शोध आलेख - " विकलांग विमर्श की हिन्दी कहानियाँ और गुलकी बन्नो " - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी', दीपक नामदेव

शोध आलेख - 

" विकलांग विमर्श की हिन्दी कहानियाँ और गुलकी बन्नो "

लेखनकाल - 12 जनवरी 2024, झाँसी





©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

(परास्नातक छात्र - हिन्दी विभाग, बुन्देलखण्ड महाविद्यालय, झाँसी)

ईमेल - kushraazjhansi@gmail.com

मो० - 9569911051, 8800171019

पता - 212, नन्नाघर, जरबोगॉंव, बरूआसागर, झाँसी, अखण्ड बुन्देलखण्ड - 284201


©️ दीपक नामदेव

(परास्नातक छात्र - हिन्दी विभाग, बुन्देलखण्ड महाविद्यालय, झाँसी)

ईमेल -deepaknamdev39589@gmail.com

मो० - 8840052043

पता - महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज झाँसी के पास, करगुवांजी, झाँसी, अखण्ड बुन्देलखण्ड - 284128

        

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( 09 फरवरी 2024 को हिन्दी विभाग, शासकीय जे० पी० वर्मा स्नातकोत्तर कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ द्वारा आयोजित 'इक्कीसवीं सदी का अस्मितामूलक विकलांग-विमर्श' विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध आलेख। )


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21वीं सदी विमर्शों की सदी है। इस सदी में विभिन्न अस्मितामूलक विमर्शों जैसे - स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, किन्नर  विमर्श आदि विमर्शों ने नए आयामों को प्राप्त किया है और विकलांग विमर्श, किसान विमर्श, पर्यावरण विमर्श, वेश्या विमर्श, बाल विमर्श, वृद्ध विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, भाषा विमर्श, शिक्षा विमर्श एवं भिखारी विमर्श इत्यादि समकालीन विमर्श अंकुरित होकर विशाल वटवृक्ष बनने के लिए आंदोलनरत हैं। डॉ० विनय कुमार पाठक जी ने स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, किन्नर विमर्श और विकलांग विमर्श पर प्रमाणित आलोचनात्मक ग्रंथ रचकर समकालीन विमर्शों की आलोचना के क्षेत्र में नए-नए कीर्तिमान स्थापित किए और इन अस्मितामूलक विमर्शों में नई - नई स्थापनाएँ और मान्यताएँ स्थापित कीं।


21वीं सदी के पहले दशक में डॉ० विनय कुमार पाठक जी ने नए अस्मितामूलक विमर्श - 'विकलांग विमर्श' का प्रवर्त्तन बिलासपुर, छत्तीसगढ़ की उर्वर भूमि से किया। हाशिए के समाज को मुख्य धारा में लाने का प्रयास 'विमर्श' का गंतव्य-मंतव्य रहा है। इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक के दस्तक के साथ बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में 'अखिल भारतीय विकलांग चेतना परिषद' की नींव रखी गई। इसमें विकलांगों के पुनर्वास और समग्र विकास को लेकर डॉ० द्वारका प्रसाद अग्रवाल ने 121 योजनाओं की संकल्पना की। इस तरह स्त्री, दलित, आदिवासी विमर्श के बाद 'विकलांग विमर्श' को गति मिली। डॉ० अग्रवाल इस विमर्श के पुरोधा और डॉ० विनय कुमार पाठक प्रवर्त्तक प्रमाणित हुए। परिषद द्वारा विकलांग विमर्श पर साहित्य के प्रकाशन के समानांतर दस राष्ट्रीय और एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन ऐतिहासिक घटना सिद्ध हुई। इसी कड़ी में बारहवीं संगोष्ठी 'इक्कीसवीं सदी का अस्मितामूलक विकलांग विमर्श' का आयोजन किया जा रहा है।  (1.)


हिन्दी साहित्य में विगलांग जनों पर केंद्रित रचनाएँ हर विधा में हिन्दी साहित्य की शुरूआत से ही रची गईं हैं। हिन्दी साहित्य की सभी विधाओं में से कहानी सबसे प्रचलित और लोकप्रिय विधा है। विमर्श प्रवर्त्तक डॉ० विनय कुमार पाठक ने विकलांग विमर्श के प्रमाणित आलोचना ग्रंथ 'विकलांग-विमर्श : दशा और दिशा' के तीसरे अध्याय में विकलांग विमर्श की कहानियों का उल्लेख किया है। उन्होंने विकलांगता के प्रकार के अनुसार कहानियों का निर्धारण किया है और उन्हें क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत किया है। जिनमें जन्मजात शीरीरिक विकलांगता पर ऊषा प्रियंवदा की 'टूटे सपने', सिम्मी हर्षिता की 'अनियंत्रित', नरेन्द्र नामदेव की 'समापन', उदय प्रकाश की 'हिंदुस्तानी' आदि शामिल हैं। वहीं हकलाहट की विकलांगता पर फणीश्वरनाथ रेणु की 'ठेस' कहानी हुई है। अंधेपन की विकलांगता पर जयशंकर प्रसाद की 'बेड़ी', ज्ञान प्रकाश विवेक की 'अंधा सूरज', डॉ० रेखा पालेश्वर की 'खुली आँखों का दुख', रेणु यादव की 'दबे पांव', शिवानी की 'कालू', डॉ० रेशमी पांडा मुखर्जी की 'देवी' और ममता कालिया की 'राजू' इत्यादि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। गूंगेपन की विकलांगता पर डॉ० पाठक ने जिन कहानियों को शामिल किया है, वे इस प्रकार हैं - रांगेय राघव की 'गूंगा', रवींद्रनाथ ठाकुर की 'गूंगी', संतोष श्रीवास्तव की 'गूंगी', प्रमिला वर्मा की 'प्रतिबिम्ब', डॉ० अभिनेष जैन की 'बोलते चित्र' आदि शामिल हैं। पक्षाघात से ग्रसित विकलांगता पर चित्रेष की 'मन के जीते जीत', कुलदीप बग्गा की 'पोलियो', दीप्ती खंडेलवाल की 'अभिशप्त', राजी सेठ की 'उन दोनों के बीच', तेजेन्द्र शर्मा की 'मुझे मार डालो' और कुष्ठ रोगियों की विकलांगता पर शिवानी की 'करिये छिमा' की चर्चा की गई है। मानसिक विकलांगता पर उदय प्रकाश की 'टेपचू', डॉ० विनय कुमार पाठक की 'तभी चिड़िया फुर्र' और नाशिरा शर्मा की 'इबनेमरियम' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। (2.)


विकलांग विमर्श की विशेष कहानियों में शुमार 'गुलकी बन्नो' धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध हिन्दी कहानी है। ये कहानी 'नई कहानी आंदोलन' के दौर में लिखी गई थी, जो उनके चर्चित कहानी-संग्रह 'बंदगली का आखिरी मकान' में संकलित है, जिसका प्रकाशन सन 1955 ई० में हुआ था। 


'गुलकी बन्नो' कहानी में एक कुबड़ी स्त्री के जीवन-संघर्ष को बड़ी सजीवता के साथ दिखाया गया है। कुबड़ी गुलकी अपने पति और समाज द्वारा सताई गई, उपेक्षित की गई और हेय समझी गई स्त्री है। गुलकी ने जब मृत संतान को जन्म दिया तब ढ़ोर पति ने उसे सीढ़ी से ढकेल दिया था, जिससे उसकी कमर टूट गई और वो कुबड़ी बन गई। गुलकी को कुड़बनेपन की असहनीय पीड़ा के शिकार बनाने वाला अपराधी उसका पति है।


जब पति गुलकी को त्यागकर दूसरा विवाह रचा लेता है तब पिता की मृत्यु के बाद गुलकी को मायके में अकेले ही रहना पड़ता है और वो घेघा बुआ के चौतरें पर बैठकर सब्जियाँ बेचकर जीवनयापन करती है। जिस गुलकी के साथ समाज अमानवीय व्यवहार करने से बाज नहीं आता है। उसी गुलकी में मानवता कूट-कूटकर भरी हुई है। वह सामाजिक व्यवहार करने में कुशल थी और विकलांग होते हुए भी आत्मनिर्भर है इसीलिए जबसे उसने घेघा बुआ के चौतरें पर तरकारियों की दुकान रखी थी, तभी से मिरवा, झबरी कुतिया, बच्चे, मेवा, ड्राइवर साहब की लड़की निरमल समेत सभी लोग चौतरें पर इकट्ठे होने लगे थे। 


उन विकलांग बच्चों मिरवा और मटकी को गुलकी ही अपनी दुकान और देहरी पर चढ़ने देती है, जिन्हें परिवार, समाज, मुहल्ला-पड़ोस, रिश्तेदार सभी दुतकारते थे, उन्हें अछूत समझकर अपने पास नहीं आने देते थे। ये बच्चे जानकी उस्ताद के बच्चे थे। उस्ताद संक्रमित बीमारी के कारण गल-गलकर मरे थे और ये बच्चे भी विकलांग, विक्षिप्त और रोगग्रस्त पैदा हुए थे। गुलकी दुर्घटना के कारण विकलांग हुई थी, और विकलांगता के कारण जीवन में आईं मुशीबतों और विकलांग लोगों के साथ समाज के रैवैये को अच्छी तरह से समझती थी इसलिए वो इन बच्चों के साथ उचित व्यवहार करती है।


'गुलकी बन्नो' को बाल-बच्चे मसखरी का पात्र समझते हैं। मेवा मसखरी करते हुए कहता है, " ए कुबड़ी, ए कुबड़ी! अपना कूबड़ दिखाओ। " और एक मुट्ठी धूल उसकी पीठ पर छोड़कर भागा। परित्यक्ता कुबड़ी 'गुलकी' के नीरस जीवन में अगर कहीं कुछ ध्वनि, लय, कम्पन है भी तो मिरवा और मटकी के गाने के कारण। अनुभूति की सघनता ने छोटे - छोटे दृश्यों को गंभीर अर्थ दिया है, चाहे वह बच्चों का जुलूस हो, बच्चों का कुबड़ी से खेल, घेंघा बुआ का कूड़ा फेंकने का प्रसंग। ये सब निष्ठुर समाज की स्वार्थपरता, मनुष्य से खिलवाड़ की प्रवृत्ति और गुलकी की मर्मभेदी करूणाओं को प्रस्तुत करते हैं। (3.)


" कुबड़ी ने पहले इधर-उधर देखा, फिर फुसफुसाकर मेवा से कहा, " क्यों रे! जीजाजी कैसे लगे तुझे ? " मेवा ने असमंजस में या संकोच में पड़कर कोई जवाब नहीं दिया तो जैसे अपने को समझाते हुए गुलकी बोली, "कुछ भी होय। है तो अपना आदमी! हारे-गाढ़े कोई और काम आएगा ? औरत को दबाय के रखना ही चाहिए।”  (4.)


गुलकी का उपर्युक्त कथन इस बात का परिचायक है कि भारतीय समाज में स्त्री के साथ हजारों सालों से दोयम दर्जे के इंसान जैसा व्यवहार हो रहा है। स्त्री को पुरूषप्रधान समाज सताया रहा है, उसके साथ बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार करता रहा है। और 'अब स्त्री को दबाकर रखना चाहिए', ये रूढ़िवादी समाज में पुरुषों और स्त्रियों की सोच बन गई है। इस सोच को में बदलाओ लाने की जरूरत है। समाज में बदलाओ लाने के साथ ही किसानों और स्त्रियों को सम्मान दिलाने के लिए हमारी 'बदलाओकारी विचारधारा' काम कर रही है।


गुलकी का पति दूसरी शादी करने के बाद जब सालों बाद गुलकी को लेने उसके गाँव आता है तब वो गुलकी के बारे में बात करते हुए घेघा बुआ से कहता है, " इसे ले तो जा रहे हैं, पर इतना कहे देते हैं, आप भी समझा दें उसे, कि रहना हो तो दासी बनकर रहे। न दूध की न पूत की, हमारे कौन काम की ; पर हाँ औरतिया की सेवा करे, उसका बच्चा खिलावे, झाडू-बुहारू करे तो दो रोटी खाय पड़ी रहे। पर कभी उससे जबान लड़ाई तो खैर नहीं। हमारा हाथ बड़ा जालिम है। एक बार कूबड़ निकला, अगली बार परान निकलेगा।” (5.)


एक दिन घेघा बुआ से झगड़ा हो गया था, जिस बजह से बुआ ने गुलकी को अपने चौतरें पर सब्जियों की दुकान लगाना बंद करा दिया था और उसके पास अपना घर भी नहीं था। उसका मायके में भी अब कोई अपना सगा नहीं था इसलिए उसने पति के साथ ससुराल जाने का निश्चय किया। यदि गुलकी पति के साथ न जाती, तो फिर जाती कहाँ ?.....


मायके से गुलकी की बिदाई पर मिरवा ने गाना गया, " बन्नो डाले दुपट्टे का पल्ला, मुहल्ले से चली गई राम? " ये गाना उस मुहल्ले में हर लड़की की बिदा पर गाया जाता था। मटकी ने भी मिरवा के साथ सुर मिलाया, " बन्नो तली गई लाम! बन्नो तली गई लाम! बन्नो तली गई लाम!" गुलकी की बिदाई पर मुन्ना बहुत रो रहा था।

गुलकी भी रो रही रही, इक्के से वो आँसू पोंछते हुए परदा उठाकर मुड़-मुड़कर देख रही थी। सिर्फ झबरी कुतिया सड़क तक इक्के के साथ गई और फिर लौट गई लेकिन मायके के स्त्री, पुरूष और बच्चों में से कोई भी गुलकी को बिदा करने सड़क तक नहीं गया क्योंकि उस समाज और गॉंव में मानवता मर चुकी थी। (6.)


'गुलकी बन्नो' का विश्लेषण करते हुए पंचराज यादव लिखते हैं, " यह कहानी अंत तक अपनी संवेदनात्मक बुनावट और विषयवस्तु की रोचकता से सबकी आँखें नम कर देती है। गुलकी एक ऐसी स्त्री है। जो अपने पति के द्वारा घर से इसलिए निकाल दी जाती है क्योंकि वो एक मरे हुए बच्चे को जन्म देती है। यह कहानी पाठकों से सवाल करती है, समाज से सवाल करती है। क्या एक मरे हुए बच्चे के जन्म के लिए जिम्मेदार महज स्त्री होती है ? क्या बच्चे को जन्म देना ही स्त्री का होना है ? और उसकी उपस्थिति नहीं, कोई मूल्य नहीं है समाज में ? इन समस्त प्रश्नों का उत्तर मिलना आसान नहीं है और हमारा समाज स्त्रियों के प्रति इन्हीं धारणाओं से लगभग गिरा दिखता है।" (7.)


आलोचक गोपाल राय का कहना है कि " गुलकी बन्नो हाशिए पर स्थित लोगों की विशेषकर पति द्वारा उपेक्षित अभाव, उपेक्षा और अपमान की जिंदगी जीनेवाली कुबड़ी औरत की कहानी है। कहानीकार ने उसे पूरी सहानुभूति दी है, परंतु उसे विद्रोह करते क्यों नहीं दिखाया है। यह बात समझ में नहीं आती। " (8.)


निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि धर्मवीर भारती की कहानी 'गुलकी बन्नो' में विकलांग स्त्री के जीवन-संघर्ष को सजीवता के साथ दिखाया गया है और भारतीय समाज से मानवीय मूल्यों के ह्रास का भी चित्रण किया गया है। 21वीं सदी में भारतीय समाज में मानवीय मूल्यों की स्थापना  और विश्व में मानवधर्म की स्थापना के सराहनीय प्रयास किए जा रहे हैं। मानव धर्म के प्रयासों में विकलांग विमर्श के प्रवर्त्तक डॉ० विनय कुमार पाठक की साहित्य सेवा और समाजसेवा युगांतकारी है। धर्मवीर भारती की 'गुलकी बन्नो', फणीश्वरनाथ रेणु की 'ठेस', रांगेय राघव की 'गूँगा', जयशंकर प्रसाद की 'बेड़ी', ज्ञान प्रकाश विवेक की 'अंधा सूरज', डॉ० रेखा पालेश्वर की 'खुली आँखों का दुख', ममता कालिया की 'राजू',  तेजेन्द्र शर्मा की 'मुझे मार डालो', उदय प्रकाश की 'हिंदुस्तानी', शिवानी की 'करिये छिमा', विनय कुमार पाठक की 'तभी चिड़िया फुर्र' और नाशिरा शर्मा की 'इबनेमरियम' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।


संदर्भ - 

1. आमंत्रण पत्र, राष्ट्रीय संगोष्ठी - इक्कीसवीं सदी का अस्मितामूलक विकलांग विमर्श, 9 फरवरी 2024, आयोजक - हिन्दी विभाग, शासकीय जे० पी० वर्मा स्नातकोत्तर कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, बिलासपुर, छत्तीसगढ़।

2. विकलांग-विमर्श : दशा और दिशा - डॉ० विनय कुमार पाठक, भावना प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 2020 

3. हिन्दी कहानियों में विकलांग-विमर्श - डॉ० श्रवण कुमार मीणा, विकलांग विमर्श का वैश्विक परिदृश्य - संपादक डॉ० सुरेश महेश्वरी, भावना प्रकाशन, प्रथम संस्करण - 2014, पृष्ठ - 372

4. गुलकी बन्नो - धर्मवीर भारती, फेमिना ऑनलाइन पत्रिका, 29 जून 2020

5. वही

6. वही

7. स्त्री पीड़ा और बाल मनोविज्ञान की मार्मिक कथा 'गुलकी बन्नो' - पंचराज यादव, भाषा - द्विमासिक पत्रिका, जुलाई - अगस्त 2021, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय, भारत सरकार, आईएसएसएन - 0523-1418, पृष्ठ - 15, 

8. हिन्दी कहानी का इतिहास, भाग-2 - गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण - 2019, पृष्ठ - 231

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