गणेश उत्सव आस्था की परंपरा - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

आप सभी हिन्दू धर्मावलंबियों, देशवासियों और बुन्देलखण्डवासियों को गणेश उत्सव की भौत - भौत शुभकामनाएँ 🌷🌷🌷🌺🌺🌺🚩🚩🚩


गणेश उत्सव - २०३३ पर विशेष लेख....


*** गणेश उत्सव आस्था की परंपरा ***

©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

(सदस्य - बुंदेलखंड साहित्य उन्नयन समिति, झाँसी)

16/9/2023, झाँसी



           चित्र : गणेश उत्सव (साभार - गूगल)


आज गणेश चतुर्थी से गणेश उत्सव प्रारंभ हो रहा है। गणेश उत्सव आस्था की परंपरा का पर्व है। जब हमारा भारत देश पराधीनता की जंजीरों में जकड़ा हुआ था तब देश की आजादी के मतवालों ने अँग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाने के लिए अपनी जान की बाजी लगाते हुए देश को आजाद कराने के लिए अनेकानेक जनजागरण आंदोलन किए।  देश के लाखोंलाख लोगों ने अपनी प्राणों की कुर्बानी देकर देश को आजादी दिलाई। क्रांतिकारी हों या समाज सुधारक, राजनेता हों या साधु - संत, साहित्यकार हों या देश के गरीबगुरबे सभी ने आजादी के महायज्ञ में अपनी - अपनी आहुतियाँ दीं। गणेश उत्सव के इतिहास और उसकी मंशा को समझने के लिए लेखक रमेश सर्राफ के विचारों से अवगत होना भी आवश्यक है। वे लिखते हैं -

देश की आजादी के आन्दोलन में गणेश उत्सव ने भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। सन 1894 में अंग्रेजों ने धारा 144 भारत में एक कानून बनाया था, जो आजादी के इतने वर्षों बाद आज भी लागू है। इस कानून में किसी भी स्थान पर 5 से अधिक व्यक्ति इकट्ठे नहीं हो सकते थे और न ही समूह बनाकर कहीं प्रदर्शन कर सकते थे। महान क्रांतिकारी बंकिमचंद्र चटर्जी ने 1882 में वन्देमातरम गीत लिखा था। जिस पर भी अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा कर गीत गाने वालों को जेल में डालने का फरमान जारी कर दिया था। इन दोनों बातों से लोगों में अंग्रेजों के प्रति बहुत नाराजगी व्याप्त हो गयी थी। लोगों में अंग्रेजों के प्रति भय को खत्म करने और इस कानून का विरोध करने के लिए महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणपति उत्सव की स्थापना की और सबसे पहले पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव यानी गणेश उत्सव का आयोजन किया गया।


1894 से पहले लोग अपने-अपने घरों में गणपति उत्सव मनाते थे, लेकिन 1894 के बाद इसे सामूहिक तौर पर मनाने लगे। पुणे के शनिवारवड़ा के गणपति उत्सव में हजारों लोगों की भीड़ उमड़ी। लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजों को चेतावनी दी कि हम गणपति उत्सव मनाएंगे, अंग्रेज पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके दिखाए। कानून के मुताबिक अंग्रेज पुलिस किसी राजनीतिक कार्यक्रम में एकत्रित भीड़ को ही गिरफ्तार कर सकती थी, किसी धार्मिक समारोह मे उमड़ी भीड़ को नहीं। गणेश उत्सव के पीछे सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य भी निहित रहा है। 20 अक्तूबर 1894 से 30 अक्तूबर 1894 तक पहली बार 10 दिनों तक पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव मनाया गया। लोकमान्य तिलक वहाँ भाषण के लिए हर दिन किसी बड़े नेता को आमंत्रित करते। 1895 में पुणे के शनिवारवाड़ा में 11 गणपति स्थापित किए गए। उसके अगले साल 31 और अगले साल ये संख्या 100 को पार कर गई। फिर धीरे -धीरे महाराष्ट्र के अन्य बड़े शहरों अहमदनगर मुंबई, नागपुर, थाणे तक में गणपति उत्सव बढ़ता गया। गणपति उत्सव में हर वर्ष हजारों लोग एकत्रित होते और बड़े नेता उसको राष्ट्रीयता का रंग देने का कार्य करते थे। इस तरह लोगों का गणपति उत्सव के प्रति उत्साह बढ़ता गया और राष्ट्र के प्रति चेतना बढ़ती गई।


1904 में लोकमान्य तिलक नें लोगों से कहा - 

" गणपति उत्सव का मुख्य उद्देश्य स्वराज्य हासिल करना है। आजादी हासिल करना है और अंग्रेजों को भारत से भगाना है। आजादी के बिना गणेश उत्सव का कोई महत्व नहीं रहेगा।" तब पहली बार लोगों ने लोकमान्य तिलक के इस उद्देश्य को बहुत गंभीरता से समझा। आजादी के आन्दोलन में लोकमान्य तिलक द्वारा गणेश उत्सव को लोकोत्सव बनाने के पीछे सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य था। लोकमान्य तिलक ने ब्राह्मणों और गैर ब्राह्मणों की दूरी समाप्त करने के लिए यह पर्व प्रारम्भ किया था जो आगे चलकर एकता की मिसाल बना। जिस उद्देश्य को लेकर लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव को प्रारम्भ करवाया था वो उद्देश्य आज कितने सार्थक हो रहें हैं। आज के समय में पूरे देश में पहले से कहीं अधिक धूमधाम के साथ गणेश उत्सव मनाए जाते हैं, मगर आज गणेश उत्सव में दिखावा अधिक नजर आता है। आपसी सद्भाव व भाईचारे का अभाव दिखता है।


आज गणेश उत्सव के पण्डाल एक दूसरे के प्रतिस्पर्धात्मक हो चले हैं। गणेश उत्सव में प्रेरणाएं कोसों दूर होती जा रही हैं और इनको मनाने वालों में एकता नाममात्र की रह गई है। हमें एक बार फिर से संगठित होकर गणेश उत्सव को इतनी खुशी और धूमधाम से मनाना चाहिए, जिससे समाज में एकता और भाईचारा बढ़ सके। नाइंसाफियों का खात्मा हो। समाज के दबे - कुचले लोगों को समाज की मुख्यधारा में शामिल होने के अवसर मिलें। अभाव ग्रस्त बच्चों को शिक्षा, संस्कार , संरक्षण और स्वावलंबन के अवसर मिलें। धर्मांधता, कट्टरता, आतंकवाद, अस्पृश्यता जैसी समाजविभेदक विसंगतियों का संहार हो। मातृशक्ति के प्रति आदरभाव विकसित हो, पाखण्ड और अँधविश्वास के स्थान पवित्र पर अध्यात्म व वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाते हुए संस्कृति के जीवनमूल्यों की पुनर्स्थापना करें। राष्ट्रीय एकता, अखण्डता और संवैधानिक मूल्यों के प्रति हमारा सहज समर्पण भाव विकसित हो। यदि हम यह महत्त्वपूर्ण कार्य कर पाए तभी गणेश उत्सव पर्व की सार्थकता है।



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