आस्ट्रेलिया की प्रवासी साहित्यकार शन्नो अग्रवाल की किसान विमर्श की रचना 'किसान (दोहे)' पर युवा आलोचक, किसानवादी विचारक कुशराज झाँसी की टिप्पणी
आस्ट्रेलिया की प्रवासी साहित्यकार शन्नो अग्रवाल की किसान विमर्श की रचना 'किसान (दोहे)' पर युवा आलोचक, किसानवादी विचारक कुशराज झाँसी की टिप्पणी -
"आदरणीया शन्नो अग्रवाल जी ने अपनी रचना 'किसान' (दोहे) में किसानों की संघर्षमयी जीवनगाथा को बखूबी प्रस्तुत किया है। इसमें इन्होंने किसानों की दिनचर्या, उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति के साथ ही उनके खान-पान, रहन-सहन का चित्रण किया है और अन्न ग्रहण करने वाले हर इंसान से किसानों को से मुक्ति दिलाने की तरकीब खोजने हेतु प्रेरित किया है। किसान-विमर्श की सशक्त रचना का सृजन करने हेतु शन्नो अग्रवाल जी को भौत-भौत बधाई।"
©️ कुशराज झाँसी
(युवा आलोचक, किसानवादी विचारक)
३०/११/२०२४, 7:59रात, झाँसी
शन्नो अग्रवाल की किसान विमर्श की रचना -
'किसान' (दोहे)
खेतों में बसती सदा, है किसान की जान
हरियाली को देखकर, गाने लगते गान।
ना हैं साधन आधुनिक,जीवन बड़ा बवाल
मेहनत करके खेत में, कृषक होत निढाल।
तड़के उठकर खेत में, बहा रहे हैं खून
रात-दिन मेहनत करें, खाने को दो जून।
उगा रहे सबके लिये, ये धरती पर अन्न
खाकर आधापेट ही, रहते सदा प्रसन्न।
ठाठ-बाठ ना ये करें, है मुश्किल निर्वाह
इन गरीब किसानों की, कौन करे परवाह।
चाहें घर मे मौत हो, या आँधी-बरसात
बिन विराम देते हमें, फसलों की सौगात।
साधारण भोजन करें, घर में कम सामान
ना आभूषण कीमती, सस्ते से परिधान।
उपजाते हैं ये फसल, पकने की कर आस
अकसर आती बाढ़ जब, होता सत्यानास।
खेती-बाड़ी पर जिये, इनका सब परिवार
इनकी पूँजी बैल हैं, खुशियों का संसार।
मजदूरी करनी पड़े, इनको कभी-कभार
किसी तरह से जी रहे, हैं कितने लाचार।
अधिक न शिक्षा पा सके, इनका नहीं कसूर
बेबस थे माता-पिता, पैसे से मजबूर।
बलिहारी इनकी सदा, मिलती अनुपम भेंट
इन पर निर्भर हम सभी, भरें हमारा पेट।
हमें खिलाकर अन्न ये, सदा रहें गरीब
प्रगतिशील ये भी बनें, सोचो कुछ तरकीब।
©️ शन्नो अग्रवाल
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