फुले सबके हैं - कुशराज (Phule Sabke Hain - Kushraj)

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 फुले सबके हैं

Phule Sabke Hain



भारतीय सिनेमा के इतिहास की अनोखी बदलाओकारी फिल्म फुले 25 अप्रैल को सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है लेकिन आज 27 अप्रैल तक भी क्रांतिभूमि झाँसी के किसी भी सिनेमाघर ने फुले फिल्म का एक भी शो नहीं लगाया है। हम जनप्रतिनिधियों में विशेष रूप से झाँसी लोकसभा सांसद माननीय डॉ० अनुराग शर्मा, झाँसी नगर विधायक माननीय रवि शर्मा, झाँसी-प्रयागराज शिक्षक विधायक डॉ० बाबूलाल तिवारी, अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान लखनऊ के उपाध्यक्ष एवं दर्जाप्राप्त राज्यमंत्री माननीय हरगोविंद कुशवाहा, झाँसी महापौर माननीय बिहारीलाल आर्य से आग्रह करते हैं कि झाँसी के सिनेमाघरों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और स्कूलों में फुले फिल्म दिखायी जाए। जैसे द केरला स्टोरी फिल्म झाँसी के समाजसेवी संगठनों ने अपने खर्चे पर स्कूल-कॉलेज की छात्राओं को दिखवाई थी, ठीक वैसे ही फुले फिल्म को झाँसी के जनप्रतिनिधि और समाजसेवी अपने खर्च पर झाँसी की जनता और स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राओं को दिखवाएँ। जनप्रतिनिधि सबके होते हैं, वो किसी विशेष जाति, वर्ग और धर्म के कट्टर पक्षधर नहीं होते क्योंकि वो हर जाति, वर्ग और धर्म के वोट से चुनाव जीतते है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी के जनप्रतिनिधियों को अपनी महान संकल्पना - सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास को सार्थक करने हेतु हिन्दू धर्म के तीन विशेष वर्गों किसान, दलित और महिला के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और शैक्षिक अधिकारों के लिए 19वीं सदी में हुई नई क्रांति पर बनी फिल्म फुले को भाजपाशासित देश के गाँव-गॉंव, स्कूल-कॉलेज में दिखाया जाना चाहिए। हम भारत सरकार और राज्यों सरकारों से आग्रह करते हैं कि फुले फिल्म को टैक्सफ्री करें और नया भारत - सबका भारत की संकल्पना को साकार करके बहुसंख्यक हिन्दू जनता - किसान, युवा, दलित और महिला वर्ग की एकमात्र पसंद बनें।



जिस प्रकार जनप्रतिनिधि सबके होते हैं, ठीक उसी प्रकार फुले सबके हैं। फुले ने किसी विशेष जाति, वर्ग और धर्म के कल्याण हेतु काम नहीं किया, उन्होंने हिन्दू धर्म की हर जाति पंडित, किसान, दलित की बेटियों को शिक्षा देने की शुरूआत की। साथ ही अपनी सहयोगी फातिमा शेख के साथ मिलकर मुस्लिम धर्म की शिया और सुन्नी जातियों की बेटियों को शिक्षित किया। फुले ने हिन्दू धर्म की चार जातियों पंडित, किसान, बनिया, मजदूर यानी ब्राह्मण, पिछड़े, व्यापारी, दलित में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षिक समानता लाने हेतु ब्राह्मणवाद और जातिवाद के विरुद्ध आजीवन संघर्ष किया। फुले आजीवन हिन्दू रहे, वो हिन्दू धर्म के सच्चे रक्षक थे। फुले के समय में भी हिन्दू धर्म अपनी चारों जातियों ब्राह्मण (पुरोहित), क्षत्रिय (किसान), वैश्य (बनिया) और शूद्र (दलित) में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षिक भेदभाव करता था इसलिए फुले ने भेदभाव के शिकार किसान और दलित जातियों के स्त्री-पुरुषों को धर्म परिवर्तन करके ईसाई, बौद्ध और मुस्लिम बनने से रोका और हिन्दू धर्म से असन्तुष्ट किसान और दलितों को शिक्षा देकर समानता दिलाई। भारतीय समाजसुधार आंदोलनों के अग्रदूतों में से किसान महात्मा जोतिबा फुले के विचारों और मिशन का जितना प्रभाव देश-दुनिया पर पड़ा, उतना राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती इत्यादि का नहीं। जन्म से किसान और कर्म से पंडित होते हुए फुले ने अपने किसान धर्म के दो मुख्य सिद्धांतों - सबको भोजन मिले, सबको कपड़ा मिले से प्रेरित होकर सबको समानता और सबको शिक्षा दिलाने हेतु आजीवन काम किया, जो 21वीं सदी में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में प्रतिफलित हो रहा है। 


किसान महात्मा फुले की पत्नी किसानिन सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों, स्त्रियों और समाज के हाशिए के लोगों को शिक्षा दिलाने में अग्रणी भूमिका निभाई। वह भारत की पहली महिला शिक्षिका बनीं। उन्होनें जोतिबा फुले के साथ मिलकर सन 1848 में भारत का पहला बालिका विद्यालय खोला और वो उसकी प्राचार्या बनीं। वो भारत के पहले किसान स्कूल की भी संस्थापक थीं। उन्‍होंने लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले। जिसमें से पहला और 18वाँ स्‍कूल पुणे में खोला था। किसानिन शिक्षिका सावित्रीबाई फुले ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह जिया, जिसका उद्देश्य था विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाना, स्त्रियों की मुक्ति और स्त्रियों को शिक्षित बनाना। वे एक कवियत्री भी थीं, उन्हें मराठी की आदिकवियत्री के रूप में भी जाना जाता है।


सावित्रीबाई फुले की ये पंक्तियाँ स्त्रियों को शिक्षा हेतु प्रेरित करतीं हैं और पितृसत्ता को स्त्री शिक्षा का विरोधी ठहराती हैं - आखिर कब तक तुम अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों को सहन करोगी। देश बदल रहा है। इस बदलाव में हमें भी बदलना होगा। शिक्षा का द्वार जो पितृसत्तात्मक विचार ने बंद किया है, उसे खोलना होगा। 


सावित्रीबाई फुले ने स्त्री-पुरूष समानता के लिए भी आवाज बुलन्द की। वो कहती हैं - स्त्रियाँ सिर्फ रसोई और खेत पर काम करने के लिए नहीं बनीं हैं, वे पुरुषों से बेहतर कार्य कर सकती हैं।


पंकज शुक्ल फुले फिल्म की समीक्षा करते हुए कहते हैं - फुले बहुत सारे स्कूलों में अब भी नहीं पढ़ाए जाते। देश की तमाम आबादी को पता ही नहीं कि जब महाराष्ट्र और गुजरात एक सूबा के हिस्से थे और बॉम्बे प्रेसीडेंसी कहलाते थे, तब के महाराज ने देश में पहली बार किसी को आधिकारिक रूप से महात्मा की उपाधि दी थी, मोहनदास करमचंद गाँधी के महात्मा गाँधी बनने से भी पहले।


हम भारत सरकार से विशेष आग्रह करते हैं कि फुले दम्पति को देश के हर पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाए और भारत में शिक्षा की क्रांति लाने वाले फुले दम्पति की मूर्तियाँ हर शिक्षा संस्थान में स्थापित की जाए। फुले दम्पति के जीवन संघर्ष को पाठ्यक्रम में समाहित होने और उनकी मूर्तियाँ स्थापित होने से नए भारत में भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुरूप शिक्षा की क्रांति लाने हेतु शिक्षक-शिक्षिकाएँ और छात्र छात्राएँ प्रेरित हो सकेंगे।


फुले फिल्म को महात्मा किसान जोतिबा फुले जयंती के पावन पर्व पर 11 अप्रैल 2025 को सिनेमाघरों में रिलीज होना था लेकिन महाराष्ट्र के किसान यानी पिछड़ा वर्ग विरोधी और हिन्दू धर्मसुधार विरोधी ब्राह्मण संगठनों ने आंदोलन करके फुले को रिलीज नहीं होने दिया। इन किसान विरोधी ब्राह्मण संगठनों ने सेंसर बोर्ड से कहकर फुले फिल्म से 19वीं सदी में ब्राह्मणवाद के चलते ब्राह्मणों द्वारा किसान, दलित और स्त्री वर्ग पर किए गए अत्याचारों और कुकर्मों के दृश्यों को हटवा दिया। महान किसान हिन्दू दम्पति के जीवन पर बनी फिल्म फुले का ब्राह्मणवादी हिन्दुओं द्वारा किया गया विरोध 21वीं सदी में हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी क्षति है।


फुले फिल्म भारत को पुनः विश्वगुरू के सिंहासन पर आसीन कराने में समर्थ है। फुले फिल्म महान हिन्दू धर्मसुधारक, भारत में किसान-दलित और महिला अधिकार आंदोलन के अग्रदूत, महिला शिक्षा के लिए जीवन समर्पित करने वाले आदर्श दम्पति राष्ट्रपिता महात्मा किसान जोतिबा फुले और शिक्षा की देवी राष्ट्रमाता किसानिन सावित्रीबाई फुले की संघर्षगाथा है। जो हर भारतीय को समाज सुधार हेतु प्रेरणा देती है, नए भारत के संकल्पों को साकार करने की शक्ति देती है। आदर्श प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी कहते हैं कि भारत में सबसे बड़ी चार जातियाँ हैं किसान, युवा, गरीब और महिला। इन चारों जातियों का कल्याण करना हमारा परम ध्येय है। फुले फिल्म इन्हीं चार जातियों के अतीत, वर्तमान और भविष्य को दिखाती है, उनकी समस्याओं और समाधानों दिखाती है। किसान, युवा, गरीब और स्त्री जाति में वर्ग चेतना जगाती है। देश की 90 प्रतिशत जनसंख्या उक्त चार जातियों की ही है। इसलिए इन चारों जातियों के सशक्तिकरण बिना भारत विश्वगुरू नहीं बन सकता।

 ।। जै जै किसान ।।

 ।। जै जै फुले ।।

©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज'

(इतिहासकार - सीसीआरटी, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार)

झाँसी, अखंड बुंदेलखंड

ईमेल - kushraazjhansi@gmail.com

ब्लॉग - कुसराज की आबाज

संपर्क सूत्र - 9569911051


चित्र : झाँसी से प्रकाशित बुंदेलखंड के लोकप्रिय दैनिक समाचारपत्र 'वीरांगना झाँसी न्यूज' में 29 अप्रैल 2025 को झाँसी के सिनेमाघरों में फुले फिल्म दिखाए जाने की सरकार से माँग करता वैचारिक लेख 'फुले सबके हैं' प्रकाशित


चित्र : झाँसी में फुले फिल्म की रिलीज की माँग की खबर दैनिक समाचारपत्र 'तरुण मित्र' में 29 अप्रैल 2025 को प्रकाशित

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