त्रासदियों को बेनकाब करतीं बदलाव की कहानियाँ - डॉ० रामशंकर भारती
कुशराज साहित्य
*** घर से फरार जिंदगियाँ ***
(कहानी - संग्रह)
लेखक - कुशराज झाँसी
प्रकाशक - लायन्स पब्लिकेशन, ग्वालियर
पहला संस्करण - दिसंबर 2023
** अभिमत **
" त्रासदियों को बेनकाब करतीं बदलाव की कहानियाँ "
युवा कथाकार, सामाजिक सरोकारी, लेखक कुशराज झाँसी के ताजातरीन कहानी संग्रह " घर से फरार जिंदगियाँ " की कहानियाँ समाज में युगों - युगों से व्याप्त सामंतवादी दुष्प्रवृत्तियों, स्त्रियों, दलितों, मजदूरों, किसानों आदि के शोषण, जातिवादी संकीर्ण मानसिकता, अशिक्षा, बेरोजगारी, भुखमरी, नशाखोरी, बलात्कार, छुआछूत जैसी नाइंसाफियों और बुराइयों के खिलाफ सामाजिक बदलाव की पैरवी करतीं नजर आतीं हैं। वर्तमान समय में दूरदराज के गाँवों से निकलकर कस्बों, शहरों और महानगरों में शिक्षित हो रही आज की युवा पीढ़ी सामाजिक बदलाव की पटकथाएँ लिख रही है। युवाओं में शिक्षा के सर्वोपरि महत्त्व के साथ ही स्वावलंबन, जातिविहीन समाज, पर्यावरण संवर्द्धन, अंतर्जातीय विवाह, स्त्री-पुरुष समानता, गाँवों का सर्वांगीण विकास आदि का उनकी प्राथमिकताओं में शामिल होना, एक युगांतकारी परिवर्तन की छटपटाहट " घर से फरार जिंदगियाँ " की कहानियों में पोर -पोर से देखी जा सकती है। इसी के साथ कुशराज की इन कहानियों में उनकी मौलिक मान्यताओं व स्थापनाओं की बदलावकारी अदम्य आहट भी आसानी से सुनी और समझी जा सकती है।
किसान व सामाजिक सरोकारी युवा लेखक कुशराज का जीवन गाँव से जुड़ा है। निचाट गाँव से लेकर महानगर के बीच की दूरी उन्होंने नंगे पाँव चलकर नापी है। पथराए नंगे पाँवों के फफोलों की चुभन का बखूबी एहसास उनको है। रिसते हुए जख्मों के लिए मरहम कैसे मिलती है...? कब मिलती है..? कहाँ मिलती है..? उसकी कीमत उन्हें मालूम है। गाँव से शहर तक पहुँचने में कितने रोड़े होते हैं, कितने भटकाव होते हैं, कितने घुमाव होते हैं, कितने ठहराव होते हैं, साहस को तोड़मरोड़कर फेंकने वाली दमनकारी बाधाओं के खतरनाक सख्त पत्थरों की पाश्विकता तथा मनुष्य को बदतर व अपदस्थ करनेवाली अनेकानेक अमानवीय विभीषिकाओं से लेखक का रोज का वास्ता रहा है।
तथाकथित सामंत, संभ्रान्त व सामर्थ्यवान कहे जाने वाले वर्ग विशेष द्वारा गरीबों, मजदूरों, किसानों, स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों के शोषण-उत्पीड़न से आहत युवा लेखक के मन में सामाजिक नाइंसाफियों के खिलाफ जहाँ आक्रोश - विद्रोह की भावना बलवती हुई है, वहीं सामाजिक बदलाव के लिए समतामूलक रचनात्मक समाज की संरचना की अदम्य लालसा भी है। हमारे देश के सर्वांगीण विकास का आधार गाँव हुआ करते हैं। आज गाँवों की जो स्थिति है, वह अत्यंत चिंताजनक हो गई है। पंचायतीराज के माध्यम से गाँवों का विघटनकारी राजनीतिकरण हो गया है। सूदखोरी, नशाखोरी, जुआ के अड्डे, बेरोजगारी, ऊँचनीच की भावना, स्त्रियों को कमतर आँकना आदि बुराइयाँ जो सामाजिक उत्थान में बहुत बड़ी बाधाएँ हैं, वे समस्त बुराइयाँ गाँव में नाना रूपों में पाँव पसार रहीं हैं। शहरी संस्कृति की तमाम अनिष्टकारी प्रवृत्तियाँ, परंपराएँ बनकर गाँव की समरसता को नष्ट कर रहीं हैं, जिसके कारण गाँव से भले मानस पलायन कर रहे हैं। बेरोजगारी एक अलग मुद्दा है। गाँव का शांतिप्रिय आदमी शहरों की आधुनिक संस्कृति से तालमेल बिठाने में असमर्थ हो रहा है, जिसके कारण भी अनेक प्रकार की सामाजिक समस्याओं का निरंतर जन्म हो रहा है।
कुशराज के कहानी संग्रह " घर से फरार जिंदगियाँ " में कुल एक पर एक ग्यारह कहानियाँ संकलित हैं, जो इस बात की तस्दीक करतीं हैं कि लेखक चाहे युवा हो या वृद्ध, चर्चित हो या अचर्चित, बहुपठित हो या अल्पपठित, मगर क्या उसके लेखन की उद्देश्यपरकता मानवीय जीवनमूल्यों को प्रस्थापित करने के मार्ग प्रशस्त करती है, क्या नाइंसाफियों के खिलाफ खुलकर खड़ी होती है...? जब हम इस मंशा के अनुरूप " घर से फरार जिंदगियाँ " की कहानियों की पड़ताल करते हैं तब हमें लगता है, युवा लेखक ने बड़ी संजीदगी से अपनी कहानियों में जिंदगी की जिजीविषाओं को उकेरने में सफलता प्राप्त की है।
" घर से फरार जिंदगियाँ " कहानी संग्रह की पहली कहानी व कुशराज की पहली कहानी 'रीना' में मन को झकझोरने वाली दहेज समस्या पर आधारित कथा है, जिसके कारण निर्दोष पिंकी को आत्महत्या करनी पड़ती है। वहीं गाँव के सूदखोरों के कर्ज में दबा किसान शिम्मू भी कर्ज न चुकाने के कारण आत्महत्या कर लेता है।
'हवसी! तुझे नहीं छोडूँगी' कहानी बदलाव का सूत्रपात करती है। यह नई क्रांति की कहानी है। कहानी में बलात्कारी अजय की हत्या पीड़िता सोनम द्वारा की जाती है। इस कहानी के तीन प्रमुख पात्र हैं - सोनम, मेघा और कुश, जो नारीवादी आंदोलन को स्थापित करने की मुहिम चलाते हैं। इसके साथ ही वह एक नया धर्म " कौश–धर्म " भी स्थापित करना चाहते हैं, जो नारी-पुरुष समान अधिकार की पैरवी करता है। नारी शिक्षा व समानता के महत्त्व को दर्शाती ज्योतिबा फुले की विचारधारा इस कहानी के मूल में परिलक्षित होती है।
इस संग्रह की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कहानी है 'पंचायत'। 'पंचायत' कहानी में अंतरजातीय विवाह की समस्या को प्रमुखता से उठाया गया है। सवर्ण जाति के पण्डित लड़के सुनील तिवारी का गाँव के रमली चमार की बेटी आयुषी के संग प्रेम प्रसंग दिखाया गया है। दोनों गाँव से भाग जाते हैं। गाँव की पंचायत के दबाव के कारण सुनील तिवारी आयुषी को गाँव वापस लाता है। लड़की भगा ले जाने के आरोप में पंचायत द्वारा ब्राह्मण परिवार पर तीन लाख रुपए का दंड लगाया जाता है, जिसे पण्डित स्वीकार लेते हैं। इस दौरान आयुषी सुनील के बच्चे की बिन ब्याही माँ बन जाती है। जिसके कारण आयुषी का कहीं रिश्ता नहीं हो पाता है। आयुषी धन लोलुप माँ-बाप को कोसती रहती है। दूसरा प्रसंग भी इस कहानी में अंतरजातीय प्रेम प्रसंग से संबंधित है। बसोर जाति का लड़का निमेंद्र बनिया जाति की लड़कियों से प्रेम करता है। जब परिवार वालों को इस बात का पता लगता है तो इसकी परिणति बसोर जाति के प्रेमी लड़के निमेंद्र की हत्या से होती है। यह कहानी खाप के सामंतवाद का बखूबी उद्घाटन करती है।
'भूत' कहानी, गाँव में व्याप्त अंधविश्वासों की बेड़ियों में जकड़े समाज के मनोविज्ञान को बखूबी उद्घाटित करती है।
'तीन लौंडे', जैसा कि कहानी के शीर्षक से ही स्पष्ट हो जाता है। यह आवारागर्दी करते हुए बड़े घरों के लड़कों की कॉलेज लाइफ की फ्री स्टाइल कहानी है।
'घर से फरार जिंदगियाँ' कहानी इस कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी है। इस कहानी में अंतरजातीय विवाह के साथ ही स्त्री विमर्श और सामाजिक मनोवृति का बड़ा ही मनोवैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। किसान परिवार की बेटी साक्षी पाल और ब्राह्मण परिवार के बेटे हर्ष चतुर्वेदी के प्रेम प्रसंग पर गाँव भर में हाएतोबा मचती है। दोनों जातियों के लोगों द्वारा तमाम तरह के लाँछन एक - दूसरे पर लगाए जाते हैं, पर जैसे ही साक्षी और हर्ष सरकारी बड़े ओहदे के अधिकारी बनकर गाँव आते हैं तो दोनों बेमेल परिवारों में मेलमिलाप हो जाता है। पहले विरोध करने वाले वही गाँव के लोग दोनों की जय - जयकार करते हैं। इस कहानी में समाज के दोहरे चरित्र का भी पर्दाफाश किया गया है।
गाँव के परिवेश में लिखी गई 'मजदूरी' कहानी स्त्री-विमर्श की अवधारणा को पुष्ट करती है। इस कहानी में शराबी और निक्कमे पति रामचंद्र के साथ उसकी पत्नी सिया का संघर्ष दिखाई देता है। रामचंद्र का गाँव के बिगड़ैल लोगों के साथ जुआखोरी करना, शराब पीना, पत्नी के साथ मारपीट करना, बच्चों की पढ़ाई - लिखाई आदि का इंतजाम न करना जैसी आम समस्याओं का समाधान सिया-रामचंद्र की बेटी संध्या बनती है। संध्या विवाह होने के पश्चात पति के साथ गाँव आती है और गाँव में शिक्षा के संस्कार पैदा करने के लिए जनजागरण करती है। गाँव से जुआ के अड्डे, शराबखोरी जैसी बुराइयों से लोगों को सचेत करके लोगों में शिक्षा, संस्कार और स्वावलंबन पैदा करती है। इस कहानी के मूल में गाँधीजी के ग्राम सुधार की भावना भी परिलक्षित होती है।
'प्रकृति' शीर्षक की कहानी पर्यावरण प्रदूषण के रोकथाम के लिए प्रेरित करती है। इस कहानी में जरबो गाँव की प्राकृतिक संपदा से प्रेरित होकर युवती सिया और बेटी नित्या दिल्ली जैसे महानगर की प्रदूषित आबोहवा को बदलने की दिशा में काम करती हैं।
'पुलिस की रिश्वतखोरी' आम बात है। पुलिस और रिश्वत दोनों का चोली दामन का साथ है। आश्रय गृह / शेलेटर होम्स में रुकने के लिए चुपचाप हर व्यक्ति से ₹20 वसूलने वाली घटना लेखक के जीवन की भुक्तभोगी घटना लगती है। जिसको लेखक ने बड़ी बेबाकी से स्वीकार करते हुए लिखा है कि रिश्वत देना और लेना दोनों ही अपराध हैं, लेकिन मजबूरियाँ आपको क्या - क्या नहीं करवा देती हैं।
'हिन्दी : भारत माता के माथे की बिंदी' , यह कहानी निश्चितरूप से नई शिक्षा नीति के अंतर्गत देश - विदेश में हिन्दी को बढ़ावा देने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों का समर्थन करती है। 'प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया' के स्थान पर "प्रेसिडेंट ऑफ भारत" लिखा जाना, भारत की सशक्त परिवर्तनकामी सरकार की निशानी है। भारत के गौरव और उसके मान बिंदुओं को सम्मान देने वाली घटनाओं और उनके ऐतिहासिक महत्त्व को यह कहानी बखूबी स्पष्ट करती है। हिन्दी माध्यम से डॉक्टरी की पढ़ाई करना, यह एक ऐसी मिसाल है, जो आज के पहले कभी नहीं देखी थी। यह कहानी हिंदी के वैज्ञानिक महत्त्व को भी दर्शाती है और 'हिन्दी देश का स्वाभिमान है' की भावना को बल देती है।
'अंतिम संस्कार' बलदेवपुरा गाँव की कहानी है। यह कहानी युगों - युगों से चली आ रही, पुरुषवर्चस्ववाद की धाक और रूढ़ियों को तोड़कर स्त्री - पुरुष समानता के अधिकार की बात करती है। कहानी में बलदेवपुरा के कछियाने के किसान नेता व समाज सुधारक महिन्द कक्का की अंत्येष्टि के प्रसंग को लेकर लेखक ने बड़ी बदलावपरक मनोवैज्ञानिक कहानी लिखी है। महिन्द कक्का का स्वर्गवास होने पर उनकी इकलौती बेटी मेघना सिंह कुशवाहा द्वारा उनका अंतिम संस्कार करने के मुद्दे पर गाँव के पुरोहितों तथा पाखंडवादियों द्वारा रोकना तथा तमाम तरह की पुरुषप्रधान समाज की दलीलें देना, स्त्रियों को कमतर बताना आदि विषयों को बड़ी खूबसूरती से कहानी में पिरोया गया है। साथ ही पुरोहित वर्ग के पाखंडपूर्ण कारनामों उनकी नशाखोरी, मांस - मदिरा सेवन आदि जैसी दुष्ट प्रवृत्तियों का भी खुलासा किया गया है। इस कहानी में यह भी निहितार्थ है कि जो तथाकथित धर्म उपदेशक हैं, पुरोहित हैं, उनका ऊपरी चेहरा तो रंगापुता होता है, लेकिन उनका असली चेहरा बहुत घिनौना और तमाम विकृतियों से भरा होता है। पढ़ी-लिखी युवा अधिवक्ता बेटी मेघना सिंह कुशवाहा द्वारा युगों से चली आ रही रूढियों को दरकिनार करके महेंद्र कक्का का अंतिम संस्कार किए जाने की घटना, स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार देने पर बल देती है तथा रूढ़िवादिताओं, पाखण्डों, अंधविश्वासों तथा अपसंस्कृतिमूलक अप्रासंगिक व्यवस्थाओं का पुरजोर विरोध भी करती है।
कुशराज की कहानियों में प्रगतिशीलता और जनवादी सरोकारों की स्थापनाओं की प्रतिबद्धताएँ मूलरूप से मुखरित हुईं हैं। कहानियों में स्त्री - पुरुष समानता, जातिवाद, पाखण्डवाद, उन्मुक्त युवा छात्रों की मानसिक स्थितियों आदि विद्रूपताओं के खिलाफ एक मुहिम चलती हुई दिखाई देती है। चिंतनपरक भावभूमि आधारित इन कहानियों में लेखक का दार्शनिक पक्ष भी स्पष्ट हुआ है, जिसकी वजह से कहीं - कहीं किस्सागोई प्रभावित हुई है। इसके बावजूद इन कहानियों में सतत प्रवाह और पठनीयता बरकरार बनी हुई है। जिस शिद्दत के साथ लेखक ने समाज के ज्वलन्त मुद्दों को केन्द्रस्थ करके मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठित करने के लिए कहानी की शक्ल में सिरजा है, वह आज के समाज की कड़बी सच्चाई है।
युवा कथाकार कुशराज की सामाजिक बदलाव की इन कहानियों का उद्देश्य समाज में सकारात्मक परिवर्तन पैदा करना तथा उसे अनेक संकीर्णताओं के अँधेरी सुरंगों से निकालकर उजालों के विस्तृत मैदान में प्रतिष्ठित करना महसूस होता है। भाषा और शिल्प की बुनियादी जरूरतें को पूरा करतीं आंचलिक जीवन की इन कहानियों में बुंदेली लोक जीवन के शब्दों के सहज प्रयोग अंधेरी रात में चाँद की तरह अठखेलियाँ करते नजर आते हैं।
" घर से फरार जिंदगियाँ " की जद्दोजहद को जिंदादिली से समर्पित इन बदलावकारी कहानियों के सृजन के लिए युवा लेखक और प्रिय शिष्य कुशराज को हार्दिक बधाईयाँ और अशेष शुभकामनाएँ।
- डॉ० रामशंकर भारती
(पूर्व प्राचार्य - विद्या भारती, साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी )
कार्तिक पूर्णिमा,
गुरु नानक जयंती,
२७ नवंबर २०२३,
झाँसी, बुंदेलखंड।
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