21वीं सदी के सन् 2010 के बाद का भारत - कुशराज झाँसी
लेख - " 21वीं सदी के सन् 2010 के बाद का भारत "
लेखक कुशराज झाँसी
21वीं सदी को 'विकास की सदी' की संज्ञा देना ठीक ही है। 21वीं सदी में सारी दुनिया में हर क्षेत्र में विकास हो रहा है। इसमें सूचना प्रौद्योगिकी, इण्टरनेट और सोशल मीडिया की अहम भूमिका है। इण्टरनेट के कारण हर खबर क्षण भर में सारी दुनिया में फैल रही है। इण्टरनेट के कारण ही भाषा, समाज और संस्कृति में कई सार्थक परिवर्तन हुए हैं। हर क्षेत्र में परिवर्तन होने भी चाहिए क्योकिं क्रान्ति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं।
आज भारत में इण्टरनेट और सोशल मीडिया का प्रयोग जोरों पर हो रहा है। गाँव - गाँव में सोशल मीडिया का सार्थक उपयोग होते हुए देखा जा रहा है। जो खबरें और समाचार अखबारों और पत्रिकाओं में कुछ घण्टों बाद मिलती थीं। वो सोशल मीडिया पर तत्काल मिल रही हैं, और अधिक प्रामाणिकता के साथ। सोशल मीडिया ने हर आदमी को अभिव्यक्ति की सच्ची आजादी दी है। यह दौर है - बोल कि लब आजाद हैं तेरे....... अर्थात् अपनी हर बात सब तक बेझिझक पहुँचाने का। हर लेखक को सच्चाई लिखकर समाज का सही मार्गदर्शन करके विश्वकल्याण में अपनी भूमिका निभाना चाहिए। आज युवा लेखक और नए लेखक बहुत बेहतर कर रहे हैं लेकिन स्थापित लेखक नहीं।
सन् 2014 का आमचुनाव भारतीय जनता पार्टी ने सोशल मीडिया पर भरपूर प्रचार - प्रसार के बलबूते जीता और श्री नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने। तथाकथितों द्वारा ऐसा माना जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में भारत 'नवभारत - विकसित भारत' बनकर उभरा और देश में विकास की गंगा बही। लेकिन हकीकत कुछ यूँ है - इस दौर में किसान आत्महत्याओं और बलात्कार के मामले हद से ज्यादा सामने आए। महाराष्ट्र में सन् 2015 से 2018 के बीच तकरीबन 12 हजार किसानों ने आत्महत्याएँ कीं। सारी दुनिया की भूँख मिटाने वाला, धरतीपुत्र किसान को दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं हुई। यत्र - तत्र किसान - आन्दोलन हुए लेकिन तानाशाही सरकार से किसान अपना हक पाने में नाकामयाब रहे। मजदूरों की हालात भी बहुत बुरी रही। सूखे की मार से ग्रसित बुन्देलखण्ड हमेशा उपेक्षित रहा। किसानों - मजदूरों के बच्चोँ की अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाई क्योंकि कुछेक को छोड़कर ज्यादातर सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की शिक्षा - व्यवस्था अस्त - व्यस्त रही। प्राईवेट
शिक्षण - संस्थानों और कॉन्वेंट स्कूलों का हाल और बुरा रहा। छात्र - छात्राओं को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद रोजगार और नौकरी के लिए दर - दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। भारत में शिक्षित बेरोजगार युवाओं की भरमार हो गयी है। युवाओं को सरकारें सिर्फ जुमले दे रही हैं।
सन् 2010 के बाद भारत के लिए आरक्षण घातक सिद्ध हो रहा है। आरक्षित लोग ही नौकरी - पेशा पाने में सफल हो रहे हैं। इसमें वो ही लोग हैं, जो कुछ हद तक सम्पन्न हैं लेकिन आज भी गरीब किसान - मजदूर और आदिवासियों के बच्चे आरक्षण नहीं पा रहे हैं क्योंकि देश में जागरूकता का अभाव है। अब भारत के हालात बहुत ठीक हो चुके हैं और अब समय आ गया है - आरक्षण को खत्म करने का। मोदी सरकार ने सन् 2018 -19 में 10% सवर्णों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था करी। आरक्षण देना अब भारत के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि विश्वगुरू भारत के निवासी वैसे ही प्रतिभाशाली होते हैं और आज के युवा तो 21वीं सदी के हैं, जो बहुत ज्यादा प्रतिभाशाली हैं।
सन् 2010 के बाद जाति - पाति, भाषा, क्षेत्र, धर्म के आधार पर कुछ ज्यादा ही भेदभाव देखने को मिला। इस दौर में राजनीति धर्म और जातिवाद पर केन्द्रित हो गई। शिक्षा, पर्यावरण और रोजगार को चुनावी मुद्दा बनाने के बजाय धर्म और सीमा सुरक्षा चुनावी मुद्दे बनने लगे और जिन पर चुनाव जीते भी गए। सन् 2014 का आमचुनाव अयोध्या राममन्दिर निर्माण के मुद्दे पर जीता गया लेकिन अभी तक भी राम मन्दिर नहीं बना और न ही बनने की संभावना है। सन् 2019 का आमचुनाव पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे पर जीता गया लेकिन देश के अन्दर के विवादों को सुलझाने की कोशिश भी नहीं की जा रही है। अब धर्म और सीमा सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बनाना भारत के हित में नहीं है। भारत के हित में है - शिक्षा, पर्यावरण, महिला सुरक्षा, किसान - मजदूर कल्याण और रोजगार को चुनावी मुद्दा बनाकर चुनाव जीतना और भारत को विकसित भारत - समर्थ भारत बनाने में अपना अतुलनीय योगदान देना। अब लगने लगा है कि देश का पतन हो रहा है लेकिन सब के सब चुप बैठें हैं। अपने काम से मतलब है और किसी से कोई लेना - देना नहीं। देश को बचाने के लिए सरकार के खिलाफ सशक्त क्रान्ति करो, तभी हम भी बच पाएँगे। मोदी सरकार ने देश की ऐतिहासिक इमारत लाल किले समेत अनेकों सरकारी कम्पनियों को बेच दिया है और निजीकरण कर दिया है। जागरूक देशवासियो अपना एक ही लक्ष्य बनाओ - क्रान्ति मन, क्रान्ति तन और क्रान्ति ही मेरा जीवन............
सन् 2010 के दशक में देश में बलात्कार, नारी - अत्याचार और हत्याओं के मामले कुछ ज्यादा ही सामने आए। इस दौर में इंसानियत यानि मानवता का अंत होते हुए दिखा। दरिन्दों - हैवानों ने 3 माह की मासूम बच्ची से बलात्कार और हत्या से लेकर युवतियों को हैवानियत का शिकार बनाया। चाहे वह निर्भया काण्ड हो, आशिफा काण्ड हो या फिर सञ्जलि और ट्विंकल अलीगढ़ हत्या काण्ड हो। इन सब घटनाओं ने देश की छवि को धूमिल कर दिया। बलात्कारियों और हत्यारों की सिर्फ एक ही सजा होनी चाहिए - सजा ए मौत फाँसी। इन दरिन्दों - हैवानों पर बिल्कुल भी नरमी नहीं बरती जानी चाहिए, तभी देश विकसित भारत बन पाएगा।
सन् 2010 के दशक में देश में भाषायी भेदभाव कुछ ज्यादा ही देखने को मिला। हर ओर हिन्दी बनाम अंग्रेजी का बोलबाला रहा।
आज हिन्दी भाषा आधुनिक भारतीय भाषाओँ का नेतृत्त्व कर रही है। देश की आधी से अधिक आबादी हिन्दी का प्रयोग कर रही है। हिन्दी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जानेवाली तीसरी भाषा भी बन गयी है। फिर भी उसकी जन्मभूमि भारत में ही 'हिन्दी' और उसकी जननी 'संस्कृत' की घोर उपेक्षा की जा रही है। आजकल सिर्फ अंग्रेजी का दौर नजर आ रहा है।
आज दुनिया के विभिन्न देशों के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्ययन - अध्यापन हो रहा है और हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद - 343 के अनुसार भारतीय संघ की राजभाषा और देश की सम्पर्क भाषा, कई राज्यों की राजभाषा होने के बावजूद विदेशी भाषा अंग्रेजी से मात खाती हुई दिखाई दे रही है। जो हम सबके लिए सोचनीय है।
आजकल हमारे देश में उस अंग्रेजी को जो स्वार्थ और धनलिपसा की परिचायक है, को विकास की भाषा और आधुनिक बुद्धजीवियों, प्रतिभाशालियों की भाषा करार दिया जा रहा है। हर जगह हिन्दी सह अंग्रेजी की बदौलत हिन्दी बनाम अंग्रेजी नजर आ रही है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद - 348 के अनुसार उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में संसद व राज्य विधानमण्डल में विधेयकों, अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा, उपबंध होने तक अंग्रेजी जारी रहेगी। जब देश की आमजनता को न्याय उसकी मातृभाषा में ही न सुनाया जाए तो इससे बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है ? आखिर कब हमें न्याय अपनी भाषा में मिलेगा ?......
आजकल अंग्रेजी का बोलबाला संघ लोकसेवा आयोग (यू. पी. एस. सी.) की सिविल सेवा परीक्षा (सी. एस. ई.) में कुछ ज्यादा ही दिख रहा है। सिविल सेवा परीक्षा में जहाँ हिन्दी माध्यम के सिर्फ 40 - 50 अभ्यर्थी ही सफल हो पाते हैं और वहीँ अंग्रेजी माध्यम के 850 - 950 अभ्यर्थी सफल होते हैं। आजतक कोई भी हिन्दी माध्यम से सिविल सेवा परीक्षा में टॉप नहीं कर सका। जो हमारी राजभाषा हिन्दी के लिए घोर अपमानजनक है। जबतक देश की सर्वोच्च परीक्षा में ही विदेशी भाषा अंग्रेजी का बोलबाला रहेगा तबतक हिन्दी वालों का उद्धार न हो सकेगा और न ही देश का विकास। आखिर कब सिविल सेवा परीक्षा से अंग्रेजी माध्यम का अस्तित्त्व खत्म होगा ? आखिर कब सिविल सेवा परीक्षा में हिन्दी माध्यम वालों को उनका हक मिलेगा ? मेरा मत है कि सिविल सेवा परीक्षा सिर्फ और सिर्फ देशीभाषाओँ में ही होनी चाहिए तभी देश का विकास हो सकेगा।
शिक्षा - संस्थान ही भाषा का सच्चा प्रचार - प्रसार करते हैं और छात्र ही देश के भाग्यविधाता होते हैं। आजकल देश दुनिया में प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय और संबद्ध कॉलेजों में अधिकतर कार्यालयी काम - काज सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में हो रहे हैं। वहीँ कॉलेजों में हिन्दी भाषा और साहित्य को लेकर लाखों - करोड़ों रूपए राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों (सेमिनारों), व्याख्यानों,पत्र - पत्रिका और पुस्तक प्रकाशन तथा प्रतियोगिताओं में खर्च किए जा रहे हैं। अधिकतर हिन्दी के प्रोफेसर, छात्र और साहित्यकार ही हिन्दी में हस्ताक्षर नहीं करते। ये तथाकथित लोग सिर्फ और सिर्फ भाषणों में ही हिन्दी के प्रयोग और विकास की बात करते हैं और जमीनी स्तर पर नाममात्र के काम करते हैं। स्नातक हिन्दी ऑनर्स, संस्कृत ऑनर्स और दो - चार कोर्सों को छोड़कर सभी स्नातक और परास्नातक पाठ्यक्रमों का अध्ययन - अध्यापन अंग्रेजी माध्यम में ही हो रहा है। जब अपने ही देश के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अपनी मातृभाषा में अध्ययन - अध्यापन ही नहीं कर पा रहे हैं तो और कहाँ कर पाएँगे। आखिर कब देश के हर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में सारे कोर्सों का अध्ययन - अध्यापन मातृभाषा, हिन्दी माध्यम में होगा ?
आज हमारे लिए सबसे बड़ी दुःख की बात यह है कि भारतीय संस्कृति पर नाज करने वाली, हिन्दूवादी एवं राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्त्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रदेश के गाँव - गाँव ने अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोल रहे हैं और देश के भविष्य 'छात्रों' को अंग्रेजी के मानसिक गुलाम बना रहे हैं। हमारी मातृभाषा हिन्दी का अपमान कर रहे हैं। हमारी शिक्षा - व्यवस्था चुस्त - दुरुस्त न होने की बजह से इन गाँवों के सरकारी स्कूलों में हिन्दी माध्यम की पढ़ाई - लिखाई ठीक से नहीं हो रही है। यहाँ पर शिक्षा विद्यार्थियों का मिड - डे मील की सामग्री तक हजम कर जा रहे हैं। ऊपर से सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के मताई - बाप किसान - मजदूर हैं, जिन्हें अपने काम से ही फुर्सत नहीं मिलता। यदि फुर्सत मिले तो ये अपने बच्चों की पढ़ाई का जायजा भी ले सकें। ये किसान - मजदूर कर ही क्या सकते हैं, जो करना है सरकार को करना है। सरकार द्वारा अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल खोलकर जनमानस और ज्यादा बेरोजगारी और कुशिक्षा को बढ़ावा देने की साजिश नजर आ रही हैं। अंग्रेजी माध्यम की जगह सरकार को क्षेत्रीय भाषाओँ और बोलियों वाले माध्यमों में स्कूल खोलने चाहिए ताकि विद्यार्थी अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा प्राप्त कर सके और मातृभाषा का विकास कर सके। सरकार को अंग्रेजी माध्यम में संचालित होने वाली संस्थाओं पर प्रतिबंध भी लगाना चाहिए। माननीय मुख्यमंत्री को हिन्दी के साथ - साथ संस्कृत भाषा को अनिवार्य करना चाहिए और अंग्रेजी का पूर्णतः बहिष्कार करना चाहिए तभी हमारी भारतीय संस्कृति की विजयी पताका सारी दुनिया में लहर सकेगी और भारत देश विकसित देश बन सकेगा। हमें हमेशा अपनी मातृभाषा में काम करना चाहिए। इस संदर्भ में मेरा लेख 'अपनी मातृभाषा में काम करो' उल्लेखनीय है। जो इस प्रकार है -:
आज मेरी सबसे बड़ी कमी और परेशानी ये है कि मुझे अंग्रेजी नहीँ आती है। मैं न ठीक से अंग्रेजी समझ पाता हूँ और न ही बोल पाता हूँ। मुझे अंग्रेजी का थोड़ा बहुत ज्ञान तो है। पर सबसे बड़ी बात ये है कि मैं विदेशी भाषा को उतना महत्त्व नहीं देता जितना अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा 'हिन्दी' को और आपसे भी कहता हूँ कि आप भी मेरा साथ दीजिए और विदेशी भाषा का कामचलाऊ ज्ञान रखिए और अपनी मातृभाषा में सारा काम कीजिए और अपनी तरक्की और अपने देश की तरक्की कीजिए ।
कोई भी देश किसी विदेशी भाषा में कामकाज करके तरक्की नहीं करता और न ही कर सकता है। प्रत्येक विकसित देश सदैव अपनी मातृभाषा में काम करके इस मुकाम तक पहुँचा है। इसी संबंध में 'भारतेंदु हरिश्चन्द जी' ने कहा हैं - " निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।। "
इस दौर में अपने हक और अधिकारों के लिए आवाज बुलन्द करना सबसे बड़ा गुनाह समझा जाने लगा। जो राष्ट्रवादियों से इतर हैं और देश की सच्चाई बयाँ करके अधिकारों की लड़ाई लड़ता है, उस पर देशद्रोह और राजद्रोह का आरोप तक लगाए गए। जो बिल्कुल भी ठीक नहीं है। भारतीय संविधान के समानता का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार आदि कानूनों का ठीक से पालन भी नहीं किया गया। यहाँ तक कि संविधान की अवहेलना भी की गयी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दुनिया के कई देशों की यात्राएँ कीं और संबंध स्थापित किए लेकिन देश के ही आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों, पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों और नक्सली इलाकों में मोदी ने न के बराबर ही दौरे किए और इनके विकास पर मंथन भी कम ही किया। देश में सांप्रदायिक दंगे भड़के और इन्हें शांत करने में काफी मेहनत करनी पड़ी। आखिर सांप्रदायिक दंगे होने की सम्भावना क्यों बनी ? जितनी देश की बाह्य (सीमा) सुरक्षा जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है देश की आंतरिक (गृह) सुरक्षा। देश में हमेशा ऐसा माहौल रहना चाहिए कि कभी भी गृह - युद्ध की संभावना ही न बने। तभी देश का निरन्तर विकास होता रहता है।
✍ कुशराज झाँसी
_13/6/2019__9:00 रात _ जरबौगॉंव
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