गृहस्थ जीवन में रहकर महात्मा बनने की प्रेरणा देता है रिछारिया जी का परिव्राजक - कुशराज
पुस्तक समीक्षा
गृहस्थ जीवन में रहकर महात्मा बनने की प्रेरणा देता है रिछारिया जी का परिव्राजक
पुस्तक - परिव्राजक
लेखक - ओमप्रकाश रिछारिया
विधा - उपन्यास
भाषा - हिन्दी
प्रकाशन - सन 2023
प्रकाशक - रेडविक बुक पब्लिशर एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर, झाँसी
आईएसबीएन - 978-93-91915-30-8
मूल्य - ₹750
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ओमप्रकाश रिछारिया जी द्वारा लिखित परिव्राजक उपन्यास अपनी अनोखी कथा के कारण कई वर्गों में रखा जा सकता है। इसे हम रहस्यवादी के साथ ही मनोवैज्ञानिक, व्यक्तिवादी, जीवनीपरक एवं आत्मकथात्मक उपन्यास मानते हैं। जो बुंदेलखंडी युवा का सन्यासी होकर आध्यात्मिक जगत में अपना पृथक अस्तित्व स्थापित करने की प्रकृति पर केंद्रित है। इसमें भारतीय और पाश्चात्य दार्शनिकों के आध्यात्मिक चिंतन पर पर्याप्त विचार-विमर्श हुआ है।
एक ओर, यह उपन्यास रिछारिया जी की युवावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक की आत्मकथा है तो वहीं दूसरी ओर, स्वामी शरणानंद सरस्वती की जीवनी। परिव्राजक में स्वामी जी के जिस आश्रम का उल्लेख हुआ है, वो रिछारिया जी की कर्मभूमि बरूआसागर का स्वर्गाश्रम झरना स्थित स्वामी शरणानंद सरस्वती का आश्रम ही है, जिसके आध्यात्मिक आकर्षक और प्राकृतिक सौंदर्य का चित्रण रिछारिया जी ने भलीभाँति किया है। प्रकृति की गोद में आसीन होने के कारण ही बरूआसागर बुंदेलखंड का कश्मीर है। एक समय में स्वामी जी के स्वर्गाश्रम झरना से निकली आध्यात्मिक धारा ने देश में सामाजिक चेतना जगाई थी, जिसका स्थान वर्तमान में सिद्धपीठ मंसिल माता मंदिर ने ले लिया है। हम इसे आत्मकथात्मक उपन्यास इसलिए मानते हैं क्योंकि कथा में रमाशंकर नामक नवयुवक के रूप में उपन्यासकार रिछारिया जी ही प्रतीत होते हैं। इसके साथ ही रिछारिया जी ने अपने दो परममित्रों डॉ० उदय त्रिपाठी और राधारमण नौगरिया का विशेष वर्णन किया है।
इसमें रमाशंकर नामक नवयुवक श्यामलाल मिश्रा उपाख्य स्वामी शारदानंद जी के झाँसी स्थित आश्रम में जाकर उनसे उनके आध्यात्मिक आभा मंडल का जनजीवन पर प्रभाव के रहस्य को जानना चाहता है। बुंदेलखंड के सागर निवासी स्वामी जी के पिताजी सतनाम मिश्रा गुरूकुल में आचार्य थे। स्वामी जी की माँ उनको स्वामी विवेकानंद के रूप में देखती थी। वो कहती थीं कि तुम एक दिन स्वामी विवेकानंद की तरह भारत देश का नाम ऊँचा करोगे। विवेकानंद जैसा महापुरुष बनने के दृढ़ संकल्प के चलते स्वामी जी अपने मन में सन्यासी और गृहस्थ जीवन को लेकर चल रहे द्वंद का समाधान जानने हेतु अल्मोड़ा स्थित विवेकानंद आश्रम जाते हैं तो वहाँ के गुरूजी उन्हें घर वापिस जाकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने और अपने परिवार का सहयोग करने की अमूल्य मंत्रणा देते हैं। गुरूजी कहते हैं कि यदि तुम्हें विवेकानंद जैसा बनना है तो संस्कृत के साथ ही हिन्दी और अंग्रेजी भाषा - साहित्य का गहन अध्ययन करो और साथ ही विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र आदि विषयों को पढ़ो। क्योंकि वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए ही हमें अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए।
परिव्राजक में आधुनिक शिक्षा पद्धति पर आधारित उच्च शिक्षा की उपयोगिता सिद्ध की गई है। यह उपन्यास धार्मिक पर्यटन की महत्त्वता को प्रतिपादित करते हुए धार्मिक यात्रा के दौरान आने वाली कठिनाईयों को सामने लाता है। इसमें पत्नी जीवनसाथी के साथ ही गुरू और मित्र भी होती है, ये बात सप्रमाण स्पष्ट की गई है। साथ ही स्त्री-शिक्षा और महिला-सशक्तिकरण की वकालत की गई है।
यह उपन्यास लेखक / लेखिका और विश्वविद्यालय में आचार्य / प्रोफेसर बनने की प्रेरणा भी देता है। साथ ही लेखक / लेखिका और प्रोफेसर बनने की प्रक्रिया को भी समझाता है। इसमें विश्वविद्यालयी जीवन और उसका व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव भी प्रदर्शित किया गया है। इसमें रिछारिया जी ने समाजशास्त्र की अनोखी उद्घोषणा की है कि हमारा अपना परिवार ही हमारी समझ, सामाजिक संबंधों की प्रथम पाठशाला है।
इसमें विवेकानंद दर्शन की अनोखी विवेचना की गई है। विवेकानंद दर्शन से सात्विक जीवन जीने की राह दिखलाई गई है। स्वामी विवेकानंद ने धर्म की सटीक व्याख्या करते हुए लिखा है - धर्म का अर्थ है प्रत्यक्ष अनुभूति। इसमें तीन आश्रमों के आध्यात्मिक वातावरण यथा - महर्षि अरविंद घोष के आश्रम, महर्षि रमण के आश्रम और संत विनोबा भावे के आश्रम का सजीव चित्रण हुआ है। इसमें आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन की कठिनाइयों की सार्थक विवेवना करते हुए सामाजिक जीवन को श्रेष्ठ बताया गया है। इसके साथ ही भारतीय ज्ञान परंपरा में प्रचलित गुरू-शिष्य परंपरा की श्रेष्ठता सिद्ध की गई है।
इस उपन्यास में सनातन संस्कृति को आत्मसात किए हुए वैज्ञानिक युग के अनुरूप आधुनिक जीवनशैली अपनाने पर बल दिया गया है। क्योंकि हमारी सनातन संस्कृति के प्रतिपादक हिन्दू धर्म के आदिग्रंथ वेद में वर्णित सामाजिक-आध्यात्मिक जीवन के प्रसंग पूर्णतः वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित हैं। जिसकी व्याख्या स्वामी जी के आश्रम पर हुए संत सम्मेलन में की जाती है। हमारे वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में उत्कृष्ट आधुनिक जीवनशैली वाला समाज कैसा होना चाहिए, यही सब वर्णित है। वर्तमान में अखंड विश्व में जलवायु परिवर्तन से जन्मे पर्यावरण संकट से मुक्ति पाने के उपाय खोजे जा रहे हैं तो वहीं हम हिन्दू धर्मावलंबी हजारों वर्षों से लोक संस्कृति की परंपरा का निर्वाह करते हुए प्रकृति की संतानों - पीपल, बरगद जैसे पेड़ों, तुलसी, कुश, गेहूँ, चना, गन्ना जैसे पौधों, गाय, बैल, सांड, बकरा, बकरी, घोड़ा, हाथी जैसे पशुओं, सर्प, बिच्छू जैसे सरीसृपों, नदी, झरनों, ताल, सागरों को माँ, संरक्षक, पुरखे आदि मानकर विभिन्न पर्व-त्यौहारों पर पूजते आ रहे हैं और पर्यावरण संरक्षण का संदेश अखंड विश्व को देते आ रहे हैं। उक्त प्रकृति की संतानों की पूजा किसान - वनवासी ही सवार्धिक करते हैं इसलिए किसान - वनवासी ही पर्यावरण के सच्चे प्रहरी हैं और प्रकृति के संरक्षक हैं। किसान - वनवासी ही लोक और वेद के सच्चे पोषक हैं।
सहज, संस्कृतनिष्ठ, परिमार्जित हिन्दी भाषा और चित्रात्मक एवं विवेचनात्मक शैली में लिखित कथानायक श्याम और उनकी पत्नी उर्मिला के सार्थक गृहस्थ जीवन के माध्यम से रिछारिया जी का परिव्राजक उपन्यास गृहस्थ जीवन में रहकर महात्मा बनने की प्रेरणा देता है इसलिए नई पीढ़ी को स्वामी विवेकानंद, महात्मा जोतिबा फुले, महामहिला सावित्रीबाई फुले, राजा राममोहन राय, महात्मा गाँधी, विनोबा भावे जैसे महात्मा बनने हेतु परिव्राजक उपन्यास अवश्य पढ़ना चाहिए और पुरानी पीढ़ी को सन्यास आश्रम का महत्त्व समझने हेतु इसे अवश्य पढ़ना चाहिए।
समीक्षक
© किसान गिरजाशंकर कुशवाहा ‘कुशराज’
(सहायक आचार्य - हिन्दी विभाग, डॉ० आर० पी० रिछारिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बरूआसागर, झाँसी)
धनतेरस, 18 अक्टूबर 2025,
जरबौगॉंव, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड
मो० - 9569911051, 8800171019
ईमेल - kushraazjhansi@gmail.com
ब्लॉग - kushraaz.blogspot.com
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