वेश्या विमर्श की कविता : नेकचलनी की जिंदगी जी - सतेंद सिंघ किसान

 वेश्या विमर्श की कविता -

"नेकचलनी की जिंदगी जी"


काय री! कुलच्छनी

तैं औरत जात खों

काय बदनाम कर रई  

रण्डी तौ देह अकेलें नंईं, 

अपंईं मानमरजादा उर

अपनौं सबँई मानसम्मान बेचत है

कुल गोत खों पलीता लगाउत

खुदंई सगरी कौम कौ करिया मौं करतई।


तैं कबै समझेगी

तैं कबै सम्भलेगी

बाजारू होबो तोय उमदा लगत है का

या सीधीसादी भलमनसाहत की जिंदगी जीबौ

समाज बदल रयौ है

तैंऊ तौ बदल जा

आ हमरे संग्गै मिलकें

नेकचलनी सैं जी।


स्वाभिमानी बनकैं गरब कर

काय तैं साहस की जुआला है

औरत की इज्जत - आबरु

सगरी दुनिया कौ मान है।।


©️ सतेंद सिंघ किसान


भासा : कछियाई - बुंदेली

रचनाकाल : २४/०१/२०१९, ०८:०६दिन, दिल्ली

सुदार : २२/०७/२०२४, ०२:३५दिन, झाँसी

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