, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ द्वारा आयोजित दो दिवसीय 'विकलांग विमर्श' विषयक ग्यारहवीं राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध आलेख...। ) **



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साहित्य समाज में चेतना लाने का बदलाओकारी माध्यम है। समाज में चेतना आने से उस वर्ग का विशेष सशक्तिकरण होता है, जिस वर्ग विशेष के संदर्भ में साहित्य रचा गया होता है। 21वीं सदी में स्त्री, दलित, आदिवासी, किसान और किन्नर पर विमर्श और उनके सशक्तिकरण के बाद आज के दौर में दिव्यांग सशक्तिकरण की चर्चा जोरों पर चल रही है। 


दिव्यांग सशक्तिकरण के लिए हिन्दी साहित्य में एक नए विमर्श - 'विकलांग विमर्श' का प्रवर्तन समकालीन विमर्शों की धरती बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में साहित्यमनीषी, भाषाविद और आलोचक डॉ० विनय कुमार पाठक जी ने किया है। 



डॉ० विनय कुमार पाठक जी दिव्यांग कथा साहित्य के उल्लेखनीय ग्रंथ 'कथा साहित्य में विकलांग विमर्श' की भूमिका में लिखते हैं -

" स्त्री, दलित और जनजातीय-विमर्श के बाद 21वीं सदी के प्रथम दशक की दस्तक के रूप में 'विकलांग-विमर्श' स्थापित हो रहा है जो शुभ - लक्षण का संकेत है। जाति और लिंग से रहित शुद्ध मानवतावादी दृष्टि पर आधारित यह ऐसा अभिनव विमर्श है जो किसी मानव को जन्म से या जीवन पर्यन्त किसी दुर्घटना या विकार से कभी भी हो सकता है। इसके लिए समाज में जन जागृति लाना और इनके समग्र विकास हेतु जनता, शासन और समाजसेवी - संस्थाओं में सामंजस्य का सूत्रपात करना आज के समय की माँग है। हमारे देश में ही नहीं, पूरे विश्व में विकलांगों की संख्या पन्द्रह प्रतिशत है लेकिन विडंबना ही कही जाएगी कि इनके पुर्नवास की समस्या आज भी मुँहबाए खड़ी है। एक दशक से स्त्री, दलित, आदिवासी व जनजातीय-विमर्श की परिक्रमा करने के पश्चात मैंने अनुभव किया कि युग की माँग के अनुरूप अब विकलांग विमर्श का भी वृत्त विनिर्मित करना समकालीन समीक्षा का सोपान सिद्ध होगा। भारत में पहली बार सन 2001 में विकलांगों की जनगणना की दिशा में कार्य आरंभ हुआ। पूरे विश्व में तीन प्रतिशत लोग विकलांग हैं तथा वैज्ञानिक दृष्टि से दस प्रतिशत जनसंख्या विकलांगता का वितान बनाती है। पक्षाघात, बायपास सर्जरी, कैंसर, थैलेसिमिया आदि अनेक जटिल व्याधियाँ और अस्सी वर्ष से अधिक की अवस्था अधिकतर विकलांगता के वर्ग में ही आती है। यू०एन०ओ० का सर्वेक्षण दस प्रतिशत आबादी की पुष्टि करता है। विश्व के इतने वृहद-विस्तृत समूह की संवेदना को शून्य कर देना क्या मानवीयता के मान को मिटाना नहीं कहा जाएगा ? इनकी समस्याओं को समझना, संघर्ष को महसूसना और संवेदना से समरस होना आधुनिकता का आग्रह आभासित होता है। लिंग और जाति से रहित यह विमर्श विशुद्ध मानवतावादी दृष्टि पर केंद्रित है। "



हम 'विकलांग विमर्श' को 'दिव्यांग विमर्श' कहना इसलिए ज्यादा उचित समझते हैं क्योंकि हमारे माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने 26 दिसम्बर 2015, रविवार को 'मन की बात' कार्यक्रम में शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को नया नाम देते हुए कहा था कि विकलांगों के लिए 'दिव्यांग' शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए क्योंकि उनके पास एक अतिरिक्त शक्ति होती है। 



प्रधानमंत्री मोदी जी ने  विकलांगता पर चर्चा करते हुए कहा था -

" परमात्मा ने जिसके शरीर में कुछ कमी दी होती है, हम उसे विकलांग कहते हैं। कभी - कभी जब हम ऐसे व्यक्तियों से मिलते हैं तो हमें पता चलता है कि हमें आँखों से उनकी यह कमी दिखती है, लेकिन ईश्वर ने उन्हें कुछ एक्स्ट्रा पावर दिया होता है। एक अलग शक्ति का उसके अंदर परमात्मा ने निरूपण किया होता है। मेरे मन में विचार आया कि क्यों न हम देश में विकलांग की जगह पर 'दिव्यांग' शब्द का प्रयोग करेंगे। ये वे लोग हैं, जिनके पास एक ऐसा अंग है या एक से अधिक अंग हैं , जिसमें दिव्यता है। मुझे यह शब्द अच्छा लग रहा है। हम रेलवे, बस स्टैंड से लेकर तमाम सार्वजनिक जगहों को इन दिव्यांग लोगों के लिए सुविधापूर्ण बनाने पर ध्यान देंगे।"


दिव्यांग - सशक्तिकरण की दिशा में सरकार द्वारा उठाया गया ये पहला ऐतिहासिक कदम था। विकलांगों को 'दिव्यांग' सम्बोधन मिलने से समाज में उन्हें सम्मानीय स्थान मिला है। 26 दिसंबर 2015 से शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति के कल्याण हेतु संचालित योजनाओं - परियोजनाओं में आधिकारिक रूप से 'दिव्यांग' शब्द का प्रयोग हो रहा है। इसलिए हमें भी व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में शारिरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों हेतु 'दिव्यांग' संबोधन का ही प्रयोग करना चाहिए, अन्य किसी संबोधन का नहीं। 



"हिन्दी उपन्यासों में दिव्यांग विमर्श" के परिप्रेक्ष्य में यदि बात की जाए तो सबसे पहले उपन्यास के द्वारा ही दिव्यांग - जीवन अभिव्यक्ति पाया है। एक ये भी तथ्य है कि हिन्दी साहित्य में कथा के माध्यम से ही दिव्यांग - जीवन ज्यादा मुखर हुआ है काव्य की अपेक्षा।



हिन्दी उपन्यासों में सर्वप्रथम दिव्यांग - जीवन के दर्शन सन 1924 में प्रकाशित प्रेमचंद जी के उपन्यास 'रंगभूमि' में होते हैं। हम रंगभूमि उपन्यास को दिव्यांग विमर्श / विकलांग विमर्श का पहला उपन्यास मानते हैं। 



रंगभूमि उपन्यास का नायक सूरदास है, जोकि दिव्यांग है और काशी के पास में बसे पांडेपुर गाँव का रहने वाला है। ऐसा माना जाता है कि प्रेमचंद को उपन्यास में नायक सूरदास के सृजन की प्रेरणा गाँव के अंधे भिखारी से मिली थी। ये अंधा भिखारी जनसेवा करने में लगा रहता था और बेदम होने पर भी पीछे नहीं हटता था। रंगभूमि का नायक सूरदास गाँधीजी के विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। वो शारीरिक रूप से दुर्बल होते हुए भी उपन्यास में मजबूत चरित्र के रूप में उभरकर आता है। उसमें संघर्ष करने की अद्भुत क्षमता है। वो विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष करता है। 


प्रेमचंद जी ने बड़ी सहजता से रंगभूमि के आरंभ में ही सूरदास का जो परिचय दिया है। वो उसके वर्गगत व्यक्तित्व को भूमिकास्वरूप प्रस्तुत करता है। 

वे लिखते हैं -

 " भारतवर्ष में अंधे आदमियों के लिए न नाम की जरूरत होती है, न काम की। सूरदास उनका बना - बनाया नाम है, और भीख माँगना बना - बनाया काम है। उनके गुण और स्वभाव भी जगत प्रसिद्ध हैं - गाने - बजाने में विशेष रुचि, हृदय में विशेष अनुराग, अध्यात्म और भक्ति में विशेष प्रेम, उनके स्वाभाविक लक्षण हैं। बाह्य दृष्टि बंद और अंतर्दृष्टि खुली हुई। "



प्रेमचंद के रंगभूमि उपन्यास के बाद सन 1976 में प्रकाशित आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास 'अनामदास का पोथा' में दिव्यांग विमर्श मुखर होता है। 'अनामदास का पोथा' में वर्णित है कि रैक्व ऋषि दिव्यांग थे, जिन्होंने राजा जानश्रुति को  ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया था। रैक्व को राजा की कन्या जबाला बहुत पसंद थी और उन दोनों के बीच प्रेम प्रसंग भी चल रहा था इसलिए राजा जानश्रुति ने ज्ञान-यज्ञ की दक्षिणा के रूप में अपनी कन्या जबाला का रैक्व ऋषि को सौंप दी और दोनों का प्रेमविवाह संपन्न करा दिया।



'अनामदास के पोथा' उपन्यास के बाद सन 1981 में प्रकाशित अमृतलाल नागर जी के उपन्यास 'खंजन नयन' में दिव्यांग सशक्तिकरण परिलक्षित होता है। 'खंजन नयन' में महाकवि सूरदास के गौरवमयी जीवन के विभिन्न पक्षों का चित्रण किया गया है। ये दिव्यांग - जीवन का उल्लेखनीय जीवनीपरक उपन्यास साबित होता है।


'खंजन नयन' उपन्यास के बाद दिव्यांग - जीवन सन 2016 में प्रकाशित मृदुला सिन्हा जी के उपन्यास 'ज्यों मेहंदी के रंग' में सशक्त अभिव्यक्ति पाता है। 'ज्यों मेंहदी के रंग' उपन्यास दिव्यांग विमर्श को केंद्र में रखकर रचा गया है। इसमें लेखिका मृदुला सिन्हा का भोगा हुआ यथार्थ उभरकर आया है। 

लेखिका ने अपने पुत्र 'परिमल' की जगह 'शालिनी' (उपन्यास की नायिका) को स्थापित किया है। 


उपन्यास की भूमिका में मृदुला सिन्हा लिखती हैं - 

" अपने स्व० पुत्र परिमल के प्रति किस भाव और भाषा में आभार व्यक्त करूँ। सच कहूँ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उसकी स्थिति ने ही मुझे इस उपन्यास की रचना के लिए बाध्य किया है। अपना शरीर क्या, उंगली भी एक इंच हिला पाने में असमर्थ परिमल अपने अट्ठारह वर्षीय जीवन में दस वर्षों तक हमारे ऊपर पूर्णरूपेण निर्भर था। परन्तु न मैं, न उसके पिता, न चाचा अभय सिंह, न दोनों भाई और न नन्हीं बहिन मीनाक्षी, किसी ने भी उसकी दिव्यांगता कबूल नहीं की।"


यह उपन्यास दिव्यागों की सेवा को तप और त्याग की भाँति प्रस्तुत करता है। इसकी नायिका शालिनी नामक युवती है। जो दुर्घटनाजन्य दिव्यांगता की शिकार हो जाती है।  जिसके दोनों पैर गंगा नदी में स्टीमर और डेक के बीच आ जाने से कट गए थे। वो कृत्रिम पैर लगवाने के लिए दद्दा जी के संस्थान में आती है। शालिनी में सेवा भाव और समर्पण कूट - कूटकर भरा है। दद्दा जी की संस्था से जुड़ने के बाद वह अपने अतीत की कटु स्मृतियों को भूलकर स्वयं भी अन्य दिव्यांगों की सेवा एवं सहयोग में लग जाती है और दद्दा जी की अनुपस्थिति में वह सारे संस्थान की जिम्मेदारी स्वयं उठाती है।



'ज्यों मेहंदी के रंग' उपन्यास में सामाजिक और सरकारी व्यवस्था की बुराइयों को भी उजागर किया गया है। ये उपन्यास  

सरकारी और गैरसरकारी प्रयासों से बढ़कर 

स्वयं दिव्यांगों की मानसिकता में परिवर्तन की राह दिखाता है।


पिछली साल जनवरी 2022 में प्रकाशित गीता पंडित का उपन्यास 'इनबॉक्स' दिव्यांग विमर्श का समकालीन उपन्यास है।  'इनबॉक्स' उपन्यास में पोलियो से प्रभावित नन्नू की कहानी उसकी माँ द्वारा नन्नू की मृत्यु के बाद लिखे पत्रों के जरिए बताई गई है। गीता जी ने बहुत संवेदनशीलता

से नन्नू और विकलांगता के उसके जीवन पर प्रभाव को उकेरा है। "विटामिन जिन्दगी पुरस्कार" के दिसम्बर 2021 संस्करण में निर्णायक और साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता सुप्रसिद्ध लेखिका अनामिका जी ने इस उपन्यास को विशेष रूप से सम्मानित करने की अनुशंसा की थी।


अतः इस प्रकार, हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि हिन्दी उपन्यासों में कथासम्राट प्रेमचंद के 'रंगभूमि' उपन्यास से लेकर समकालीन उपन्यास 'इनबॉक्स' में दिव्यांग - जीवन की मुखर अभिव्यक्ति हुई है। इन उपन्यासों ने दिव्यांगों के जीवन के विभिन्न पहलुओं, उनकी परिस्थितियों और उनके जीवन संघर्षों को बेबाकी से उठाया है इसलिए इन उपन्यासों की दिव्यांग - सशक्तिकरण की दशा और दिशा में उल्लेखनीय भूमिका है। 



संदर्भ -: 

(1.) विकलांग विमर्श : दशा और दिशा - डॉ० विनय कुमार पाठक, भावना प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2020

(2.) मन की बात - प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, 26 दिसम्बर 2015

(3.) कथा साहित्य में विकलांग विमर्श - संपादक डॉ० विनय कुमार पाठक, अखिल भारतीय विकलांग चेतना परिषद

(4.) विकलांग विमर्श विविध सोपान - संपादक डॉ० आनंद कश्यप, पंकज बुक्स दिल्ली, संस्करण 2022 

(5.) रंगभूमि - प्रेमचंद, संस्करण - 1924

(6.) अनामदास का पोथा - आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, संस्करण - 1976

(7.) खंजन नयन - अमृतलाल नागर, संस्करण - 1981

(8.) ज्यों मेंहदी के रंग - मृदुला सिन्हा, प्रभात प्रकाशन दिल्ली, संस्करण - 2016

(9.)  ज्यों मेंहदी के रंग उपन्यास में दिव्यांग विमर्श - वंदना पांडेय, डॉ० वीरेंद्र सिंह यादव, शोधपत्र प्रकाशन - जनवरी 2018

(10.) इनबॉक्स - गीता पंडित, श्वेतवर्ण प्रकाशन, संस्करण - जनवरी 2022

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