Monday 24 June 2024

बुंदेलखंड़ विश्वविद्यालय झाँसी की छात्रा किसान की बेटी बहिन संजना कुशवाहा का शिक्षा व्यवस्था ने गला घोंटा - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी' (बुंदेलखंड की जनता का वकील)

#संजनाकुशवाहाकोन्यायदो

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*** बुंदेलखंड़ विश्वविद्यालय झाँसी की छात्रा किसान की बेटी बहिन संजना कुशवाहा का शिक्षा व्यवस्था ने गला घोंटा ***


जै जै बुंदेलखंड़ साथियों!

21 जून 2024 की सुबह जब सारी दुनिया अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर शारिरिक और मानसिक विकारों से मुक्ति के लिए और निरोगी जीवन जीने के लिए योग कर रही थी तभी झाँसी के बड़ागांव थाना क्षेत्र के बराठा गॉंव में भ्रष्ट व्यवस्था की शिकार, मानसिक तनाव से पीड़ित युवती, बुंदेलखंड़ विश्वविद्यालय झाँसी की छात्रा किसान की बेटी, बहिन संजना कुशवाहा फाँसी के फंदे पर झूल रही थी। 



हम सब बहिन संजना कुशवाहा की मौत से बहुत दुःखी हैं। संजना की मौत के जिम्मेदार बुंदेलखंड़ विश्वविद्यालय, समाज कल्याण विभाग और प्रशासनिक अधिकारी हैं।


बीते शुक्रवार की सुबह 18 वर्षीय गरीब किसान कालका प्रसाद कुशवाहा की बेटी, छात्रा संजना कुशवाहा की लाश पेड़ पर लटकी मिली। संजना बुंदेलखंड विश्वविद्यालय परिसर से स्पोर्ट्स कोर्स बी०पी०ई०एस० की पढ़ाई कर रही थी और साथ में एनसीसी कैडेट भी थी। घर की आर्थिक हालत खराब थी, इसलिए बेटी ने बजीफा का फार्म भरा था ताकि वो अपनी पढ़ाई जारी रख सके। वो बजीफा (स्कॉलरशिप) के लिए सरकारी तंत्र से परेशान बहुत थी। पिछले कई महीनों से वह सहायता के लिए अधिकारियों के चक्कर काट रही थी, लेकिन उसे कहीं से कोई मदद नहीं मिली और भ्रष्ट व्यवस्था की त्रस्त होकर उसने आत्महत्या कर ली।




संजना का सुसाइड नोट शिक्षा व्यवस्था की सच्चाई बयाँ करता है और उसमें हर वंचित छात्र-छात्रा का दर्द झलकता है। सुसाइड नोट में लिखा है - "मैं यह नोट इसलिए लिख रही हूँ ताकि पता चल सके कि मैंने यह कदम क्यों उठाया। मेरी स्कॉलरशिप 28 हजार रुपए आनी थी, लेकिन नहीं आई। कॉलेज में सबकी आ चुकी है। इसके लिए विकास भवन झाँसी तक हो आई। उन्होंने बोला कि तुम्हारा आधार कार्ड फीडिंग नहीं है। मैंने वापस आकर देखा तो बैंक वालों ने बोला कि आधार फीडिंग है। साइबर कैफे पर चैक करवाया तो पता चला कि दो महीने में आ जाएगी। मैं विकास भवन मम्मी के साथ गई। उनकी तबीयत खराब थी, लेकिन मैं उन्हें लेकर गई। दो महीने से ज्यादा हो गए, लेकिन छात्रवृत्ति नहीं आई तो हमें अंदर से घुटन होने लगी। हमने बहुत मेहनत की थी और हमारी नहीं आई। हो सके तो माफ कर देना, इस कदम के लिए... संजना"




समाज कल्याण विभाग के अधिकारियों की गलत नियत और उनके झूठे वादों ने संजना की जान ली है। बहिन संजना कुशवाहा ने आत्महत्या नहीं की है बल्कि शिक्षा व्यवस्था ने उसका गला घौंटकर हत्या की है।


संजना की आत्मा को शांति तभी मिलेगी जब हम सब छात्र-छात्राएँ, छात्रनेता और छात्र-संगठन मिलकर आंदोलन करके बहिन संजना को न्याय दिलाएँगे। दिवंगत छात्रा संजना के परिवार को बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छात्र कल्याण प्रकोष्ठ / संचित निधि से कम से कम 20 लाख, उत्तरप्रदेश सरकार भी कम से कम 20 लाख और केन्द्र सरकार कम से कम 30 लाख की आर्थिक सहायता दें और संजना के साथ न्याय करें।


जिलाधिकारी झाँसी ने संजना कुशवाहा छात्रवृत्ति मामले में जॉंच के आदेश दिए हैं और जाँच की जिम्मेदारी नगर मजिस्ट्रेट झाँसी को सौंपी है, उन्हें बुंदेलखंड़ विश्वविद्यालय, समाज कल्याण विभाग और संबंधित बैंक से छात्रवृत्ति के मामले में तथ्य जुटाकर जाँच करके एक सप्ताह में रिपोर्ट सौंपने को कहा है। 


प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बुंदेलखंड़ विश्वविद्यालय, समाज कल्याण विभाग और संबंधित बैंक संजना की मौत के जिम्मेदार हैं। इन्हें अपनी गलती स्वीकारने चाहिए और संजना के परिवार को आर्थिक सहायता की तत्काल घोषणा करनी चाहिए।


आखिर कब तक बुंदेलखंड़ के अन्याय होता रहेगा ? आखिर कब तक हम सब अत्याचार को सहते रहेंगे ? आखिर कब तक हम सब चुप बैठें रहेंगे ? आखिर कब तक मोदी की चार जातियों गरीब, युवा, किसान और महिला के साथ न्याय होगा, उन्हें उनके अधिकार मिलेंगे। मोदी जी के गरीब किसान की युवा बेटी मारी गई है इसलिए अखंड बुंदेलखंड़ दुःखी है। प्रधानमंत्री मोदी जी से निवेदन है कि संजना के परिवार को तत्काल 50 लाख आर्थिक मदद की घोषणा करें। 


'हमारे सपनों का अखंड बुंदेलखंड' में बहिन संजना जैसा कदम कोई नहीं उठाए। जो व्यवस्था हमारी छात्र शक्ति, युवा शक्ति और नारी शक्ति को आत्मघाती कदम उठाने को मजबूर करेगी, उस व्यवस्था को पटल देंगे और व्यवस्था में लिप्त लोगों को फाँसी की सजा होगी।


बहिन संजना कुशवाहा को भावपूर्ण श्रद्धांजलि 🙏🙏🙏😭😭😭


©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा

 'कुशराज झाँसी'

(बुंदेलखंड की जनता का वकील)

23/06/2024_10:55रात _ झाँसी

(पुस्तक - 'हमारे सपनों का अखंड बुंदेलखंड' से.....)


https://www.bhaskar.com/amp/local/uttar-pradesh/jhansi/news/city-magistrate-to-investigate-student-suicide-case-133214169.html


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Sunday 23 June 2024

शोधपत्र - बुंदेली भाषा की राजनीति : एक पड़ताल - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी', एड० अर्चना मिश्रा

 शोधपत्र - बुंदेली भाषा की राजनीति : एक पड़ताल  


©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 

      'कुशराज झाँसी'

(शोधार्थी - हिन्दी विभाग, बुंदेलखंड़ महाविद्यालय, झाँसी)

ईमेल - kushraazjhansi@gmail.com

पता - नन्नाघर, जरबौ गॉंव, बरूआसागर, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड़ (284201)


©️ एड० अर्चना मिश्रा

(पूर्व छात्रा - विधि विभाग, बुंदेलखंड़ महाविद्यालय, झाँसी)

ईमेल - archanaishumishra@gmail.com

पता - गरौठा, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड़ (284203)


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शोधसार - बुंदेली भाषा बुंदेलखंड में बोली जाने वाली मुख्य भाषा है। इसे बुंदेलखंडी के नाम से भी जाना जाता है। बुंदेलखंड़ को हम लोग 'अखंड बुंदेलखंड' मानते हैं। बुंदेली का  विकास अपभ्रंश भाषा से 10वीं सदी में हुआ। 12वीं सदी में जगनिक द्वारा रचित आल्हा चरित (परमाल रासो) को बुंदेली का पहला महाकाव्य और जगनिक को पहला कवि माना जाता है। बुंदेली की लगभग 25 बोलियाँ प्रचलित हैं। भाषा की राजनीति का एक अपना इतिहास है। भाषा की राजनीति सदियों से होती चली आ रही है। समकालीन वैश्विक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय परिदृश्य को देखकर यही लगता है कि भाषा के नाम पर राजनीति सदियों तक होती भी रहेगी। बुंदेली भाषा की राजनीति करने करने वालों में स्थानीय नेता से लेकर राष्ट्रीय नेता समेत प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी भी शामिल हैं और इस भाषायी अस्मिता की लड़ाई और राजनीतिक चेतना में लेखक और पत्रकार मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। भाषा और संस्कृति के संरक्षण और विकास में राजनीति और सरकार का पुरातन काल से लेकर आज तक अहम योगदान रहा है इसलिए भाषा की राजनीति होती है। उसी क्रम में बुंदेली भाषा की राजनीति होती आ रही है और जब तक बुंदेली भाषा भारत के संविधान 'भारत विधान' की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हो जाती और अखंड बुंदेलखंड़ की राजभाषा नहीं बन जाती, तब तक बुंदेली भाषा की राजनीति होती रहनी चाहिए।


कुंजी शब्द - बुंदेली भाषा, बुंदेलखंडी, बुंदेलखंड़, अखंड़ बुंदेलखंड़, बुंदेली भाषा की राजनीति, राजनीति, बुंदेलखंड राज्य, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, संविधान, भारत विधान, राजभाषा, आठवीं अनुसूची।


प्रस्तावना - बुंदेली भाषा बुंदेलखंड में बोली जाने वाली मुख्य भाषा है। इसे बुंदेलखंडी के नाम से भी जाना जाता है। बुंदेलखंड़ को हम लोग 'अखंड बुंदेलखंड' मानते हैं। बुंदेली का  विकास अपभ्रंश भाषा से 10वीं सदी में हुआ। 12वीं सदी में जगनिक द्वारा रचित आल्हा चरित (परमाल रासो) को बुंदेली का पहला महाकाव्य और जगनिक को पहला कवि माना जाता है। ध्यान रहे कि बुंदेलखंड में आल्हा गायन के ऐतिहासिक परंपरा के कारण आल्हा विश्व की सबसे बड़ी लोकगाथाओं में आज भी सुशोभित हो रहा है। बुंदेली की लगभग 25 बोलियाँ प्रचलित हैं। बुंदेली भाषा-भाषी क्षेत्र के बारे में हमारी (कुशराज) ये अवधारणा है - " बुंदेली भाषा-भाषियों की जनसंख्या दस-बारह करोड़ है। बुंदेली भाषा-भाषी प्रदेश 'अखंड बुंदेलखंड' में उत्तर प्रदेश के आठ जिले - झाँसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, महोबा, बाँदा, चित्रकूट, फतेहपुर और मध्य प्रदेश के चौबीस जिले - टीकमगढ़, निवाड़ी, सागर, पन्ना, छतरपुर, दमोह, जबलपुर, दतिया, शिवपुरी, गुना, अशोकनगर, ग्वालियर, भिंड, मुरैना, श्योपुर, विदिशा, भोपाल, नरसिंहपुर, नर्मदापुरम, रायसेन, सीहोर, छिंदवाड़ा, सिवनी, बालाघाट आदि आते हैं। इन्हीं बत्तीस जिलों को हम मानक बुंदेली भाषा-भाषी क्षेत्र मानते हैं।"¹


इस अवधारणा में हमने बुंदेली भाषा-भाषी क्षेत्र के अन्तर्गत उन जिलों को रखा है, जहाँ आम जनता दैनिक बोलचाल से लेकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों आदि में बुंदेली भाषा का प्रयोग करती है और भोपाल जैसे जिलों को इस कारण बुंदेली भाषा-भाषी क्षेत्र माना है क्योंकि कई दशकों से वहाँ बुंदेली भाषा के विकास और संरक्षण हेतु वैश्विक स्तर पर काम हो रहा है।

 

यदि हम बुंदेली की बोलियों की बात करें तो "'बुंदेली भाषा-भाषी क्षेत्र दर्शन' के अन्तर्गत आलोचक डॉ० राम नारायण शर्मा जनपदीय क्षेत्र विशेष और जाति विशेष में बुन्देली भाषा के नाम का उल्लेख करते हैं, जिन्हें हम (कुशराज) बुंदेली की बोलियाँ मानते हैं। उनके अनुसार अग्रलिखित बारह बोलियाँ हैं - शिष्ट हवेली, खटोला, बनाफरी, लुधियातीं, चौरासी, ग्वालियरी, भदावरी, तवरी, सिकरवारी, पवांरी, जबलपुरी, डंगाई। जबकि बुंदेलखंड में रहने वाले वाली जातियों की अपनी-अपनी बोलियाँ हैं। जातियों के आधार पर बुंदेली की प्रमुख बोलियाँ और उनकी जातियाँ इस प्रकार हैं -  कछियाई (काछी/कुशवाहा), ढिमरयाई (ढीमर/रायकवार), अहिरयाई (अहीर/यादव), धुबियाई (धोबी/रजक), लुधियाई (लोधी/राजपूत), बमनऊ (बामुन/ब्राह्मण/पंडित), किसानी (किसान), बनियाऊ (बनिया/व्यापारी), ठकुराऊ (ठाकुर/बुंदेला), चमरयाऊ (चमार/अहिरवार), गड़रियाई (गड़रिया/पाल), कुमरयाऊ या कुम्हारी (कुम्हार/प्रजापति), कलरऊ (कलार/राय), बेड़िया (बेड़नी/आदिवासी) आदि। यद्यपि लुधियातीं और लुधियाई बोली एक ही है इसलिए डॉ० रामनारायण शर्मा द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त बारह (12) बोलियाँ और हमारे द्वारा प्रस्तुत तेरह (13) बोलियाँ मिलाकर बुन्देली भाषा की 25 बोलियाँ मुख्य रूप से प्रचलित हैं। इनके अलावा भी बोलियाँ हैं, जिनका अभी संज्ञान में आना अपेक्षित है।"²


इस प्रकार हम लोग मानते हैं कि हर भाषा किसी क्षेत्र या राज्य या राष्ट्र विशेष की मातृभाषा और उसकी संस्कृति की संवाहिका होती है। यदि भाषा विलुप्त हो जाती है तो वहाँ की संस्कृति भी विलुप्त हो जाती है। इसलिए यदि हमें दुनिया और भारत देश को बहुभाषायी और बहुसांस्कृतिक बनाए रखना है तो हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी भाषा को जीवित रखना होगा और उसका संरक्षण करके उसके ज्ञान-विज्ञान के विविध क्षेत्रों में विकसित होने के द्वार खोलने होंगे। भाषा और संस्कृति के संरक्षण और विकास में राजनीति और सरकार का पुरातन काल से लेकर आज तक अहम योगदान रहा है इसलिए भाषा की राजनीति होती है। उसी क्रम में बुंदेली भाषा की राजनीति होती आ रही है और जब तक बुंदेली भाषा भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल  नहीं हो जाती और अखंड बुंदेलखंड़ की राजभाषा नहीं बन जाती, तब तक बुंदेली भाषा की राजनीति होती रहनी चाहिए। हम दोनों 'भारत के संविधान' को 'भारत विधान' नाम देना उचित समझते हैं क्योंकि जैसे अंग्रेजों के बनाए कानून इंडियन पीनल कोड को बदलकर 'भारतीय न्याय संहिता' बनाई गई और अंग्रेजों की दासता की निशानी मिटाई गई। वैसे ही नए भारत में तथाकथित दलित वर्ग / बहुजन वर्ग व्यक्ति विशेष को संविधान का जनक बताता है जबकि संविधान निर्माण समिति में अनेक नीतिनिर्माता थे। उन सबको उनका सम्मान मिल सके। इसके लिए सरकार को संविधान का नाम बदलकर 'भारत विधान' रखकर नया इतिहास रचना चाहिए।


बुंदेली भाषा की राजनीति - भाषा की राजनीति का एक अपना इतिहास है। भाषा की राजनीति सदियों से होती चली आ रही है। समकालीन वैश्विक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय परिदृश्य को देखकर यही लगता है कि भाषा के नाम पर राजनीति सदियों तक होती भी रहेगी। 

भारतीय संदर्भ में भाषा की राजनीति की पड़ताल हमने (कुशराज झाँसी) अपने लेख 'भाषा की राजनीति' में इस प्रकार की है - "भारत की आजादी के बाद जब राज्यों का पुर्नगठन हो रहा था तब भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन उचित है या नहीं, इसकी जाँच के लिए संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने इलाहाबाद संविधान सभा के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश एस० के० धर की अध्यक्षता में एक चार सदस्यीय आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग ने भाषा के आधार पर राज्यों के पुर्नगठन का विरोध किया और प्रशासनिक सुविधाओं के आधार पर राज्यों के पुर्नगठन का समर्थन किया। और फिर धर आयोग के निर्णयों की परीक्षा करने के लिए कांग्रेस कार्य समिति ने अपने जयपुर अधिवेशन में जवाहर लाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और पट्टाभि सीतारमैय्या की एक समिति का गठन किया। इस समिति ने भाषायी आधार पर राज्यों पुर्नगठन की माँग को खारिज कर दिया। नेहरू, पटेल एवं सीतारमैय्या (जे०वी०पी० समिति) समिति की रिपोर्ट के बाद मद्रास राज्य के तेलगू-भाषियों ने पोटी श्री रामुल्लू के नेतृत्व में आन्दोलन छेड़ दिया और 56 दिन के आमरण अनशन के बाद 15 दिसम्बर 1952 ई० को रामुल्लू की मृत्यु हो गई। रामुल्लू की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने तेलगूभाषियों के लिए पृथक 'आन्ध्र प्रदेश' के गठन की घोषणा कर दी। 01 अक्टूबर 1953 ई० को आन्ध्र प्रदेश राज्य का गठन हो गया। यह राज्य स्वतंत्र भारत में भाषा के आधार पर गठित होने वाला पहला राज्य था। उस समय आन्ध्रप्रदेश की राजधानी कर्नूल थी। इसी प्रकार 01 मई 1960 ई० को मराठी और गुजराती भाषियों के बीच संघर्ष के कारण बम्बई राज्य का बंटवारा करके महाराष्ट्र एवं गुजरात नामक दो राज्यों की स्थापना की गई। और 01 नवम्बर 1966 ई० को पंजाब को विभाजित करके पंजाब (पंजाबी भाषी) एवं हरियाणा (हिन्दी भाषी) दो राज्य बना दिए गए।"³


'भाषा की राजनीति' नामक लेख में ही 'बुंदेली भाषा की राजनीति' विषय पर इस तरह प्रकाश डालने का प्रयास किया है  - "आज भी भाषा की राजनीति बहुत हो रही है। पूर्वांचल क्षेत्र के भोजपुरीभाषी भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूचि में सम्मिलित कराने हेतु आन्दोलन कर रहें हैं और वहीं दूसरी ओर बुन्देलीभाषी तो पृथक बुन्देलखण्ड राज्य की माँग कर रहे हैं।"⁴


बुंदेली भाषा की राजनीति करने करने वालों में स्थानीय नेता से लेकर राष्ट्रीय नेता यहाँ तक प्रधानमंत्री भी शामिल हैं और इस भाषायी अस्मिता की लड़ाई और राजनीतिक चेतना में लेखक और पत्रकार मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। जिनके बारे में हम यहाँ विवेचन कर जा रहे हैं।


राष्ट्रीय स्तर पर बुंदेली भाषा की राजनीति और राजनीति में बुंदेली के प्रथम प्रयोग के साक्ष्य हमें बुंदेली की पहली पत्रिका 'मधुकर' के सन 1943 में प्रकाशित अंक 'बुंदेलखंड प्रांत निर्माण विशेषांक' में मिलते हैं। जिसके संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी जी थे।⁵


इसी क्रम हम पाते देखते हैं कि 21वीं सदी बुंदेली भाषा की राजनीति में मील का पत्थर साबित हुई है क्योंकि सूचना क्रांति के इस युग में सोशल मीडिया के माध्यम से हर कोई अपनी आवाज दुनिया के हर कोने तक पहुँचा पा रहा है इसलिए बुंदेलखंड़ की जमीनी हकीकत से जुड़े छात्रनेता और युवा लेखक कुशराज झाँसी उर्फ सतेंद सिंघ किसान बुंदेली और बुंदेलखंड के हक में समय-समय पर सोशल मीडिया और ब्लॉग के माध्यम से आवाज उठाते रहे हैं। उन्होंने 09 दिसंबर 2019 को अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा था - "बुन्देलखण्ड राज्य निर्माण हो...बुन्देली भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो… हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की भाषा हिन्दी हो...।"⁶

फिर उन्होंने 13 जनवरी 2020 को अपने ब्लॉग 'कुसराज की आबाज' पर 'बुंदेली बुंदेलखंड आंदोलन' के अंतर्गत लिखा - "बुंदेली हमाई मातभासा हैगी, इए सम्मान और सांबिधानिक अधकार दिलाबो हमाओ फरज बनत...।"⁷ इसके बाद उन्होंने फिर से  24 जुलाई 2020 को 'अखंड बुंदेलखंड महाँपंचयात' संगठन की स्थापना करके अपनी ई-पत्रिका 'अखंड बुंदेलखंड़' में आवाज उठाई -


 " जब तेलगू भासियन के लानें आंध्रा और तेलंगाना राज्ज

तमिलन के लानें तमिलनाडु

मराठियन के लानें महारास्ट्र

गुजरातियन के लानें गुजरात

बंगालियन के लानें बंगाल

तो बुंदेलखंडियन के लानें अखंड बुंदेलखंड काय नईं?

बुंदेली भासियन के लानें अखंड बुंदेलखंड राज्ज बनें चज्जे और उते की राजभासा बुंदेली-किसानी...।"⁸


बुंदेलीभाषी राज्य बुंदेलखंड के बारे में हम लोग 30 अक्टूबर 2020 को जागरण न्यूज पोर्टल पर प्रकाशित पत्रकार राजेश शर्मा की रिपोर्ट '64 साल पहले खत्म हुआ था बुन्देलखण्ड राज्य का अस्तित्व' में बहुत जरूरी तथ्य पाते हैं, जो इस प्रकार हैं -  स्वतंत्र भारत में जब राज्यों का गठन हुआ तब संविधान सभा ने 12 मार्च सन 1948 को बुंदेलीभाषी राज्य 'बुंदेलखंड' का गठन किया। जिसकी राजधानी नौगांव (छतरपुर) रही और कामना प्रसाद सक्सेना मुख्यमंत्री रहे। 8 साल 7 माह तक बुंदेलखंड राज्य का अस्तित्व बना रहा और 31अक्टूबर 1956 को बुंदेलखंड़ के कुछ जिलों का उत्तर प्रदेश और कुछ जिलों का मध्य प्रदेश में विलय कर दिया गया।⁹


इस प्रकार सन 1956 के बाद से ही बुंदेलीभाषी अपनी भाषा और संस्कृति की अस्मिता की रक्षा हेतु पृथक बुंदेलखंड राज्य निर्माण हेतु आंदोलन करते आ रहे हैं। यह आंदोलन आज भी जारी है। बुंदेलखंड राज्य निर्माण हेतु प्रयासरत आंदोलनकारी एवं बुंदेलखंड क्रान्ति दल के अध्यक्ष सत्येन्द्र पाल सिंह कहते हैं - "प्राचीन काल में भी बुन्देलखण्ड का अस्तित्व रहा है। तब देश में 16 महाजनपद थे, जिसमें बुन्देलखण्ड राज्य था, जिसे 'चेदी' नाम से जाना जाता था। आजाद भारत में भी 8 साल 7 माह तक बुन्देलखण्ड राज्य रहा है। चूँकि फजल अली आयोग ने भाषा के आधार पर राज्य बनाने की सहमति दी थी, पर इसके बाद कोई आयोग का गठन नहीं किया गया। तब 14 राज्य व 6 केन्द्र शासित प्रदेश थे, जबकि अब 28 राज्य व 8 केन्द्र शासित प्रदेश हैं। सरकारों ने नए 10 राज्य किस आधार पर बनाए, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।"¹⁰


इसी प्रकार बुंदेलखंड़ के जीवंत विश्वकोश कहे जाने वाले विद्वान और राजनेता हरगोविन्द कुशवाहा कहते हैं - "बुन्देलखण्ड की संस्कृति सबसे प्राचीन है। आजादी के बाद विन्ध्य प्रान्त में बुन्देलखण्ड राज्य का अस्तित्व भी था। साढ़े आठ साल बाद राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर बुन्देलखण्ड राज्य को उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के बीच बाँट दिया गया। इसके बाद से ही अलग राज्य की माँग की जा रही है।"¹¹


बुंदेली भाषा के संवैधानिक अधिकारों के आंदोलन और बुंदेली भाषा की राजनीति करने वालों नेताओं और बुंदेलीभाषी जनता को मनमंदिर में अपनी अमिट छवि स्थापित करने हेतु 29 फरवरी 2020 को भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार की महत्त्वाकांक्षी परियोजना 'बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे' के शिलान्यास के अवसर पर चित्रकूट में जनसभा को बुंदेली भाषा में संबोधित करते हुए यशस्वी प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी ने कहा - "चित्रकूट में राम जी अपने भाई लखन और सिया जी के साथ इतईं निवास करत हैं। जासैं हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तपोस्थली में आप सभई को अभिनंदन करत हौं"¹²


इसके बाद 1857 की क्रांति यानी प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अग्रदूत झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई की जयंती के उपलक्ष्य में 19 नवंबर 2021 को अखंड बुंदेलखंड़ की प्रस्तावित राजधानी झाँसी में राष्ट्र रक्षा समर्पण पर्व के अवसर पर यशस्वी प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी बुंदेली भाषा से अपना संबोधन देकर बुंदेली भाषा के संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति मार्ग में आ रही बाधाओं को दूर करने का संदेश दिया। उन्होंने अपना संबोधन इस प्रकार शुरू किया - "जौन धरती पै हमाई रानी लक्ष्मीबाई जू ने, आजादी के लाने, अपनो सबई न्योछार कर दओ, वा धरती के बासियन खों हमाऔ हाथ जोड़ के परनाम पौंचे। झाँसी ने तो आजादी की अलख जगाई हती। इतै की माटी के कन कन में, बीरता और देस प्रेम बसो है। झाँसी की वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई जू को, हमाओ कोटि कोटि नमन।"¹³


बुंदेली भाषा को संवैधानिक मान्यता और पृथक बुंदेलखंड राज्य निर्माण के प्रबल समर्थक, बाँदा-हमीरपुर सांसद माननीय कुँवर पुष्पेंद्र सिंह चंदेल ने 03 दिसंबर 2021 को लोकसभा में बुंदेली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने हेतु निजी विधेयक प्रस्तुत करते हुए कहा - "अध्यक्ष जी, बुंदेलखंड क्षेत्र एक विशेष संस्कृति वाला क्षेत्र है और वहाँ की अपनी एक बुंदेली भाषा है। देश में करीब 60 करोड़ लोग हिन्दी भाषा बोलने वाले हैं और इन लोगों में से करीब 12 प्रतिशत लोग बुंदेली भाषा बोलते हैं। भाषा से ही क्रियाओं और विभिन्न संज्ञाओं का ज्ञान होता है और भाषा के द्वारा ही मनुष्य की संवेदनाओं और विचारों को व्यक्त किया जाता है। इस कारण से भारतीय संस्कृति में भाषा पर हर संभव प्रकार से विचार किया गया है। यह उसी का प्रमाण है कि भारतीय संस्कृति के पास साहित्य और भाषा का विपुल भंडार है। संस्कृत भाषा भारतीय भाषाओं सहित विश्व की सभी भाषाओं की जननी है। इसके परिणामस्वरूप भारतवर्ष में 22 भाषाएँ अनुसूचित हैं और सैकड़ों भाषाएँ तथा बोलियाँ हैं। इन बोलियों द्वारा ही भारत के पास असीम वैचारिक शक्ति है। संस्कृत की तरह इन भाषाओं के पास भारत के उत्थान और विकास के लिए मार्गदर्शक शक्ति है जिसको और ज्यादा सहजने तथा संवारने की जरूरत है। यदि इनमें कुछ भाषाओं को विशेष संवैधानिक संरक्षण प्राप्त होगा, तो नए भारत का निर्माण और तेजी से होगा। महोदय, मेरी मांग है कि बुंदेलखंड में 'आल्हा' गायन बुंदेली भाषा में होता है। यह दुनिया का एकमात्र ऐसा खंडकाव्य है जो हजारों वर्षों से आज तक जीवित है। दुनिया के विकसित देशों के हजारों छात्र वहाँ गाई जा रही वीरता की गाथाओं पर शोध कर रहे हैं। महारानी लक्ष्मी बाई हमारे यहां से आईं। आपने हमेशा सुना होगा – 'बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।' मेरा निवेदन है कि आठवीं अनुसूची में भारत सरकार बुंदेली भाषा को जोड़े, ताकि वहाँ अपनी भाषा समझने वाले छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं में उच्च स्तर पर पहुंच सकें और उच्च पदों पर सुशोभित हो सकें।"¹⁴


ससंद में सांसद कुँवर पुष्पेंद्र सिंह चंदेल द्वारा बुंदेली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने हेतु पेश किए गए निजी विधेयक के बाद राष्ट्रीय स्तर पर बुंदेली राजनैतिक विमर्श का केंद्र बन गई और फिर इसके बाद जब 28 फरवरी 2022 को उत्तर प्रदेश विधानसभा में झाँसी के किसान नेता और गरौठा विधायक माननीय जवाहरलाल राजपूत ने अपनी बुंदेली भाषा में विधायक पद की शपथ ली। तब से हर बुंदेलीभाषी अपनी मातृभाषा और मातृभूमि की अस्मिता की रक्षा खातिर हर तरीके से लड़ने को तैयार हो गया। क्योंकि यदि उसकी भाषा को मान-सम्मान नहीं मिलेगा और उसकी संस्कृति भी संकट में पड़ जाएगी। इसकिए वह अपनी संस्कृति की रक्षा खातिर सजग है। जवाहर लाल राजपूत बुंदेलखंड के एकमात्र विधायक रहे, जिन्होंने क्षेत्रीय भाषा में शपथ ली थी। देखिए उनकी शपथ के अंश - "हम जवाहर लाल राजपूत, जो विधानसभा के सदस्य निर्वाचित भए हैं। भगवान को कौल खाकें कैरए हैं, कै हम विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के लानें सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखें। हम भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखें और जी पद खों हम ग्रहण करबे बारे हैं, ऊके कर्तव्यन कौ श्रद्धा पूर्वक पालन करें।"¹⁵


निष्कर्ष - उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि बुंदेली भाषा की राजनीति बुंदेली भाषा को कानूनी मान्यता दिलाने हेतु यानी भारत के संविधान 'भारत विधान' की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने हेतु की जा रही है। हम सबके लिए ये हर्ष की बात है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 में शिक्षा के माध्यम के रूप में क्षेत्रीय भाषाओं / स्थानीय भाषाओं / मातृभाषाओं  के अन्तर्गत बुंदेली भाषा को भी प्राथमिक शिक्षा का माध्यम बनाया गया है और प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में बुंदेली भाषा को स्वतंत्र विषय के रूप में पढ़ाए जाने का यथोचित प्रावधान भी किया गया है। बुंदेली भाषा को सवैंधानिक मान्यता मिल जाने से सिविल सेवा, केंद्रीय सेवाओं और राज्य सेवाओं समेत हर सरकारी नौकरी से बुंदेलीभाषी चयनित होंगे क्योंकि अपनी भाषा में हर जंग जीती जा सकती है।


संदर्भ -

¹ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी' एवं दीपक नामदेव, बुंदेली भाषा और साहित्य का विकास एवं संरक्षण, बुंदेली झलक, झाँसी, 14 मार्च 2024

https://bundeliijhalak.com/bundeli-bhasha-aur-sahitya-ka-vikas/


² किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी' एवं दीपक नामदेव, बुंदेली भाषा और साहित्य का विकास एवं संरक्षण, बुंदेली झलक, झाँसी, 14 मार्च 2024

https://bundeliijhalak.com/bundeli-bhasha-aur-sahitya-ka-vikas/


³ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी', भाषा की राजनीति, कुसराज की आबाज, झाँसी, 09 मई 2024

https://kushraaz.blogspot.com/2024/05/blog-post_25.html


⁴ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी', भाषा की राजनीति, कुसराज की आबाज, झाँसी, 09 मई 2024

https://kushraaz.blogspot.com/2024/05/blog-post_25.html


⁵ नरेंद्र अड़जरिया, भारत में आंचलिक पत्रकारिता और बुंदेलखंड़, यश पब्लिकेशन, नई दिल्ली, संस्करण 2023, पृष्ठ 54


⁶ कुशराज, फेसबुक पोस्ट, कुशराज का फेसबुक पेज, झाँसी, 9 दिसंबर 2029

https://www.facebook.com/126613095401617/posts/pfbid02WhoTTrBXZUkvFfNg5uDMMpoGe1SLiJroDtXR9qBtHe8JHdKuDAXWVhFJPcY1WPNsl/?app=fbl


⁷ कुसराज झाँसी, बुंदेली बुंदेलखंड़ आंदोलन, कुसराज की आबाज, झाँसी, 13 जनवरी 2020

https://kushraaz.blogspot.com/2020/01/blog-post.html?m=1


⁸ सतेंद सिंघ किसान, बुंदेलखंडियन के लानें अखंड बुंदेलखंड काय नईं?, अखंड बुंदेलखंड महाँपंचयात, झाँसी, 24 जुलाई 2020

https://akhandbundelkhand.blogspot.com/2020/07/blog-post_24.html


⁹ राजेश शर्मा, 64 साल पहले खत्म हुआ था बुन्देलखण्ड राज्य का अस्तित्व, जागरण, झाँसी, 30 अक्टूबर 2020

https://www.jagran.com/uttar-pradesh/jhansi-city-20987207.html


¹⁰ राजेश शर्मा, 64 साल पहले खत्म हुआ था बुन्देलखण्ड राज्य का अस्तित्व, जागरण, झाँसी, 30 अक्टूबर 2020

https://www.jagran.com/uttar-pradesh/jhansi-city-20987207.html


¹¹ राजेश शर्मा, 64 साल पहले खत्म हुआ था बुन्देलखण्ड राज्य का अस्तित्व, जागरण, झाँसी, 30 अक्टूबर 2020

https://www.jagran.com/uttar-pradesh/jhansi-city-20987207.html


¹² प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जब बुंदेली भाषा में पीएम मोदी ने कहा "सभई को अभिनंदन करत हौं" तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा सभास्थल, पत्रिका, चित्रकूट, 29 फरवरी 2020

https://www.patrika.com/chitrakoot-news/modi-narendra-modi-bundelkhand-express-way-chitrakoot-5839448


¹³ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, 'झांसी,उत्तर प्रदेश में राष्ट्र रक्षा समर्पण पर्व पर प्रधानमंत्री के संबोधन का मूल पाठ', पीएमइंडिया, नईदिल्ली, 19 नवंबर 2021

https://www.pmindia.gov.in


¹⁴ सांसद कुँवर पुष्पेंद्र सिंह चंदेल, लोकसभा बुंदेली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने हेतु लोकसभा में प्रस्तुत निजी विधेयक, लोकसभा टीवी, नईदिल्ली, 3 दिसंबर 2021

https://www.facebook.com/share/v/QRBT2m2LwFP1RrVw/?mibextid=oFDknk


¹⁵ विधायक जवाहरलाल राजपूत, 'जौन पद खों हम ग्रहण करबे बारे हैं, ऊके कर्तव्यन कौ श्रद्धा पूर्वक पालन करें', अमर उजाला, झाँसी, 28 मार्च 2022

https://www.amarujala.com/uttar-pradesh/jhansi/we-are-about-to-accept-jaun-s-post-who-should-follow-our-duties-with-devotion-jhansi-news-jhs217564873

शोधपत्र : सन 1857 की क्रांति में झाँसी की वीरांगनाओं का योगदान - डॉ० रमा आर्य, किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी', एड० अर्चना मिश्रा

 शोधपत्र : सन 1857 की क्रांति में झाँसी की वीरांगनाओं का योगदान 


©️ डॉ० रमा आर्य 

(सहायक आचार्या - हिन्दी, श्री पीताम्बरा पीठ संस्कृत, महाविद्यालय, दतिया, मध्य प्रदेश)

पता - श्री पीताम्बरा पीठ संस्कृत महाविद्यालय, दतिया, अखंड बुंदेलखंड़ (475661)

©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 

'कुशराज झाँसी'

(शोधार्थी - हिन्दी विभाग, बुंदेलखंड़ महाविद्यालय, झाँसी)

ईमेल - kushraazjhansi@gmail.com

पता - नन्नाघर, जरबौ गॉंव, बरूआसागर, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड़ (284201)

©️ एड० अर्चना मिश्रा

(पूर्व छात्रा - विधि विभाग, बुंदेलखंड़ महाविद्यालय, झाँसी)

ईमेल - archanaishumishra@gmail.com

पता - गरौठा, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड़ (284203)


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शोधसार - विश्व में बुंदेलखंड की भूमि 'कलम, कला, किसान और कृपाण की धरती' के नाम से पहचानी जाती रही है। जब हमारा भारत देश ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश सरकार का गुलाम हुआ तब इसी बुंदेलखंड की धरती से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई ने 'सुराज के लिए लड़िबो चहिए' की देशप्रेम की मानसिकता से राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्त्व किया। सन 1857 की क्रान्ति में झाँसी की वीरांगनाओं में झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई, मोतीबाई, काशीबाई, सुंदर और मुंदर आदि का उल्लेखनीय योगदान रहा है।


कुंजी शब्द - सन 1857 की क्रांति, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, झाँसी, झाँसी की वीरांगना, झाँसी की रानी, महारानी लक्ष्मीबाई, बाईसा, नारी सेना, मोतीबाई, काशीबाई, सुंदर, मुंदर।


प्रस्तावना - विश्व में बुंदेलखंड की भूमि 'कलम, कला, किसान और कृपाण की धरती' के नाम से पहचानी जाती रही है। भारत और विश्व के आदिग्रंथ वेंदो की रचना यहीं कालपी जिला जालौन में महर्षि वेदव्यास ने की और फिर महर्षि वाल्मीकि ने करीला जिला अशोकनगर में रामायण की रचना की और यहीं वाल्मिकी आश्रम में माँ सीता ने लव-कुश को जन्म दिया। यहीं बीजौर-बाघाट जिला निवाड़ी में गुरू द्रोणाचार्य ने अर्जुन को धनुर्विद्या सिखाई। इसी बुंदेलखंड में महोबा में बुंदेली के आदिकवि जगनिक ने 'आल्हा चरित' रचकर विश्व को आल्हा-ऊदल की शौर्यगाथा का रसपान कराया।


और फिर जब हमारा भारत देश ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश सरकार का गुलाम हुआ तब इसी बुंदेलखंड की धरती से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई ने 'सुराज के लिए लड़िबो चहिए' की देशप्रेम की मानसिकता से राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्त्व किया। इस स्वतंत्रता संग्राम में बुंदेलखंड की रियासतों समेत दिल्ली, भोपाल, लखनऊ, प्रयागराज के शासकों ने भाग लिया और अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। 


हम लोग मानते हैं कि सन 1857 की क्रांति सत-प्रतिशत भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। इस स्वतंत्रता संग्राम की शुरूआत 5 जून सन 1857 को झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई के नेतृत्त्व में झाँसी से हुई थी। झाँसी की रानी को हम लोग 'बाईसाब' के नाम से पुकारते हैं। आइये जानते हैं सन 1857 की क्रांति में झाँसी की वीरांगनाओं का योगदान के बारे में…।


सन 1857 की क्रांति में झाँसी की वीरांगनाओं का योगदान - सन 1857 की क्रान्ति में झाँसी की वीरांगनाओं का योगदान विश्व इतिहास की अमूल्य धरोहर है। झाँसी की रानी के किले के पास बने महारानी लक्ष्मीबाई पार्क, झाँसी में स्थापित झाँसी की रानी की प्रतिमा के शिलालेख में लिखा है - "प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की दीपशिखा महारानी लक्ष्मीबाई, जिनके आत्मोसर्ग ने भारतीय महिलाओं का मस्तक गौरवान्वित किया।"¹


झाँसी की रानी के संदर्भ में लिखे इस कथन से सिद्ध होता है कि सन 1857 की क्रांति यानी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत झाँसी की रानी के द्वारा झाँसी से हुई थी। मेरठ से मंगल पांडेय द्वारा नहीं। मंगल पांडेय जैसे सैनिकों द्वारा चर्बी लगे कारतूस के विरोध की घटना सिर्फ सिपाही विद्रोह थी, क्रांति बिल्कुल भी नहीं। 


सन 1857 की क्रान्ति में झाँसी की वीरांगनाओं में झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई, मोतीबाई, काशीबाई, सुंदर और मुंदर आदि का उल्लेखनीय योगदान रहा है। इनके योगदान को हम इस प्रकार जान सकते हैं।


सबसे पहले हम विश्व में नारी सशक्तिकरण की अनोखी मिशाल, महान वीरांगना झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के योगदान के बारे में जानते हैं। झाँसी की रानी की वीरता के किस्से आज भी विश्व के हर गाँव और शहर में सुने जाते हैं। उनकी शौर्यगाथा को इतिहासकारों, सरकारों, साहित्यकारों और आम जनता ने सहेजकर रखा है।


कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की विश्वप्रसिद्ध कविता 'झाँसी की रानी' की ये पंक्तियाँ रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी सबको सुनाती है -

"सिंहासन हिल उठे, 

राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, 

बूढ़े भारत में भी आयी 

फिर से नई जवानी थी, 

गुमी हुई आजादी की कीमत 

सबने पहचानी थी, 

दूर फिरंगी को करने की 

सबने मन में ठानी थी, 

चमक उठी सन् सत्तावन में 

वह तलवार पुरानी थी। 

बुंदेले हरबोलों के मुँह 

हमने सुनी कहानी थी। 

खूब लड़ी मर्दानी वह तो 

झाँसी वाली रानी थी॥"²


सन 1857 की क्रान्ति में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के विरुद्ध ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना की अगुआई करने वाले जनरल ह्यूरोज ने अपनी आत्मकथा में रानी लक्ष्मीबाई की वीरता को नमन करते हुए लिखा है - "झाँसी की रानी विद्रोहियों में मर्द थीं। रानी मर्दों की तरह कपड़े पहनती थीं और अपने सिर पर पगड़ी भी और साथ ही मर्दों की ही तरह घुड़सावरी भी करना जानती थीं"³


ऐसी थीं झाँसी की रानी, महान वीरांगना लक्ष्मीबाई जिनकी वीरता की प्रशंसा उनके दुश्मन अंग्रेज सैन्य अफसर जनरल ह्यूरोज ने भी की है। झाँसी की रानी ने "भाग-भाग फिरंगी भाग… झाँसी की रानी आयी", "मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी" और "सुराज के लिए लड़िबो चहिए" जैसे नारे बुलन्द कर एक ओर अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिला दीं तो दूसरी तरफ "हर हर महादेव" का नारा बुलन्द कर भारतीय संस्कृति की रक्षा की मिशाल कायम की।


झाँसी के इतिहासकार जानकी शरण वर्मा '1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी' में झाँसी की रानी के योगदान के बारे में लिखते हैं - "1857 की जनक्रान्ति की अग्रणी सेनानायक, 'सुराज के लिए लड़िबो चहिए' की प्रेरणादायिनी, समरांगण में अपनी तलवार से अंग्रेजों में दहशत पैदाकर, भीरुओं में शक्ति पैदाकर, स्त्री समाज का भाल ऊँचा करने वाली, काशीबाई, सुन्दर और मुन्दर की प्राणप्रिय सहेली, देश की स्वतंत्रता की रक्षा करने वाली, आन-बान और शान की न मिटने वाली ज्योति की चमक थीं - झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई।"⁴


झाँसी के राजा और पति गंगाधर राव के निधन के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी राज्य के शासन की बागडोर अपने हाथों में संभाल ली थी। इस संदर्भ में उपन्यासकार डॉ० वृन्दावनलाल वर्मा ने 'झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई' में लिखा है - "लक्ष्मणराव प्रधानमंत्री, तोपें ढालने वाला भाऊ, प्रधान सेनापति जवाहर सिंह, पैदल सेना के लिए कर्नल - एक दीवान रघुनाथ सिंह, दूसरा मुहम्मद जमा खाँ, तीसरा खुदाबख्श, घुड़सवारों की प्रधान स्वयं रानी, कर्नल - सुन्दर, मुन्दर और काशीबाई, तोपखाने का प्रधान गुलाम गौस खाँ, नायब दीवान दूल्हाजू, न्यायाधीश नाना भोपटकर, मोरोपन्त कमठाने के प्रधान, जासूसी विभाग मोतीबाई के हाथ में और नायब-जूही।"⁵


अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को उत्तराधिकारी का दर्जा हेतु रानी लक्ष्मीबाई ने कई प्रयास किए, लेकिन फिरंगियों की कुटिल नीति के कारण पुत्र को उत्तराधिकार का दर्जा दिखाने में नाकामयाब रहीं। इस संदर्भ में इतिहासकार जानकी शरण वर्मा लिखते हैं - "बाईसाहिबा राजा के निधन के बाद से ही अंग्रेज सरकार को अपने पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने के लिए अनेक पूर्व सन्धि-पत्रों का हवाला देते हुए प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर चुकी थीं, किन्तु वह रानी को अंग्रेजी शासन का हितैषी नहीं मानते थे। इसलिए अंग्रेजी शासन ने पूर्व में की गई सन्धियों की उपेक्षा कर 27 फरवरी,1854 को झाँसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर बुन्देलखण्ड के राजनीतिक अभिकर्त्ता मालकम को सूचना भेज दी। विलय की सूचना मिलते ही उसने यह सूचना झाँसी के राजनीतिक अभिकर्त्ता एलिस को भेज दी, जिसने 7 मार्च, 1854 को घोषणा कर दी कि 'झाँसी राज्य की प्रजा ध्यान दे कि भविष्य में वह अंग्रेजी राज्य के अधीन रहेगी और अपने सभी कर आदि सरकार के प्रतिनिधि मेजर एलिस को देगी।' एलिस द्वारा झाँसी विलय की घोषणा होते ही रानी ने क्रोधित हो कहा - 'मैं झाँसी नहीं दूंगी'। और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी में जुट गईं। सदाशिवराव उन दिनों झाँसी में ही निवास करता था। 31 मई को कुछ होने वाला है, इसकी खबर उसे लग गई तो उथल-पुथल की परिस्थिति का लाभ उठाने के लिए उसने परेला से तीन हजार सैनिक लेकर झाँसी के अधीन करैरा दुर्ग पर अपना आधिपत्य जमा लिया। करैरा में थानेदार और तहसीलदार नियुक्त थे। उनको सदाशिवराव ने मार भगाया और आस-पास के जागीरदारों से रुपया वसूल कर महाराजा की पदवी ग्रहण कर ली। जिन जागीरदारों ने उसे महाराजा स्वीकार नहीं किया, सैनिक बल के आधार पर उसने उनकी जागीरदारी समाप्त कर दी। सदाशिवराव के करैरा दुर्ग पर अधिकार किए जाने की सूचना जासूसी विभाग की प्रमुख मोतीबाई ने 13 जून की रात को रानी को जैसे ही दी, रानी तुरन्त घुड़सवार सैनिकों को लेकर करैरा पहुँच गईं। उन्होंने करैरा किले को चारों तरफ से घेर लिया। रानी के बहादुर सैनिकों से किले को घिरा देख सदाशिवराव बिना युद्ध किए हुए नरवर भाग गया, परन्तु रानी ने नरवर दुर्ग को घेर कर सदाशिवराव को पकड़ लिया और उसे झाँसी दुर्ग में कैदी के रूप में बन्द कर दिया।"⁶


रानी लक्ष्मीबाई के स्वतंत्रता संघर्ष के बारे में इतिहासकार जानकी शरण वर्मा लिखते हैं - "कालपी पर अंग्रेजों का आधिपत्य हो जाने पर लक्ष्मीबाई, राव साहब किसी प्रकार ग्वालियर से 75 किलोमीटर दूर गोपालपुरा गाँव पहुँच गए। समाचार मिलते ही तात्या और बाँदा के नवाब भी गोपालपुरा पहुँच गए। अंग्रेजों से बचने का केवल एक ही रास्ता था कि पुनः उनसे युद्ध किया जाए। इस विषय पर विचार कर युद्ध की रणनीति तैयार की गई। रानी का सुझाव था कि अंग्रेजों से सफलतापूर्वक युद्ध के लिए ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य जमाया जाए। उस समय ग्वालियर जयाजी राव के अधीन था जो स्वातंत्र्य सैनिकों को दबाने के लिए हर प्रकार से धन और सैनिकों से अंग्रेजों की सहायता किया करता था। उसे किस प्रकार अंग्रेजों के विरुद्ध किया जाए, इस पर गहन चिन्तन कर रणनीति निर्धारित की गई। यद्यपि दिल्ली में 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छिड़ जाने से उसकी लपटों ने ग्वालियर के सैनिकों को भी अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए उत्प्रेरित कर दिया था। परिणामतः 14 जून, 1857 को ग्वालियर की कान्टीजेंट सेना ने छावनी में विद्रोह कर आग लगा दी, जिसमें बहुत से सैनिक और अधिकारियों को प्राण देने पड़े, परन्तु किसी प्रकार जयाजी राव और उसके चतुर मंत्री सलाहकार दिनकर राव के समझाने पर भड़की हुई सेना शान्त सी हो गई, परन्तु उनके मन में स्वतंत्रता की आग अन्दर ही अन्दर सुलगती रही जो समय पाकर प्रज्वलित हो गई। 3 जून को फूलबाग में दरबार हुआ, जिसमें सभी सेनाओं के अधिकारी व दरबारी सम्मिलित हुए। पेशवा का राज्याभिषेक किया गया और उपहार भेंट किए गए। तात्या टोपे को सेनापति घोषित किया गया। सिंहासन पर आरूढ़ होते ही राव साहब मौज- मस्ती में दिन गुजारने लगे। रानी चाहती थीं कि पेशवा जीत को स्थायी करने के लिए सेना को सुसज्जित करें और अनुशासन की ओर ध्यान दें, परन्तु वे दायित्व और कर्तव्य से च्युत होकर रंगरेलियाँ मनाने में ही मग्न रहे। पन्द्रह दिन पश्चात् अंग्रेजों ने विशाल फौज के साथ ग्वालियर पर हमला किया। उसका सामना करने के लिए रानी फिर से डट गईं। पूर्व दिशा के द्वार की रक्षा का भार उन्हें सौंपा गया था। अंग्रेजों की ओर से इस मोर्चे का दायित्व जनरल स्मिथ पर था। रानी और उनकी सैनिक सहेलियाँ काशी और मुन्दर घोड़े पर सवार हुईं। स्मिथ ने रानी के मोर्चे पर अनेक बार हमले किए, परन्तु उसकी दाल नहीं गली तो उसने अपना मोर्चा दूसरी ओर मोड़ा। मुन्दर घोड़े पर सवार होकर एक टीले पर स्मिथ की सेना की निगरानी कर रही थी। मेक्सफर्सन के अनुसार, अचानक उस पर तलवार का वार हुआ तो 'बाई साहिबा मरी' यह उसके मुख से निकला। उसकी करुण पुकार से रानी का हृदय विदीर्ण हो गया। अपने प्राणों की परवाह न कर रानी ने मुन्दर के हत्यारे पर वार कर उसे मौत के घाट उतार दिया। फिर वे तेजी से आगे बढ़ीं। रानी का घोड़ा मुरार ग्वालियर मार्ग के मोड़ पर नाला आ जाने से रुक गया। इतने में ही अंग्रेज सिपाहियों की ओर से गोलियाँ दागी गई। एक गोली रानी की बगल में लगी। रानी घायल शेरनी की भाँति ऐसे युद्ध करती रहीं कि उनकी एक आँख भी जाती रही। गुल मुहम्मद, रघुनाथ सिंह और देशमुख रानी को पास ही में स्थित बाबा गंगादास की फुटी में ले गए। वहाँ चिता बनाई गई। रानी ने उस पर बैठकर स्वयं अग्नि प्रज्वलित की। इस प्रकार क्रान्ति की अधिष्ठात्री रानी लक्ष्मीबाई ने 18 जून, 1858 को अपना बलिदान कर दिया।"⁷ 


झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को वीर सावरकर इस प्रकार रेखांकित करते हैं - "रानी लक्ष्मीबाई अपना लक्ष्य पूरा कर गई। ऐसा एक जीवन सम्पूर्ण राष्ट्र का मुख उज्ज्वल करता है। वह सब गुणों की निचोड़ थीं। एक महिला, जिसने जीवन के 23 बसन्त ही देखे थे, कोमलांगी, मधुर, विशुद्ध, उसके हृदय में देशभक्ति रत्नदीप की तरह प्रकाशवान थी। अपने देश भारत पर उसे गर्व था। युद्ध कौशल में वह अद्वितीय थी। विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश होगा, जो ऐसी देवी को अपनी कन्या और रानी कहने का अधिकारी होगा। इंग्लैंड के भाग्य में यह सम्मान अब तक नहीं बदा है। 1857 के स्वातंत्र्य समर पर ज्वालामुखी की यह अन्तिम ज्वाला है।"⁸


सन 1857 की क्रांति में झाँसी की वीरांगनाओं में रानी लक्ष्मीबाई के अलावा मोतीबाई, काशीबाई, सुंदर और मुंदर का नाम मुख्य रूप से लिया जाता है। मोतीबाई राजा गंगाधरराव की दरबारी नर्तकी और तोपची थी। जबकि काशीबाई, सुंदर और मुंदर तीनों रानी लक्ष्मीबाई की वीर सहेलियाँ थीं। इन चारों ने रानी लक्ष्मीबाई की सेना में रहकर अदम्य साहस का परिचय दिया।


मोतीबाई के बारे में भारत सरकार द्वारा संचालित एवं प्रकाशित 'आजादी का अमृत महोत्सव' नामक पोर्टल पर लिखा गया है - "एक साधारण नर्तकी से नारी शक्ति बनकर रानी की नारी सेना में सामिल हुई थी। घुड़सवारी, तलवार कला और तोप चलाने में उसे महारथ हासिल थी। जिसका सफल प्रदर्शन उसने झाँसी पर ओरछा सेना का प्रथम आक्रमण में और ह्यूरोज की अंग्रेजी सेना के विरूद्ध अंतिम साँस तक लड़ते हुए किया था। 21 मार्च 1858 ई0 के युद्ध में मोतीबाई, लक्ष्मीबाई की संरक्षा में उनके साथ रहीं। कम्पनी सेना के जबरदस्त हमले को देखकर रानी ने मोतीबाई को गुलाम गौस के साथ तोप संचालन पर लगा दिया। वीरांगना मोतीबाई ने पूरी दक्षता के साथ इस कार्य को निभाया, जिससे अंग्रेज सेना तोप के गोलों की मार से किले के निकट नहीं आ पा रही थी। कड़क बिजली से निकले गोले गोरों के काल बनकर उन पर गिर रहे थे। काफी संघर्ष के बाद एक गोला मोतीबाई को लगा और वह शहीद हो गयी। रानी लक्ष्मीबाई ने आदर के साथ उनको खुदाबक्स की समाधि के पास किले में दफन कर उसे सलाम किया। मोतीबाई की मजार पर आज हजारों लोग श्रद्धा के साथ नमन कर उसके राष्ट्रधर्म से प्रेरणा लेते हैं।"⁹


भारत सरकार द्वारा संचालित एवं प्रकाशित 'आजादी का अमृत महोत्सव' नामक पोर्टल पर इतिहासकार गिरजाशंकर कुशवाहा ने भी वीरांगना मोतीबाई की जीवनी में लिखा गया है - "वीरांगना मोतीबाई ने 1857 की क्रांति में एक प्रमुख हस्ती, झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई की कट्टर सहयोगी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मोतीबाई, जो मूल रूप से झाँसी के राजा श्रीमंत गंगाधर राव के रंगमंच की नर्तकी और अभिनेत्री थीं, रानी की रणनीति में एक प्रमुख व्यक्ति बन गईं। अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका के बारे में जानने पर, रानी लक्ष्मीबाई ने भावनात्मक रूप से मोतीबाई से कहा कि उन्हें झाँसी के हित में दुश्मन के बारे में विशेष जानकारी इकट्ठा करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों से संपर्क स्थापित करना होगा। उन्होंने मोतीबाई से नवाब अली बहादुर के पास जाने और उन्हें प्रभावित करने का प्रयास करने का आग्रह किया। अंग्रेजों के मित्र होने के नाते नवाब साहब उनके साथ संवाद स्थापित करने के लिए एक पुल का काम कर सकते थे। नवाब साहब द्वारा आयोजित बैठकों के माध्यम से, उनका उद्देश्य सैन्य गतिविधियों और अन्य महत्वपूर्ण योजनाओं पर खुफिया जानकारी प्राप्त करना था। नवाब साहब ने झाँसी के मजिस्ट्रेट गॉर्डन से मोतीबाई की बहुत प्रशंसा की, जिससे उनका विश्वास हासिल हो गया। मोतीबाई ने बाद में रानी लक्ष्मीबाई के साथ नवाब साहब की गतिविधियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी साझा की, जिससे उनकी रानी के लिए एक जासूस के रूप में उनके साहस और समर्पण का प्रदर्शन हुआ। मोतीबाई भी सेना में सैनिक पद पर थीं। उन्होंने भवानी शंकर तोप को कुशलतापूर्वक चलाया। 20 मार्च 1858 को जनरल ह्यूरोज ने झाँसी के पास कैमासिन देवी के मंदिर के पास एक शिविर स्थापित किया। रानी लक्ष्मीबाई ने दूरबीन से देखते हुए आसन्न आक्रमण का विचार किया। मोतीबाई ने घुड़सवार हमले का प्रस्ताव रखा। लड़ाई 23 मार्च 1858 को शुरू हुई, जिसमें गोलियाँ दीवारों में घुस गईं। दुर्भाग्य से, मोतीबाई को कंधे में गंभीर चोट लगी, जिससे वह गिर पड़ीं। एक साथी सिपाही ने उसे बचाया और घर के अंदर ले आया। शाश्वत विश्राम से पहले उसने रानी की एक झलक देखी। दुखद बात यह है कि 3 अप्रैल 1858 को वीरांगना मोतीबाई का वीरतापूर्ण अंत हुआ। उनकी समाधि झाँसी किले की सीमा के भीतर बनाई गई थी, जहाँ वह चिर निद्रा में विश्राम करती हैं, जो उनकी अटूट भक्ति और बलिदान का प्रतीक है।"¹⁰


रानी लक्ष्मीबाई की वीर सहेलियों काशीबाई, सुंदर और मुंदर के बारे में इतिहासकार जानकी शरण वर्मा लिखते हैं - "1857 की जंगे आजादी में वीरांगना लक्ष्मीबाई के कुशल सैन्य संचालन में सभी जातियों और वर्ग के पुरुषों व स्त्रियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध लोहा लिया। इस महासमर में पिछड़े लोगों व दलित वर्ग की महिलाओं की समान भागीदारी रही। उनका पराक्रमी, तेजस्वी और निर्मल चरित्र कालचक्र के कारण दब गया है, जिसे उजागर करने की अति आवश्यकता है। प्रस्तुत है ऐसी ही वीर महिला सैनिकों - काशीबाई, सुन्दर और मुन्दर की शौर्यगाथा, जिन्होंने बलशाली अंग्रेजी फौज को मजा चखा दिया था। कृष्णराव की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र रामचन्द्र राव झाँसी के हकदार हुए, लेकिन नाबालिग होने के कारण शासन-सूत्र उनकी माँ सखूबाई के हाथ में रहा। बालिग होने पर रामचन्द्र राव ने राजा की स्थायी उपाधि पाते ही शासन सूत्र पूरे तौर पर अपने हाथ में ले लिया। सखूबाई को अपने हाथ से शासन-सूत्र निकल जाना बहुत अखरा। शासन-सूत्र को अपने हाथ में बनाए रखने के लिए उसने पुत्र रामचन्द्र राव को मार डालने के लिए षड्यंत्र रचा, परन्तु उसके षड्यंत्र का पता चलने पर एक मराठा युवक लालू कोदोलकर और मऊ के आनन्दराव ने उसे बचा लिया और वे झाँसी छोड़कर चले गए। कुछ दिनों बाद इन तीनों के एक-एक लड़की पैदा हुई, जिनके नाम काशीबाई, मुन्दर और सुन्दर था। इनका पालन-पोषण बड़ी दरिद्रता में हुआ। लालू कोदोलकर के रिश्तेदारों को पुनः झाँसी बुला लिया गया। गंगाधरराव का विवाह मनु के साथ झाँसी में सम्पन्न हुआ। नगर वाले गणेश मन्दिर में सामन्ती वर पूजा आदि रीतियाँ पूरी की गईं। विवाह की रस्म के बाद अपरिचित तीनों बालिकाएँ जिनका नाम सुन्दर, मुन्दर और काशीबाई थे, उपस्थित हुई। लक्ष्मीबाई ने उनसे पूछा, 'तुम कौन हो?' उन्होंने उत्तर दिया, 'हम आपकी दासियाँ हैं, जो सदैव आपके पास रहा करेंगी।' रानी ने उन्हें अपनी सहेलियाँ बना लिया और वे प्रतिदिन अपनी विश्वासपात्र सहेलियों - सुन्दर, मुन्दर और काशीबाई से रात्रि 10 बजे भेंट कर हाल-चाल मालूम किया करती थीं। ये तीनों किले के महल में रानी के साथ रहा करती थीं और रानी के प्रति समर्पित थीं और रानी की आज्ञा का पालन करती हुई मरने के लिए आगे-पीछे नहीं सोचती थीं। रानी की दासी होने के लिए लड़कियाँ अन्ब्राह्मण जातियों से रंग-रूप के आधार पर चुनी जाती थीं और उनको आजीवन रानी के साथ कुमारी रहना पड़ता था। यदि उनमें से कोई विवाह कर लेतीं तो उसे महल की नौकरी छोड़ना पड़ती थी। लेकिन रानी ने कभी भी उन्हें दासी नहीं माना। उनके साथ सदैव सहेलियों जैसा प्रेमपूर्ण व्यवहार किया। रानी ने तीनों को घुड़सवारी व शस्त्र चलाने में निपुण बना दिया था। सुन्दर घोड़े पर चढ़ना जानती थी, मुन्दर ने तलवार चलाना सीखा था और काशीबाई ने बन्दूक चलाना। इनका साहस और निर्भीकता को देख रानी लक्ष्मीबाई डाकू सागर सिंह को पकड़ने के लिए इन्हें बरुआसागर ले गई थीं। उसे घेरकर कैदी के रूप में झाँसी लाई थीं। राजा गंगाधर राव की मृत्यु के पश्चात अंग्रेजी हुकूमत ने झाँसी राज्य का विलय अपने शासन में कर लिया। जब यह समाचार सुन्दर, मुन्दर और काशीबाई ने सुना तो वे तीनों अत्यधिक दुखी हुई और जब वे विश्राम के वक्त रानी लक्ष्मीबाई भेंट करने गईं तो दुःख के कारण तीनों ने अपने आभूषण उतार दिए। रानी की ये तीनों सहेलियाँ जहाँ रानी के लिए समर्पित थीं, वहीं वे देशभक्ति और स्वातंत्र्य भावना से भी परिपूर्ण थीं। जब रानी ने उन्हें धैर्य बँधाया कि हमें अपना साहस और धैर्य रखकर अंग्रेजों से अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए पूरी तरह तैयार होकर उन्हें मजा चखाना चाहिए तो वे तीनों उत्साह और जोश से भर उठीं और युद्ध के लिए रानी के आदेश की प्रतीक्षा करने लगीं। अब क्या था, रानी के सैन्य संचालन में रणभेरी बज चुकी थी। खबर पाते ही तात्या भी रानी की मदद के लिए आ पहुँचा। जैसे ही तात्या टोपे रानी की सहायता के लिए आगे बढ़ा कि टोरियों के बीच आते ही तात्या के दस्तों पर अंग्रेजी तोपखाने ने गोले बरसाए। गोले फूटकर तात्या के घुड़सवारों का सत्यानाश कर रहे थे। दस्तों के तितर-बितर होने पर एक ओर काशीबाई और एक ओर जूही हो गई। काशीबाई वाला दस्ता अंग्रेज घुड़सवारों के बीच फँस गया। पहले पिस्तौलें चलीं फिर तलवारें खींचीं। काशीबाई हर-हर महादेव कहकर शत्रुओं पर पिल पड़ी। अंग्रेज समझे कि झाँसी की रानी है, इसको जिन्दा पकड़ना चाहिए, परन्तु काशीबाई इतनी तेजी से युद्ध कर रही थी कि दो अंग्रेज सवार तो कट गए, परन्तु एक अंग्रेज सवार की तलवार से उसका कट गया। इस पर वह पैदल ही लड़ने लगी और उस बहादुर ने उस अवस्था में ही कई शत्रुओं को घायल कर दिया। इसी बीच काशीबाई के सिर पर तलवार पड़ी, लोहे की टोपी के कारण सिर बच गया और कन्धा कट गया, तब भी काशीबाई शिथिल नहीं हुई। फिर उस पर दूसरी तलवार पड़ी जिससे उनका अन्त हो गया। उस समय फिर उसके मुँह से निकला हर-हर महादेव। इस प्रकार काशीबाई झाँसी के संग्राम में मारी गई। तात्या टोपे पराजित होकर लौट गया। रानी ने युद्ध के लिए पूरी तैयारी कर रखी थी और ओरछा गेट की रक्षा के लिए दुल्हाजू को तैनात कर रखा था। सुन्दर उसके साथ थी, लेकिन दुल्हाजू और पीरअली राज्य में बड़ी जायदाद पाने की लालच में अंग्रेजों से मिल चुके थे। गोरी पल्टनें टिड्डी दल की तरह ओरछा फाटक पहुँचने के लिए दौड़ीं। दुल्हाजू ने फाटक पर लगे सारे ताले और सांकलें तोड़ डालीं। यह देख नंगी तलवारें लिए सुन्दर आ पहुँची। उसने दुल्हाजू से कड़ककर कहा, 'देशद्रोही, नरक के कीड़े तू अंग्रेजों से कुछ नहीं पाएगा।' सुन्दर दुल्हाजू पर पिल पड़ी। दुल्हाजू ने सुन्दर के पेट में छड़ अड़ा दी। सुन्दर के मुँह से हर-हर महादेव निकला था कि एक गोरे की गोली ने सौन्दर्यमयी सुन्दर को अमर बना दिया। जब रानी ने देखा कि अंग्रेज दुल्हाजू के विश्वासघात के कारण ओरछा गेट से शहर में प्रवेश कर रहे हैं, चारों तरफ नागरिकों को मौत के घाट उतारा जा रहा है तो वे अपने विशिष्ट सलाहकारों के परामर्श से 4 अप्रैल, 1858 की मध्यरात्रि को भाण्डेर होती हुई कोंच, कालपी पहुंचीं। घोर संघर्ष के बाद उन्होंने ग्वालियर किले में अपना आधिपत्य जमा लिया। परन्तु ह्यूरोज उनका पीछा करता हुआ ग्वालियर जा पहुँचा। रानी ने किले से बाहर निकलकर घोर युद्ध किया। इस युद्ध में रानी की विश्वासपात्र मुन्दर भी साथ थीं। जब रानी युद्ध करते हुए आगे जा रही थीं तभी मुन्दर पर एक अंग्रेज सवार ने पिस्तौल दागी। उसके मुँह से केवल यह शब्द निकले 'बाई साहिबा मैं मरी।' यह देख बलवान रघुनाथ सिंह फुर्ती के साथ घोड़े से उतरा, अपना साफा फाड़ा मुन्दर के शव को पीठ पर कसा और घोड़े पर सवार होकर आगे बढ़ा। चिता चुनने के बाद लक्ष्मीबाई और मुन्दर के शवों को चिता पर देशमुख ने रख दिया। इस प्रकार रानी की विश्वासपात्र सहेलियाँ सुन्दर, मुन्दर और काशीबाई वीरांगना लक्ष्मीबाई के सैन्य संचालन में अंग्रेजों से युद्ध करते हुए मुल्क की आजादी के लिये कुर्बान हो गईं। यह अमर बलिदान देशवासियों को संबल प्रदान करता रहेगा।"¹¹


झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में हुई सन 1857 की क्रांति में बारे में इतिहासकारों के मतों को जानता भी जरूरी है। आइये देखते हैं इतिहासकारों की दृष्टि में सन 1857 की क्रांति - 

द रिवोल्ट ऑफ हिन्दुस्तान, ईस्ट इंडिया कम्पनी, कोलकाता ने पृष्ठ 51 पर लिखा - "हिन्दुस्तान के विद्रोह के सम्बन्ध में समस्त यूरोप में केवल एक ही राय होनी चाहिए। विश्व के इतिहास में जितने भी विद्रोहों की चेष्टा की गई है, उनमें यह एक सबसे ज्यादा न्यायपूर्ण, भद्र और आवश्यक विद्रोह है।"¹²


द फर्स्ट इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंट्स के पृष्ठ 57-59 में लिखा गया -"भारतीयों का विद्रोह अंग्रेजों द्वारा गरीब किसानों पर ढाए गए जुल्मों तथा सामान्य जनता पर लगाए जा रहे भारी करों के कारण हुआ। कलेक्टरों द्वारा क्रूरतम वसूली भी जन-विद्रोह का प्रमुख कारण रही।"¹³


डॉ० रामविलास शर्मा 'राज्य क्रान्ति' के पृष्ठ 531 में लिखते हैं - "'57 की क्रान्ति संसार की पहली साम्राज्य विरोधी, सामन्त विरोधी तथा 20वीं सदी की जनवादी क्रान्तियों की लम्बी और अपूर्ण श्रृंखला की पहली महत्त्वपूर्ण कड़ी भी है।"¹⁴


इतिहासकार आर० सी० मजूमदार कहते हैं - "1857 के विद्रोह को भारतीय इतिहास में ब्रिटिश शासन के लिए एक बड़ी सीधी तथा व्यापक चुनौती के रूप में देखा जाएगा। इसी कारण यह अर्द्धशताब्दी के बाद आरम्भ होने वाले सच्चे राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रेरक बना। ब्रिटिश शासन के हितों को 1857 की स्मृति ने ज्यादा हानि पहुँचाई।"¹⁵


राष्ट्रवादी इतिहासकार वीर सावरकर 'स्वतंत्रता संग्राम' में लिखते हैं - "जब कभी देशी रियासतों के प्रमुख सामन्तों ने क्रान्ति 1857 में शामिल होने से इनकार किया तो उन्हीं रियासतों की जनता अनियंत्रित हो गई तथा शामिल न होने पर उसने सम्बन्धित प्रमुख सामन्तों की सत्ता को उखाड़ फेंकने की कोशिश की ताकि वे राष्ट्रीय संग्राम में सम्मिलित हो सकें।"¹⁶


निष्कर्ष - उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम लोग इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सन 1857 की क्रांति सत-प्रतिशत भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। इस स्वतंत्रता संग्राम की शुरूआत 5 जून सन 1857 को झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई के नेतृत्त्व में झाँसी से हुई थी। इस क्रांति में झाँसी की वीरांगनाओं में झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई, मोतीबाई, काशीबाई, सुंदर और मुंदर आदि का उल्लेखनीय योगदान रहा है।


संदर्भ -

¹ नगर निगम झाँसी, महारानी लक्ष्मीबाई पार्क में स्थापित झाँसी की रानी की मूर्ति पर उत्कीर्ण शिलालेख, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड, भारत

² नंदकिशोर नवल (संपादक), स्वतंत्रता पुकारती, झाँसी की रानी (सुभद्रा कुमारी चौहान), साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, संस्करण 2006, पृष्ठ 198

³ न्यूज 18 हिन्दी, झाँसी की रानी के बारे में क्या सोचते थे अंग्रेज, 18 जून 2022

⁴ सुरेंद्र दुबे (संपादक), मेरी झाँसी, 1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी (जानकी शरण वर्मा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 19

⁵ सुरेंद्र दुबे (संपादक), मेरी झाँसी, 1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी (जानकी शरण वर्मा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 26

⁶ सुरेंद्र दुबे (संपादक), मेरी झाँसी, 1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी (जानकी शरण वर्मा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 27

⁷ सुरेंद्र दुबे (संपादक), मेरी झाँसी, 1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी (जानकी शरण वर्मा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 27-29

⁸ सुरेंद्र दुबे (संपादक), मेरी झाँसी, 1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी (जानकी शरण वर्मा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 29

⁹ संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार, अनसंग हीरोज डिटैल, आजादी का अमृत महोत्सव पोर्टल, वीरांगना मोतीबाई, भारत सरकार

https://amritmahotsav.nic.in/unsung-heroes-detail.htm?5918

¹⁰ गिरजाशंकर कुशवाहा, डिजिटल डिस्ट्रिक्ट रिपोजिटरी झाँसी, आजादी का अमृत महोत्सव पोर्टल, वीरांगना मोतीबाई, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 28 अगस्त 2023

https://amritmahotsav.nic.in/district-reopsitory-detail.htm?24114

¹¹ सुरेंद्र दुबे (संपादक), मेरी झाँसी, 1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी (जानकी शरण वर्मा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 29-32

¹² सुरेंद्र दुबे (संपादक), मेरी झाँसी, 1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी (जानकी शरण वर्मा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 33

¹³ सुरेंद्र दुबे (संपादक), मेरी झाँसी, 1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी (जानकी शरण वर्मा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 33

¹⁴ सुरेंद्र दुबे (संपादक), मेरी झाँसी, 1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी (जानकी शरण वर्मा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 33

¹⁵ सुरेंद्र दुबे (संपादक), मेरी झाँसी, 1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी (जानकी शरण वर्मा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 33

¹⁶ सुरेंद्र दुबे (संपादक), मेरी झाँसी, 1857 की अमर ज्योति वीरोत्तमा रानी लक्ष्मीबाई और उनकी झाँसी (जानकी शरण वर्मा), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृष्ठ 33

Thursday 20 June 2024

जब नेट जैसी परीक्षा रद्द हो सकती तो लोकसभा चुनाव रद्द क्यों नहीं हो सकता ???

*** जब नेट जैसी परीक्षा रद्द हो सकती तो लोकसभा चुनाव रद्द क्यों नहीं हो सकता ??? ***


https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=pfbid0VxvJueUvM9iNQhQHfnzo1b9GfkmD56NvXt9kyj5z5Zh4j85pSxcjgKLrfkWDkUPnl&id=100008537773866&mibextid=RtaFA8


#पूँछताहैभारतकायुवा

#छात्रों_के_भविष्य_के_साथ_खिलवाड़_बंद_करो

#लोकसभाचुनाव2024रद्दकरो


.1% गड़बड़ियों के चलते जब #यूजीसी #नेट जून 2024 #रद्द हो सकता है तो 5-10% गड़बड़ियों के चलते लोकसभा चुनाव 2024 रद्द क्यों नहीं हो सकता।





#शिक्षामंत्रालय और #भारत की #शिक्षाव्यवस्था पर #लानतहै।


क्या ऐसे बनेगा भारत #विश्वगुरु ???


नेट 2024 को रद्द करना ठीक नहीं है। 


प्रतिभाओं का दमन भारत की जनता बर्दाश्त नहीं करेगी।


#UGCNETJune2024Cancelled

#LanatHai

#NET #PaperLeak #NEET 

#यूजीसीनेटजून2024रद्द

#लानतहै #नेट #पेपरलीक #नीट 


आपका साथी -

किसान गिरजाशंकर कुशवाहा

 'कुशराज झाँसी' 

(अभ्यर्थी - यूजीसी नेट जून 2024)

Tuesday 11 June 2024

रास्ट्रीय सेबा योजना कौ लच्छ गीत - राष्ट्रीय सेवा योजना (NSS) के लक्ष्यगीत का बुंदेली अनुबाद - किसान गिरजासंकर कुसबाहा 'कुसराज झाँसी'

 *** रास्ट्रीय सेबा योजना कौ लच्छ गीत ***




उठें समाज के लानें उठें - उठें

जगें अपन देस के लानें जगें जगें

खुद सजें धरती सँबार दें - २


हम उठें उठेगी दुनिया हमाए संगे साथियों

हम बढ़ें तो सब बढेंगे खुदके खुद साथियों

जमीन पे आकास खों उतार दें - २

खुद सजें धरती सँबार दें - २


उदासियँन खों दूर कर खुसियँन खों बाँटत चलें

गाँओं उर सहिर की दूरियँन खों पाटत चलें

ग्यान खों पिरचार दें पिरसार दें

विग्यान खों पिरचार दें पिरसार दें

खुद सजें धरती सँबार दें - २


सक्तिसाली बच्चे, बूढे उर जनींमांनसें रएँ सदां

हरे भरी डाँग की ओढ़नी ओढ़त रए धरा

तरक्कियँन की इक नई कतार दें - २

खुद सजें धरती सँबार दें - २


जे जात धरम बोलीं बनें न आड़ गेल की।

बढ़ाएं बेल परेम की अखंडता की चाय की।

भाओना सें जो चमन निखार दें।

सदभाओना सें जो चमन निखार दें।

खुद सजें धरती सँबार दें - २


उठें समाज के लानें उठें - उठें

जगें अपन देस के लानें जगें जगें

खुद सजें धरती सँबार दें - २


      हिन्दी सें बुंदेली अनुबाद - 

©️ किसान गिरजासंकर कुसबाहा 'कुसराज झाँसी'

(छात्त - बुंदेलखंड कालिज, झाँसी ; स्वयंसेबक - रास्ट्रीय सेबा योजना ; युबा बुंदेलखंडी लिखनारो ; समाजिक कारीकरता)

_ ३० मार्च २०२३ _ १:१० दिन _ बुंदेलखंड दुनियाईग्यानपीठ, झाँसी


#रास्ट्रीयसेबायोजना #लच्छगीत #बुंदेली

#राष्ट्रीयसेवायोजना #लक्ष्यगीत #बुंदेलखंडी

#NSS #LakshyaGeet #Bundeli

Saturday 1 June 2024

वैचारिक लेख : समकालीन भारत में युवा-युवतियों के जीवन की पड़ताल - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

 #21वींसदीकाभारतीयसमाज


*** वैचारिक लेख - " समकालीन भारत में युवा-युवतियों के जीवन की पड़ताल " ***


समकालीन युग में हम देख रहे हैं कि भारतीय संस्कृति के केन्द्र के रूप में स्थापित देश की राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुंबई समेत महानगरों के साथ ही हमारे देश भारत के हर छोटे-बड़े नगरों में पाश्चात्य संस्कृति बड़ी तेजी से अपनायी जा रही है। जिसके कारण भारतीय समाज को विविध प्रकार की समस्याओं और हानियों का सामना करना करना पड़ रहा है। यदि अभी सजग नहीं हुए तो भविष्य में ऐसी ही अनेकों समस्याओं की जकड़न में जकड़ सकता है भारतीय समाज।


समकालीन युग में भारतीय समाज के लिए सबसे बड़ी हानियों की सूची में फैशन, नशा, धूम्रपान, देह-शोषण तथा बाजार का शिकार होना है। इनसे भी बड़ी हानि विश्व की प्राचीनतम और महानतम संस्कृति के रूप में शुमार सनातनी संस्कृति 'भारतीय संस्कृति' से विमुख होना है। 


अब ऐसी मान्यता स्थापित हो चुकी है कि सिर्फ साहित्य ही नहीं सिनेमा भी समाज का दर्पण है। यदि हम समकालीन सिनेमा में सबसे लोकप्रिय भारतीय सिनेमा 'हिन्दी सिनेमा' की पड़ताल करें, जिसे वैश्विक परिदृश्य में 'बॉलीवुड' के नाम से पहचाना जाता है तो हम पाते हैं कि समकालीन सिनेमा की कुछेक फिल्मों को छोड़कर हर फिल्म में आईटम सॉन्ग और आईटम नाच धड़ल्ले से प्रदर्शित किए जा रहे हैं। अभिनेत्रियों को विज्ञापनों और वस्तुओं के कवरों पर वस्तु की तरह पेश किया जा रहा है या अभिनेत्रियाँ स्वेच्छा से अपने आपको ऐसा पेश करने में गौरवान्वित महसूस कर रहीं हैं। समकालीन दौर में अभिनेत्रियाँ मॉडलिंग की आड़ में अर्द्धनग्नता और देह-प्रदर्शन के अलावा कुछ भी नहीं कर रहीं हैं। ये अभिनेत्रियाँ अपनी देह को बाजार की वस्तु बनाकर भोगवादियों की भाँति धनाढ्य बन रहीं हैं। फिल्मों में अभिनेत्रियाँ सिर्फ अभिनेता की शारीरिक आवश्यकताओं को पूरी करती हुईं नजर आ रहीं हैं। हमारे विचार से और भारतीय संस्कृति की मान्यताओं के हिसाब से सिनेमा का ऐसा रवैया कतई ठीक नहीं है।


ऐसा भी मान्यता है कि पुरूषप्रधान वाले क्षेत्रों जैसे - राजनीति, सिनेमा, साहित्य, मीडिया और उद्योग जगत में स्त्री को यौन-उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है और समाज में चरित्रहीनता के चलते बदनामी झेलनी पड़ती है। राजनीति-सिनेमा आदि में स्थापित होने के क्रम में स्त्रियों का देह-शोषण सोचनीय है। इसमें प्रेम-संबंध दूर-दूर तक नजर नहीं आते। राजनीति-सिनेमा आदि पुरुषवर्चस्व वाले क्षेत्रों के स्त्री-शोषण के रवैये को हम बिल्कुल भी ठीक नहीं मानते, ऐसी व्यवस्था को शीघ्र-अतिशीघ्र बदल दिया जाना चाहिए।


समकालीन दौर में हम देख रहे हैं कि परिवर्तन और विकास की सदी - 21वीं सदी में विश्व में हमारा देश 'भारत' सबसे युवा देश बनकर उभरा है यानी सबसे ज्यादा युवा शक्ति हम ही हैं। लेकिन विचारणीय एवं दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि समकालीन भारत के युवा-युवतियाँ फैशन, धूम्रपान, नशे और यौनेच्छा की लत के शिकार होते नजर आ रहे हैं।


सरकार की विकासवादी मंशा के मुताबिक देश के बाजार में चीन और पश्चिमी देशों में बने फैशनेबल पश्चिमी वेशभूषा और वस्तुएँ महँगे दामों में धड़ल्ले से बिक रही हैं। इन पश्चिमी वस्त्रों युवतियों और स्त्रियों का पूरा शरीर तक नहीं ढका होता है। कुछ तो तथाकथित आधुनिक और स्वछंद स्त्री दिखने हेतु ऐसे वस्त्रों का उपयोग करती हैं। 


इस होड़ में युवा और पुरूष भी बिल्कुल कम नहीं हैं, वो भी तथाकथित स्मार्ट बनने के चक्कर में सिगरेट तक फूँकने लगते हैं। दिल्ली- बम्बई में तो कॉलेज की लड़कियाँ तक सिगरेट फूँक रहीं हैं। सिर्फ इतना ही नहीं अपने तथाकथित प्रेमी के साथ गाँजा, ड्रग्स भी ले रहीं हैं। जो इन सबके के लिए जानलेवा है और समाज की सबसे बड़ी समस्या।


दिल्ली में कॉलेज लाइफ और सिविल सेवा की तैयारी के दौरान फैशन, नशा और यौनेच्छा के शिकार अधिकतर युवा-युवतियाँ हो रहे हैं। कॉलेज और कोचिंग में फरेबी प्रेम-प्रसंग के चलते यौन-शोषण का चलन चल रहा है। ऐसा माहौल बनाने में टिंडर, सोशल मीडिया और फोन बड़ी अहम भूमिका निभा रहे हैं।


जहाँ युवा कामेच्छा की पूर्ति हेतु तीन-चार प्रेमिकाएँ रख रहे हैं तो वहीं युवतियाँ पाँच-छः प्रेमी। चाणक्यनीति के मुताबिक स्त्रियों में काम-शक्ति पुरुषों से आठ गुना अधिक होती है। इस काम-शक्ति का प्रयोग तो युवतियाँ अनैतिक धंधे 'देह-व्यापार' हेतु कर रही हैं और कुछ कॉलगर्ल बन रहीं हैं तो कुछ वेश्याएँ। कॉलगर्ल, लिव-इन की संस्कृति और वेश्यावृत्ति से हानियाँ युवतियों और युवाओं दोनों को हैं। 


एक ओर, जहाँ युवा यौनेच्छा की पूर्ति हेतु हजारों रूपए खर्च कर देते हैं और साथ ही शारीरिक-मानसिक कमजोरी का दंश भी झेलते हैं और ठीक से पढ़ाई-लिखाई न कर पाने के कारण अपने कैरियर के साथ खिलवाड़ भी करते हैं। इसके अलावा अपने परिवार और समाज को भी धोखा देते हैं। एक समय बाद ऐसे भोगविलासी और नशेड़ी युवाओं की समाज में न तो कोई इज्जत बचती है और न ही कोई काम-धंधा मिलता है। इनमें से कुछ की हत्या कर दी जाती है और कुछ आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं। 


दूसरी ओर, वहीं कॉलगर्ल और वेश्यावृत्ति का धन्धा करने वाली युवतियों के साथ इन युवाओं से भी बुरा सलूक होता है। ये भी नशे की लत में पड़ जाती हैं और जीवन में अनेकों जानलेवा बीमारियों का सामना करती हैं। साथ ही अनैतिक यौन-संबंध के चलते शरीर को मानसिक और भौतिक कष्ट देने के अलावा अपनी सुंदरता और पहचान भी खो देती हैं। समाज में इनके साथ जानवरों से भी बुरा व्यवहार किया जाता है। इन्हें समाज में 'बाजारू औरत' कहा जाने लगता है और वो सम्मान नहीं मिलता, जो एक भारतीय नारी को मिलता है। इनका समाज में वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जाता है। 


समकालीन भारत के इन फैशन, नशा और यौनेच्छा की लत के शिकार युवा-युवतियों को फैशन, नशा और यौनेच्छा की लत से बचाने का सरकार को और हम सबको मिलकर यही उपाय करने चाहिए कि देश में जूनियर, हाईस्कूल से लेकर पोस्टग्रेजुएट पाठ्यक्रमों में 'यौन शिक्षा' या 'काम-शिक्षा' यानी 'सेक्स एजूकेशन' नामक विषय अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाना चाहिए। सरकार को विदेशी वस्तुओं की देश के बाजार में बिक्री पर रोक लगानी चाहिए और स्वदेशी वस्तुओं एवं भारतीय संस्कृति को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। धूम्रपान और नशीले पदार्थों के उत्पाद पर पूर्णतः रोक लगानी चाहिए, इसके लिए धूम्रपान सामग्री और नशीले पदार्थों का उत्पादन करने वालीं सारी सरकारी और प्राईवेट कम्पनियों को बंद कर देना चाहिए और इन कम्पनियों को खाद्य-उत्पाद कम्पनी के रूप में तब्दील कर देना चाहिए। सबको शिक्षा मिलना चाहिए और जन-जागरूकता का बिल्कुल अभाव नहीं होना चाहिए। ऐसे मेरे सपनों के समाज का निर्माण करने के लिए जनता को एकबार सशक्त क्रान्ति करनी होगी तभी नशामुक्त, सुरक्षित, शिक्षित और सशक्त भारत का निर्माण होगा और हमसब हरदम हर्षपूर्ण जीवन जिएँगे.....।


©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा

 'कुशराज झाँसी'

 (प्रवर्त्तक - बदलाओकारी विचारधारा)  

  _15/11/2019_7:12भोर _ दिल्ली

(संशोधन - 31/5/2024_11:16रात_झाँसी)


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