Wednesday 25 September 2024

हिन्दू धर्म की वर्ग-व्यवस्था पर कुशराज के विचार

 

हिन्दू धर्म की वर्ग-व्यवस्था पर कुशराज के विचार


"जब पंडित, किसान, व्यापारी, दलित और आदिवासी पाँचों हिन्दू हैं तो फिर मंदिर में पुजारी बनने का अधिकार सिर्फ पंडित को ही क्यों किसान, व्यापारी, दलित और आदिवासी को क्यों नहीं ??? "

- किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज'

(बदलाओकारी लेखक, सामाजिक कार्यकर्त्ता)

11/09/2024


#धर्म #जाति #हिन्दू #ब्राह्मण 

#क्षत्रिय #वैश्य #शूद्र #वनवासी

#पंडित #किसान #व्यापारी 

#दलित #आदिवासी 

#मढ़ियामहादेवमंदिर #झाँसी 

#अखंडबुंदेलखंड

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 और विकलांगता - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज'

 शोध आलेख : “ राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 और विकलांगता ”


©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज'

(युवा आलोचक, किसानवादी विचारक)

पता - 212 नन्नाघर, जरबौ गॉंव, बरूआसागर, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड (284201)

संपर्क - 9569911051

ईमेल - kushraazjhansi@gmail.com


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21वीं सदी अस्मितामूलक विमर्शों के चहुँमुखी विकास हेतु वरदान साबित हो रही है। इस सदी में विकलांग विमर्श की साहित्य जगत में अनोखी पहचान बनी है। विकलांग विमर्श का प्रवर्त्तन डॉ० विनय कुमार पाठक ने बिलासपुर (छत्तीसगढ़) की धरती से किया है। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श आदि परंपरागत अस्मितामूलक विमर्शों के समानांतर 21वीं सदी में किन्नर विमर्श, विकलांग विमर्श, किसान विमर्श, पर्यावरण विमर्श, वृद्ध विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, बाल विमर्श, पुरूष विमर्श, वेश्या विमर्श और भिक्षुक विमर्श आदि नए अस्मितामूलक विमर्शों का विकास बड़ी तेजी से हो रहा है। ये अस्मितामूलक विमर्श हाशिए के समाज की वैश्विक पटल पर अनोखी पहचान बनाने में सफल रहे हैं। इन विमर्शों की अपार शक्ति के कारण ही हाशिए के समाज को उनके मौलिक अधिकार मिल पा रहे हैं और वे मुख्यधारा के समाज के साथ मिलकर अपने विकास के नए द्वार खोल रहे हैं।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 21वीं सदी के भारत की पहली शिक्षा नीति है और अब तक की तीसरी शिक्षा नीति है। इसके पहले की दो शिक्षा नीतियाँ सन 1968 और सन 1986 में आईं थीं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 भारत सरकार द्वारा 29 जुलाई 2020 को जारी की गई। इस शिक्षा नीति का लक्ष्य भारत को ‘वैश्विक ज्ञान महाशक्ति’ के रूप में प्रतिष्ठित करना रखा गया है।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 में उसके उद्देश्यों को रेखांकित करते हुए कहा गया है - “यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020, 21वीं शताब्दी की पहली शिक्षा नीति है जिसका लक्ष्य हमारे देश के विकास के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना है। यह नीति भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को बरकरार रखते हुए, 21वीं सदी की शिक्षा के लिए आकांक्षात्मक लक्ष्यों, जिनमें एसडीजी 4 शामिल हैं, के संयोजन में शिक्षा व्यवस्था, उसके नियमन और गवर्नेंस सहित, सभी पक्षों के सुधार और पुनर्गठन का प्रस्ताव रखती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति प्रत्येक व्यक्ति में निहित रचनात्मक क्षमताओं के विकास पर विशेष जोर देती है। यह नीति इस सिद्धांत पर आधारित है कि शिक्षा से न केवल साक्षरता और संख्याज्ञान जैसी 'बुनियादी क्षमताओं' के साथ-साथ उच्चतर स्तर' की तार्किक और समस्या समाधान संबंधी संज्ञानात्मक क्षमताओं का विकास होना चाहिए बल्कि नैतिक, सामाजिक और भावनात्मक स्तर पर भी व्यक्ति का विकास होना आवश्यक है।”¹


भारत सरकार द्वारा सन 2015 में अपनाए गए सतत विकास एजेंडा - 2030 के लक्ष्य-4 (एसडीजी-4) में परिलक्षित वैश्विक शिक्षा विकास एजेंडा के अनुसार, विश्व में 2030 तक “सभी के लिए समावेशी और समान गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन-पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने” का लक्ष्य रखा गया है। इस प्रकार के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु संपूर्ण शिक्षा प्रणाली को समर्थन और अधिगम को बढ़ावा देने के लिए पुनर्गठित करने की आवश्यकता होगी, ताकि सतत विकास के लिए 2030 एजेंडा के सभी लक्ष्य प्राप्त किए जा सकें।


अब हम ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 और विकलांगता’ के बारे में बात करते हैं। ‘विकलांगता’ की समस्या से ग्रसित मानव-मानवी ‘विकलांग’ कहलाते हैं। इन विकलांगों की समस्याओं और उनके समाधान सहित उनके जीवन के हर पहलू की सशक्त अभिव्यक्ति जिस अस्मितामूलक विमर्श में होती है, उसे ‘विकलांग विमर्श’ कहते हैं। विकलांगों के जीवन पर लिखे गए साहित्य को ‘विकलांग साहित्य’ और विकलांगों के हक में अपनी कलम चलाने वाले साहित्यकारों को ‘विकलांग साहित्यकार’ कहते हैं। हम विकलांग विमर्श को ‘दिव्यांग विमर्श’ कहना ज्यादा उचित समझते हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 में ‘विकलांग’ हेतु ‘दिव्यांग’ शब्द का ही प्रयोग किया गया है। दिव्यांगों के विकास में शिक्षा का अविस्मरणीय योगदान है। 


राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 में शिक्षा प्रणाली और व्यक्तिगत संस्थानों के मार्गदर्शन हेतु इन मूलभूत सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है - (1.) हर बच्चे की विशिष्ट क्षमताओं की स्वीकृति, पहचान और उनके विकास हेतु प्रयास करना (2.) बुनियादी साक्षरता और संख्याज्ञान को सर्वाधिक प्राथमिकता देना (3.) सभी ज्ञान की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने के लिए एक बहु-विषयक दुनिया के लिए विज्ञान (4.) नैतिकता, मानवीय और संवैधानिक मूल्य 

(5.) बहुभाषिकता (6.) जीवन कौशल (7.) सीखने के लिए सतत मूल्यांकन पर जोर आदि के साथ ही ‘तकनीकी के यथासंभव उपयोग पर जोर’ नामक मूलभूत सिद्धांत के अन्तर्गत दिव्यांगों की शिक्षा को सुलभ बनाने हेतु जोर देते हुए कहा गया है - “अध्ययन-अध्यापन कार्य में, भाषा संबंधी बाधाओं को दूर करने में, दिव्यांग बच्चों के लिए शिक्षा को सुलभ बनाने में और शैक्षणिक नियोजन और प्रबंधन में तकनीकी के यथासंभव उपयोग पर जोर दिया जाना चाहिए।”²


‘प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा : सीखने की नींव’ शीर्षक के उपशीर्षक ‘ड्रापआउट बच्चों की संख्या कम करना और सभी स्तरों पर शिक्षा की सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित करना’ में दिव्यांग सशक्तिकरण पर जोर देते हुए कहा गया है - “दूसरा यह है कि स्कूलों में सभी बच्चों की सहभागिता सुनिश्चित हो, इसके लिए बहुत ध्यान से सभी विद्यार्थियों की ट्रैकिंग करनी होगी, साथ-साथ उनके सीखने के स्तर पर भी नजर रखनी होगी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे (क) स्कूल में दाखिला ले रहे हैं और उपस्थित हो रहे हैं (ख) ड्रॉपआउट बच्चों के लौटने और यदि वे पीछे रह गए हैं तो उन्हें पुनः मुख्यधारा से जोड़ने के लिए पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध हैं। फाउंडेशनल स्टेज से लेकर कक्षा 12 तक की स्कूली शिक्षा के जरिये 18 वर्ष की आयु तक सभी बच्चों को समान गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करने के लिए बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। प्रशिक्षित शिक्षकों और कार्मिकों की भर्ती विद्यालय में की जाएगी जिससे शिक्षक हमेशा छात्रों और उसके अभिभावक के साथ कार्य कर सकें। इसके साथ यह भी सुनिश्चित किया जा सके कि सभी विद्यार्थी विद्यालय आ रहे हैं और सीख रहे हैं। राज्य और जिला स्तर पर दिव्यांग व्यक्तियों के सशक्तीकरण से जुड़े सिविल सोसायटी संगठन / सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभागों के प्रशिक्षित और योग्य सामाजिक कार्यकर्ता राज्य / केन्द्र शासित प्रदेश सरकारों द्वारा अपनाए गए विभिन्न नवीन तंत्रों के माध्यम से इस आवश्यक कार्य को करने में स्कूलों से जुड़े हो सकते हैं।”³


राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 में दिव्यांग छात्र-छात्राओं हेतु विशिष्ट शिक्षक नियुक्त करने का प्रावधान किया गया है - “स्कूल शिक्षा के कुछ क्षेत्रों में अतिरिक्त विशिष्ट शिक्षकों की अति आवश्यकता है। इन विशिष्ट आवश्यकताओं के कुछ उदाहरणों में मिडिल और माध्यमिक स्तर में विकलांग / दिव्यांग बच्चों, ऐसे छात्रों सहित जिन्हें सीखने में कठिनाई (लर्निंग डिसेबिलिटी) होती है, के शिक्षण हेतु विषयों का शिक्षण शामिल हैं। इन शिक्षकों को सिर्फ विषय-शिक्षण ज्ञान और विषय संबंधित शिक्षण के उद्देश्यों की समझ ही नहीं, बल्कि विद्यार्थियों की विशेष आवश्यकताओं को समझने के लिए उपयुक्त कौशल भी होने चाहिए। 

इसलिए इन क्षेत्रों में विषय शिक्षकों और सामान्य शिक्षकों को उनके शुरूआती दौर में या फिर सेवा पूर्व शिक्षक की तैयारी होने के बाद द्वितीयक विशेषज्ञता विकसित की जा सकती है। इसके लिए शिक्षकों को सेवाकालीन और पूर्व-सेवाकालीन मोड में, पूर्णकालिक या अंशकालिक / मिश्रित कोर्स बहुविषयक महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में उपलब्ध कराये जायेंगे। योग्य विशेष शिक्षकों, जो विषय शिक्षण को भी संभाल सकते हों, की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए एनसीटीई और आरसीआई के पाठ्यक्रम के बीच व्यापक तालमेल को सक्षम किया जाएगा।”⁴


इस शिक्षा नीति में दिव्यांगों की शिक्षा में सुधार की पहल भी गई है और स्कूलों में दिव्यांग बच्चों के नामांकन पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया है - “यू-डीआईएसई 2016-17 के आंकड़ों के अनुसार, प्राथमिक स्तर पर लगभग 19.6% छात्र अनुसूचित जाति के हैं, किन्तु उच्चतर माध्यमिक स्तर यह प्रतिशत कम होकर 17.3% हो गया है। नामांकनों में ये गिरावट अनुसूचित जनजाति के छात्रों (10.6% से 6.8%) और दिव्यांग बच्चों (1.1% से 0.25%) के लिए अधिक गंभीर हैं। इनमें से प्रत्येक श्रेणी में महिला छात्रों के लिए इन नामांकनों में और भी अधिक गिरावट आई है। उच्चतर शिक्षा में नामांकन में गिरावट और भी अधिक है।”⁵


राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 दिव्यांगों की समग्र शिक्षा हेतु प्रावधान करती है। इसमें दिव्यांगों की शिक्षा पर विशेष रूप से जोर देकर कहा भी गया है - “यह नीति विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों (सीडबल्यूएसएन) या दिव्यांग बच्चों को किसी भी अन्य बच्चे के समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्रदान करने के लिए सक्षम तंत्र बनाने के महत्व को भी पहचानती है।”⁶


‘समतामूलक और समावेशी शिक्षा : सभी के लिए अधिगम’ के अंतर्गत इस शिक्षा नीति में दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम – 2016 का उल्लेख करते हुए दिव्यांगों की समावेशी शिक्षा हेतु निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं - 


  1. ईसीसीई में दिव्यांग बच्चों को शामिल करना और उनकी समान भागीदारी सुनिश्चित करना भी इस नीति की सर्वोच्च प्राथमिकता होगी। दिव्यांग बच्चों को प्रारम्भिक स्तर से उच्चतर स्तर तक की शिक्षण प्रक्रियाओं में सम्मिलित होने के लिए सक्षम बनाया जाएगा। दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 (आरपीडबल्यूडी अधिनियम समावेशी शिक्षा को एक ऐसी व्यवस्था के रूप में परिभाषित करता है जहाँ सामान्य व दिव्यांग, सभी बच्चे एक साथ सीखते हैं तथा शिक्षण व सीखने की प्रणाली को इस प्रकार अनुकूलित किया जाता है कि वह प्रत्येक बच्चे की सभी सामान्य अथवा विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो। यह नीति आरपीडबल्यूडी अधिनियम 2016 के सभी प्रावधानों के साथ पूरी तरह से सुसंगत है तथा स्कूली शिक्षा के संबंध में इसके द्वारा प्रस्तावित सभी सिफारिशों को पूरा करती है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा तैयार करते समय एनसीईआरटी द्वारा दिव्यांगजन विभाग के राष्ट्रीय संस्थानों जैसे विशेषज्ञ संस्थानों के साथ परामर्श सुनिश्चित किया जाएगा।”⁷


  1. इसके लिए, दिव्यांग बच्चों के एकीकरण को ध्यान में रखते हुए विद्यालय व विद्यालय परिसरों की वित्तीय मदद की दृष्टि से सुस्पष्ट व कुशल प्रावधानों की व्यवस्था की जायेगी। इसके साथ यह भी ध्यान दिया जाएगा कि विद्यालय व विद्यालय परिसरों में दिव्यांग बच्चों की आवश्यकता से संबंधित प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षकों की नियुक्ति की जाए। साथ ही, गंभीर अथवा एक से अधिक अक्षमता वाले बच्चों के लिए जहाँ भी आवश्यकता हो, एक संसाधन केंद्र स्थापित किया जाएगा। आरपीडबल्यूडी अधिनियम के अनुरूप दिव्यांग बच्चों के लिए बाधा मुक्त पहुँच सुनिश्चित की जाएगी। विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की विभिन्न श्रेणियों के अनुरूप विद्यालय अथवा विद्यालय परिसर कार्य करेंगें जिससे प्रत्येक बच्चे की आवश्यकता के अनुरूप मदद सुनिश्चित करने हेतु उपयुक्त प्रणाली विकसित की जायेगी ताकि कक्षा कक्ष में उनकी पूर्ण प्रतिभागिता व समावेशन सुनिश्चित किया जाए। कक्षा में शिक्षकों व अन्य सहपाठियों के साथ आसानी से जुड़ने के लिए विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को कुछ सहायक उपकरण, उपयुक्त तकनीक आधारित उपकरण, भाषा उपयुक्त शिक्षण सामग्री (जैसे बड़े प्रिंट और ब्रेल प्रारूपों में सुलभ पाठ्य पुस्तकें) पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करवाएं जायेंगे। यह कला, खेल और व्यावसायिक शिक्षा सहित सभी स्कूली गतिविधियों पर भी लागू होगा। एनआईओएस भारतीय संकेत भाषा सिखाने के लिए और भारतीय संकेत भाषा का उपयोग करके अन्य बुनियादी विषयों को सिखाने के लिए उच्चतर गुणवत्ता वाले मॉड्यूल विकसित करेगा। साथ ही दिव्यांग बच्चों की सुरक्षा पर पर्याप्त ध्यान दिया जाएगा।”⁸


  1. आरपीडबल्यूडी अधिनियम 2016 के अनुसार, मूल दिवयांगता वाले बच्चों के पास नियमित या विशेष स्कूली शिक्षा का विकल्प होगा। विशेष शिक्षकों के माध्यम से स्थापित संसाधन केंद्र, गंभीर अथवा एक से अधिक विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के पुर्नवास व शिक्षा से संबंधित आवश्यकताओं में मदद करेंगे एवं साथ ही उच्चतर गुणवत्ता की शिक्षा घर में ही उपलब्ध कराने (होम स्कूलिंग) व कौशल विकसित करने की दिशा में उनके माता-पिता / अभिवावकों को भी मदद करेंगे। स्कूलों में जाने में असमर्थ गंभीर और गहन दिव्यांग्ता वाले बच्चों के लिए गृह-आधारित शिक्षा के रूप में एक विकल्प उपलब्ध रहेगा। गृह-आधारित शिक्षा के तहत शिक्षा ले रहे बच्चों को अन्य सामान्य प्रणाली में शिक्षा ले रहे किसी भी अन्य बच्चे के समतुल्य माना जायेगा। गृह आधारित शिक्षा की दक्षता व प्रभावशीलता की जांच हेतु समता व अवसर की समानता के सिद्धांत पर आधारित ऑडिट कराया जाएगा। आरपीडबल्यूडी अधिनियम 2016 के अनुरूप इस ऑडिट के आधार पर गृह-आधारित स्कूली शिक्षा के लिए दिशानिर्देश और मानक विकसित किए जाएंगे। हालांकि यह स्पष्ट है कि दिव्यांग बच्चों की शिक्षा राज्य की जिम्मेदारी है इसके लिए माता पिता / देखरेख करने वालों के उन्मुखीकरण से लेकर बड़े स्तर पर प्राथमिकता के साथ अधिगम सामग्री के व्यापक प्रचार-प्रसार के प्रौद्योगिकी आधारित समाधान किये जायेंगे, जिनके माध्यम से माता पिता / देखरेख करने वाले अपने बच्चे की आवश्यकता के अनुरूप मदद कर पायें।”⁹


  1. “विशिष्ट दिव्यांगता वाले बच्चों (सीखने से सम्बंधित अक्षमताओं के साथ) को कैसे पढाया जाए, इससे संबंधित जागरूकता और ज्ञान को सभी शिक्षक प्रशिक्षणों का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। साथ ही लैंगिक संवेदनशीलता व अल्प प्रतिनिधित्व वाले समूहों के प्रति संवेदनशीलता विकसित की जानी चाहिए जिससे उनकी प्रतिभागिता की स्थिति को बेहतर किया जा सके।”¹⁰



इस शिक्षा नीति में ‘स्कूल कॉम्प्लेक्स / क्लस्टर के माध्यम से कुशल संसाधन और प्रभावी गवर्नेंस’ के अंतर्गत भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों (जैसे - कम छात्र-छात्रा संख्या वाले स्कूलों में प्रयोगशाला, खेल मैदान, पुस्तकालय आदि की समुचित व्यवस्था) से निपटने हेतु और शिक्षा-व्यवस्था में आवश्यक सुधार करके ‘शिक्षित भारत - विकसित भारत’ के लक्ष्य के प्राप्ति हेतु प्रावधान करते हुए कहा गया है -  “इन चुनौतियों को राज्य/केन्द्र शासित प्रदेश की सरकारों द्वारा 2025 तक स्कूलों के समूह बनाने या उनकी संख्या को समुचित रूप देने के लिए नवीन प्रक्रिया अपनाकर समाधान किया जाएगा। इस तरह की प्रक्रिया के पीछे का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होगा किः (क) हर स्कूल में कला, संगीत विज्ञान, खेल, भाषा, व्यावसायिक विषय, आदि सहित सभी विषयों को पढ़ाने के लिए पर्याप्त संख्या में परामर्शदाता (काउंसलर)/प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षक (साझा या अन्यथा) मौजूद हों; (ख) हर स्कूल में पर्याप्त संसाधन (साझा या अन्यथा) हों, जैसे कि एक पुस्तकालय, विज्ञान प्रयोगशाला, कंप्यूटर लैब, कौशल प्रयोगशाला, खेल के मैदान, खेल उपकरण जैसी सुविधाएं, आदि; (ग) शिक्षकों, छात्रों और स्कूलों के अलगाव को दूर करने के लिए समुदाय के साथ एक समझ बनाकर संयुक्त व्यवसायिक विकास कार्यक्रमों, शिक्षण-अधिगम सामग्री के साझाकरण, संयुक्त सामग्री निर्माण, कला और विज्ञान प्रदर्शनियां, खेल गतिविधियां, क्विज और डिबेट, और मेले जैसे संयुक्त गतिविधियों का आयोजन करना; और (घ) दिव्यांगबच्चों की शिक्षा के लिए स्कूलों में सहयोग और संबलन; (ड.) स्कूली व्यवस्था की गवर्नेस में सुधार के लिए क्रियान्वयन संबंधी बारीकियों के निर्णय स्कूली समूह के स्तर पर छोड़ दिए जाएँ जहाँ उन्हें स्थानीय स्तर पर प्रधानाचार्य, शिक्षक और अन्य हितधारकों द्वारा ही लिया जाये और फाउंडेशनल स्तर से सेकेंडरी स्तर के ऐसे स्कूलों के समूह को एक एकीकृत अर्ध-स्वायत्त इकाई के रूप में देखा जाये।”¹¹


स्कूल कॉम्प्लेक्स / कलस्टर के लाभ गिनाते हुए इस शिक्षा नीति में कहा गया है - “स्कूल कॉम्प्लेक्स/कलस्टर बनने से और कॉम्प्लेक्स में संसाधन के साझे उपयोग से दूसरे भी बहुत से लाभ होंगे, जैसे - दिव्यांग बच्चों के लिए बेहतर सहयोग; ज़्यादा विविध विषय पर आधारित विद्यार्थी क्लब और स्कूल परिसर में अकादमिक /खेल/कला/शिल्प आधारित कार्यक्रमों का आयोजन; कला, संगीत, भाषा और शारीरिक शिक्षा के शिक्षक के साझे उपयोग से कक्षा में वर्चुअल कक्षाएं आयोजित करने के लिए आईसीटी टूल्स के उपयोग सहित इन गतिविधियों का ज़्यादा समावेश; सामाजिक कार्यकर्ता और सलाहकारों (काउंसलर) की मदद से विद्यार्थियों के लिए बेहतर सहयोग की उपलब्धता और बेहतर नामांकन, उपस्थिति और उपलब्धियों में सुधार, और स्कूल कॉम्प्लेक्स प्रबंधन समितियों (केवल स्कूल प्रबंधन समितियों के बजाए) के माध्यम से बेहतर और मज़बूत गवर्नेस, निरीक्षण, निगरानी, नवाचार और स्थानीय हितधारकों द्वारा उठाए जाने वाले क़दम। स्कूलों, स्कूल प्रमुखों, शिक्षकों, विद्यार्थियों, सहयोगी स्टाफ, माता-पिता और स्थानीय नागरिकों के बड़े और जीवंत समूहों के आधार पर संसाधनों का कुशल उपयोग करते हुए पूरी शिक्षा व्यवस्था उर्जावान और समर्थ बनेगी।”¹²


राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 उच्च शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन लाने हेतु प्रतिबद्ध है। इस शिक्षा नीति के अनुसार उच्च शिक्षा व्यवस्था में अनेकों परिवर्तनों के साथ दिव्यांगों हेतु ये महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उल्लेखनीय है - “उपायों की एक श्रृंखला के माध्यम से पहुँच, समता और समावेशन में वृद्धिः इसके साथ ही उत्कृष्ट सार्वजनिक शिक्षा के लिए अधिक अवसर, वंचित और निर्धन छात्रों के लिए निजी परोपकारी विश्वविद्यालयों द्वारा छात्रवृत्ति में पर्याप्त वृद्धिः ओपन स्कूलिंग, ऑनलाइन शिक्षा, और मुक्त दूरस्थ शिक्षा (ओडीएल); और दिव्यांग शिक्षार्थियों के लिए सभी बुनियादी ढांचे और शिक्षण सामग्री की उपलब्धता और उस तक उनकी पहुँच।”¹³



यह शिक्षा नीति ‘उच्चतर शिक्षा की नियामक प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन’ लाने जोर देती है और उच्चतर शिक्षा संस्थानों के संदर्भ में दिव्यांग छात्र-छात्राओं की प्रतिक्रियाओं / फीडबैक के महत्त्व को प्रतिपादित करती है। यथा - “एचईसीआई का पहला अंग राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा विनियामक परिषद (एनएचईआरसी) होगा यह उच्चतर शिक्षा क्षेत्र के लिए एक साझा और सिंगल पॉइंट रेगुलेटर की तरह काम करेगा जिसमें शिक्षक शिक्षा शामिल है किन्तु चिकित्सीय एवं विधिक शिक्षा शामिल नहीं है, और इस तरह नियामक प्रक्रिया में दोहराव और अव्यवस्था को समाप्त करेगा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि व्यवस्था के भीतर वर्तमान में अनेकों विनियामक संस्थान उपस्थित हैं। इस एकल बिंदु विनियमन को सक्षम करने के लिए मौजूदा अधिनियमों की पुनर्संरचना और निरसन और विभिन्न मौजूदा नियामक निकायों के पुनर्गठन की आवश्यकता होगी। एनएचईआरसी को 'लचीले लेकिन सख्त और सुविधात्मक तरीके से संस्थानों को विनियमित करने के लिए स्थापित किया जाएगा, जिसका अर्थ है कि कुछ महत्वपूर्ण मामले विशेष रूप से वित्तीय इमानदारी, सुशासन और सभी ऑनलाइन और ऑफ़लाइन वित्त संबंधी मसलों का स्व-प्रकटीकरण, ऑडिट, प्रक्रियाओं, इंफ्रास्ट्रक्चर, संकाय / कर्मचारी, पाठ्यक्रम और शैक्षिक प्रतिफलों को प्रभावी तरीके से नियंत्रित किया जाएगा। यह सूचना सभी उच्चतर शिक्षा संस्थानों द्वारा अपनी वेबसाइट पर और सार्वजनिक वेबसाइटों जो कि एनएचईआरसी द्वारा संचालित की जाती हैं, पर मुहैया करवाई जाएंगी और समय-समय पर इन सूचनाओं को अद्यतन और सटीक रूप से उपलब्ध करवाया जाएगा। सार्वजनिक की गयी सूचनाओं से संबंधित हितधारकों और अन्य लोगों द्वारा किसी भी शिकायत या गुहार को एनएचईआरसी द्वारा सुना जाएगा और इसका हल किया जाएगा। एक निश्चित समय अंतराल पर प्रत्येक उच्चतर शिक्षा संस्थान में रैंडम तरीके से दिव्यांग छात्रों सहित चुने गए छात्रों के मूल्यवान फीडबैक ऑनलाइन लिए जाएंगे।”¹⁴


अतः उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 दिव्यांगों / विकलांगों की समग्र शिक्षा हेतु प्रतिबद्ध है। इस नीति में दिव्यांगों की स्कूली शिक्षा से लेकर उच्चतर शिक्षा तक आवश्यक प्रावधान किए गए हैं। स्कूली शिक्षा में दिव्यांग छात्र-छात्राओं हेतु विशेष शिक्षक की नियुक्ति और उच्चतर शिक्षा संस्थानों के संदर्भ में दिव्यांग छात्र-छात्राओं का फीडबैक लेने का प्रावधान युगांतकारी है। हम निश्चित रूप से ये कह सकते हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 दिव्यांगों की शिक्षा और दिव्यांग सशक्तिकरण में ऐतिहासिक भूमिका निभा रही है और आगे भी निभाएगी।



संदर्भ :- 

1.भारत सरकार, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, पृष्ठ 4

2. वही, पृष्ठ 7

3. वही, पृष्ठ 15

4. वही, पृष्ठ 35-36

5. वही, पृष्ठ 38

6. वही, पृष्ठ 39

7. वही, पृष्ठ 41

8. वही, पृष्ठ 41-42

9. वही, पृष्ठ 42

10. वही, पृष्ठ 43

11. वही, पृष्ठ 45-46

12. वही, पृष्ठ 46

13. वही, पृष्ठ 54

14. वही, पृष्ठ 76











Wednesday 18 September 2024

गुरूजी डॉ० रामशंकर भारती की कविता 'गॉंव की कविता' पर कुशराज की आलोचनात्मक टिप्पणी

'साहित्य के आदित्य' व्हाट्सएप समूह में गुरूजी डॉ० रामशंकर भारती की कविता 'गॉंव की कविता' पर कुशराज की आलोचनात्मक टिप्पणी -

"पूजनीय गुरूजी! आपकी कविता 'गाँव की कविता' ग्रामीण भारत में नवजागरण का शंखनाद करती है। हम कविता के शिल्प को तीन भागों में विभाजित करना उचित समझे हैं। पहले भाग में आपने 20वीं सदी के अखंड बुंदेलखंड / भारत के गॉंवों की दशा और दिशा को रेखांकित करते हुए बताया है कि गॉंवों में जाति, धर्म आदि के आधार पर कोई भेदभाव को अस्तित्व न होकर समरसता / सहिष्णुता की अनुपम बहार थी। गॉंववालों की जीवनशैली प्रकृतिवादी थी। गॉंव में जीवन बिताना है चारों धाम करना था। गॉंव सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में अत्यंत समृद्धशाली और विकसित थे। गॉंधीजी की उक्ति 'भारत की आत्मा गाँवों में बसती है' की सार्थकता सिद्ध की है इस कविता में आपने। दूसरे भाग में आपने 21वीं सदी के भारत के गॉंवों की दशा प्रदर्शित की है। जहाँ राजनैतिक कुस्वार्थों ने गॉंवों का सत्यानाश करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। गॉंव को सारी शक्तियाँ छीन ली हैं, तभी को आज के गॉंव सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पतन का सामना कर रहे हैं।तीसरे भाग में आपने गॉंव के शत्रुओं का सामना करने हेत गॉंववालों और ग्रामीण सुधार के कार्यकर्त्ताओं को प्रेरित किया है और गॉंव की सारी कुरीतियों और बुराईयों को समाप्त करने की रूपरेखा खींचकर नवजागरण की चेतना जगाई है। तीन सदियों - 20वीं, 21वीं और 22वीं सदी के ग्रामीण भारत की दशा और दिशा का कविता में सफल चित्रण करने हेतु आपको भौत-भौत बधाई! गुरूजी।"

©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज'

(युवा आलोचक, बदलाओकारी विचारधारा के प्रवर्त्तक)

18/09/2024, झाँसी


कविता - "गाँव की कविता"


  बाबा छुटपन में बताते थे   

"गाँव की सौंधी माटी का जीवन  अभावों के दुःखों का अथाह सुखसागर है"

जब होश सँभाला तब जाना 

गाँव का असली चरित्र 

जहाँ ढेरों अभावों के स्याह अँधेरों के बावजूद 

 लोक विश्वासों का उजला सूरज        

 हर रोज जगर-मगर होता है 

 गोबर से लिपीपुती देहरियों पर 

 आयताकार-गोल अथाई चौंतरों पर

छप्परों की आड़ी तिरछीं झिरियों से 

घासफूस के सुघड़ छप्परों से

कच्चे माटी के पक्के खपरैलों से 

आम, महुआ, नीम की सुवासित सुगंध में

बूढ़े बरगद की छतनारी सघन छाँव से

नदी, ताल, पनघट के घाटों से पगडंडियों गली चौबारों की हाटों से

पंचपरमेश्वर की न्याय भरी चौपालों से

खेत-खलिहानों में- चैती के गीतों से

सावन की पेंग बढ़ाती मल्हार की उमंगों से

 कजरी, आल्हा की तानों पर

 दादी मोदी की छोटी-बड़ी दुकानों पर

कुम्हार कक्का के चाक पर

दर्जी बब्बा के ऊँचे ताक पर 

मुखिया की गर्वीली हाँक पर

 हर मौसम में हर रोज होतीं हैं 

 भलमनुसात की बरसातों से–

 तब मेरी लड़कबुद्धि में समझ आया

गाँव एक साझा संस्कृति का नाम है 

गाँव भारत का तीरथधाम है 

गाँव कृष्ण-बलराम का आयाम है

गाँव कारसदेव का मुकाम है

ठाकुर बाबा का समरसता पैगाम है

गाँव देईबाबा की पावन देहरी है 

सैय्यद बाबा की सहरी है 

गाँव हरदौल का बैठका-बगीचा है

मेहतर बाबा का गुलगुला गलीचा है 

गाँव पुरखों की धरोहर है

प्रकृति का सहोदर है

 गाँव भलमुनसात का अधिष्ठान है

 गाँव में किसी एक का भी सुख गाँव भर का त्योहार रहा है

भाईचारे का पावन व्यवहार रहा है

सबके अपने-अपने दुख-दर्द रहे हैं

सबके साझेरामे, सबके हमदर्द रहे हैं

 गाँव आनन्दगंधी लोकचेतना का आधार है

मनुष्यता का प्रवेशद्वार है

यहीं से उद्भूत होती हैं लोककल्याणी परंपराएँ

 उत्सवधर्मी-समदर्शी परोपकारी कथाएँ

जब तक देवताओं जैसे पुरखे हमारे बीच रहे

तब तक अनेक भेदों-मतभेदों के होते हुए भी

"मनभेदों" के बीज कभी नहीं उग पाए 

 ड्योढी-आँगन चूल्हे-चौका से लेकर 

पगडंडी, गली खेत-खरिहान से लेकर 

छप्पर और ऊँचे मकान से लेकर 

 दुर्बल और पहलवान से लेकर 

रघुवर और रहमान से लेकर 

 पुआ-गुलगुला पकवान से लेकर

 अल्ला और भगवान से लेकर

आरती और अजान से लेकर 

सबका सबसे सुंदर मेल रहा

 किसी के मन तनिक न मैल रहा है

मगर, हाय! अफसोस!

बीते कुछ दिनों से गाँवों पर

 स्वार्थी-सियासी नफरती बादलों ने

तान रखी हैं अपनी-अपनी मोटी- मोटी

लंबी-चौड़ी अंतहीन तिरपालें 

जिन्होंने ढक लिया है गाँव के निर्मल आकाश को

ताकि आकाश से उतरने वाली      

सरोकारों की सोनजुही-सी धूप दूध धुली भलमुनसात की चाँदनी      

लोकाभिराम लोकगंध कहीं से भीगाँव की धरती पर न आ सके अब तो हद हो गई है 

 गाँव में ही गाँव की अन्नपूर्णा भूखी है

 कुलमिलाकर

 गाँव से गाँव को बेदखल हो रहा है

आइए, हम सभी मिलकर बुराइयों की इस मोटी तिरपाल को हटाएँ

ताकि फुदक-फुदक कर आ सके

नाइंसाफियों के अँधेरों को उजाड़ती 

विकास के संस्कारों की प्रगतिगामी धूप 

उन्नति की मंगलकारी मकरंदी ठंडी पवन 

 सभी को सुख देने वाली समन्वय संस्कृति 

मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने वाली नीतियाँ

विसार दें जितनी भी, जैसी भी हों कुरीतियाँ

पुनर्जीवित करें अपने पुरखों की पावन प्रीतियाँ

 जो सदा सर्वदा सुखदायी हैं

जनकल्याणी मंगलामाई हैं।।    


     © डॉ० रामशंकर भारती

दीनदयाल नगर, झाँसी



लखनलाल पाल के संस्मरण 'बाढै पुत्र पिता के धरमा' पर कुशराज की आलोचनात्मक टिप्पणी

'साहित्य के आदित्य' व्हाट्सएप समूह में लखनलाल पाल के संस्मरण 'बाढै पुत्र पिता के धरमा' पर कुशराज की आलोचनात्मक टिप्पणी - 

"आदरणीय पाल जी! आपका आत्मकथात्मक संस्मरण 'बाढै पुत्र पिता के धरमा' पिता पर लिखा गया अनोखा साहित्य है। इसमें आपने पिता के पितृत्त्व को प्रेरणादायी ढंग से रेखांकित किया है और साथ ही बुंदेली लोकजीवन के विविध पक्षों जैसे - पाल/गड़रिया समाज की जीवनशैली, शिक्षा और शिक्षित व्यक्ति का महत्त्व, अनपढ़ पिता और माता की सीख, माँ का प्रेम, भाई का त्याग, संयुक्त परिवार की महत्त्वता, घरेलू चिकित्सा / वैद्य की महत्त्वता, दंगल और दिवारी/मौंनियाँ क्रीड़ा नृत्य और ख्याल / लोकगीत का प्रचलन और उनकी समाज में प्रतिष्ठा एवं बुंदेली भाषा का बोलचाल में प्रयोग, ग्रामीण जीवन में समरसता और प्रकृतिवादी जीवन एवं शहरी जीवन की भौतिकवादी जीवनशैली आदि को रेखांकित करके इनके महत्त्व को प्रतिपादित किया है।

पिताजी आपके पहले गुरू रहे हैं और दंगल के प्रेरणास्त्रोत भी। उनकी शिक्षा-दीक्षा ने आपकी इतनी मजबूत नींव रखी है कि आपके व्यक्तित्व के भव्य महल से आप आजतक शिक्षक के तौर पर ज्ञान का दान करके और लेखक के तौर पर समाज के हाल दिखाकर समाज का कल्याण करने और नई दिशा देने में सक्रिय बने हुए हैं।

पिताजी की जीवनगाथा के माध्यम से अपने जीवन के विविध पक्षों को साझा करके प्रेरणादायी लेखन हेतु आपको भौत-भौत बधाई।"

©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज'

(युवा आलोचक, बुंदेली भाषा और संस्कृति के अध्येता)

18/09/2024, झाँसी


संस्मरण - 'बाढ़ै पुत्र पिता के धरमा'

                        

              अगर आप किसी को मन से निकालना चाहते हो तो उसे कागज पर लिख डालिए। यह मेरा अपना अनुभव है। मैंने ऐसी बहुत सी स्मृतियां कागज पर लिखकर मिटाई है। इसे मैं मुक्ति समझता हूं। जीवन में मुक्त होते चले जाना और फिर अन्य से जुड़ते जाना एक कुदरती प्रक्रिया है। आज मैं भी अपने पिता से मुक्त होना चाहता हूं। इसलिए मैं उन पर लिख रहा हूं।

                  मैं अपने लिए भी यही चाहता हूं। मेरे जाने के बाद मुझे कोई याद न रखे । याद भी एक बोझ है। इस बोझ को जितनी जल्दी हो उतार देना चाहिए। जब ये उतरेगा तभी तो  आने वाले इस बोझ को वहन कर पाएंगे।

                   मेरे पिता चरवाहे थे । भेड़ पालन  हमारा पुश्तैनी व्यवसाय था ।इस व्यवसाय को स्त्री- पुरुष सभी कर लेते हैं। कठिन समय में भी यह व्यवसाय आदमी को टूटने नहीं देता । मेरे बाबा का निधन पिताजी की अल्पायु में हो गया था। पिताजी उस समय दो या तीन वर्ष के रहे होंगे। पिताजी की दो बड़ी बहनें थी। बाबा के जाने के बाद इस व्यवसाय को उन्होंने संभाल लिया  ।लेकिन  ज्यादा दिनों तक वे इसे संभाल न सकी। उस समय बाल विवाह की प्रथा थी, इस कारण कम उम्र में ही उनके विवाह कर दिए गए। स्कूल जाने की उम्र में पिताजी को चरवाहा बनना पड़ा। भेड़ चराने के लिए जो लाठी उन्होंने बचपन में उठाई थी वह उनकी मृत्यु के बाद ही दीवार से टिक सकी। राजा का बेटा पिता के द्वारा अर्जित सिंहासन को, किसान का बेटा पुश्तैनी खेती को सहर्ष स्वीकार कर लेता है पर हम दोनों भाइयों ने उनकी उस विरासत को लेने से इनकार कर दिया था ।

                       पिताजी ने अपने दुर्दिनों  से जल्दी निजात पा ली। उनमें जो मौलिक प्रतिभा थी उन्होंने उसको निखारा। वे पहलवानी के लिए अखाड़ा जाने लगे। थोड़े दिनों में वे क्षेत्र के नामी पहलवान बन गए । बुंदेलखंड के खेलों में दिवारी खेल प्रमुख है। उसके वे अद्वितीय खिलाड़ी बनकर उभरे ।इस खेल में चुस्ती-फुर्ती का होना आवश्यक है । पिताजी फुर्तीले थे।दिवारी खेल मैं भी खेला हूं और अच्छे से खेला हूं ।लोग जब पिताजी से मेरी तुलना करते तो मैं कहीं नहीं ठहर पाता था । चूंकि  मैंने उस खेल को डूबकर खेला है इसलिए उसकी गहराई को समझता हूं ।इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि वह इस खेल के गुरु थे ।

                     धूप-छांव की तरह समय भी मानव के साथ अठखेलियां करता है। पहलवानी में पिताजी आगे बढ़ रहे थे तभी उन्हें 'गठिया वात' ने जकड़ लिया। दवा करने पर  ठीक तो हो गए लेकिन पहलवानी हमेशा के लिए छूट गई।

                    पिताजी ने  स्कूल नहीं देखा लेकिन पढ़ने की उनमें ललक थी। इसे पूरा करने के लिए अजुद्धी माड़साहब से सुबह -शाम अक्षर ज्ञान सीख लिया था। वे अक्षर मिलाना भी सीख गए । हिंदी बालपोथी पढ़ लेते पर कठिन शब्द पढ़ने में दिक्कत होती थी।

                   उन्होंने मुझे पढ़ाने का पूरा मन बना लिया  ।स्कूल में मेरा नाम लिखा दिया गया । वे मुझे सुबह जल्दी जगाकर अ, आ, इ ,ई   लिखना सिखाते। स्कूल में हमारे गुरु जी लिखाई के साथ बचनी भी बचाते । एक बालक खड़ा होकर क्रम से अक्षर बोलता और शेष बच्चे उसी का अनुसरण करके तेज आवाज में चिल्लाते ।जो बालक धीमे बोलता  या नहीं बोलता तो गुरुजी पीछे से आकर छड़ी मार देते ।वॉल्यूम अपने आप तेज हो जाता । मुझे लिखित और मौखिक वर्णमाला का ज्ञान हो गया था।

                      अक्षर मिलाकर पढ़ना मेरे लिए त्रासदी से कम नहीं रहा ।पिताजी अक्षर मिलाकर पढ़ने को कहते ।जरा सा चूकने पर वे तुरंत गाल पर थप्पड़ मारते ।रोना आता  पर रोने नहीं देते । इसमें मैं पिताजी का कसूर नहीं मानता । उस समय की यह अनिवार्य शर्त थी कि बालक जब तक पिटेगा नहीं तब तक पढे़गा नहीं ।वे तो इस शर्त का निर्वाह कर रहे थे ।उस समय मां भी कुछ नहीं बोल पाती । अनपढ़ मां को लगता  कि बेटे को आगे बढ़ने के लिए इससे गुजरना जरूरी था। लेकिन ममत्व ऐसा कि एक दो बार टोककर उन्होंने खुद पिताजी से गालियां खाई।

                  कक्षा तीन के बाद पिताजी का पढा़ना छूट गया। उससे आगे वे नहीं पढ़ा सकते थे। बुनियाद  ठीक रख दी थी।  सुबह मुझे जल्दी जगाकर वे किताब पढ़ने को  बोलते। इससे हुआ यह कि सुबह पढ़ने की मेरी आदत पड़ चुकी थी।

                   गांव के हर मोहल्ले में  प्रतिदिन तुलसीकृत मानस पढ़ी जाती थी ।पिताजी सुनने जाते । उन्हें रामायण का ज्ञान  था। उन्होंने मुझे रामकथा बचपन में ही सुना दी थी।  पिताजी ने मेरे लिए रामचरितमानस(मूल गुटका )खरीद दिया । वे मुझे शाम को मानस के पांच दोहे (कड़़वक) पढ़ने को कहते ।मैं मिट्टी के तेल की कुप्पी  जलाकर मानस पढ़ने बैठ जाता।  जीवन में कई बार संपूर्ण मानस पढ़ने का श्रेय मैं पिताजी को दूंगा।

                       पिट-पिटाते मेरी शिक्षा निरंतर आगे बढ़ती रही। पढ़ने के बाद मैंने शिक्षण को ही अपना कैरियर चुना। प्राइवेट स्कूल में मैंने अपना समय ज्यादा दिया। शुरुआत छोटे बच्चों की पढ़ाई से की। कई बच्चों को  अक्षर मिलाना नहीं आता था। अनेक बार समझाने पर भी वे पढ़ नहीं पाते तो गाल पर थप्पड़ लगा देता। बच्चे रो पड़ते ।जैसे- तैसे मैं उन्हें शांत कराता।

                        बच्चे के रोने से मुझे अपना बचपन याद आ गया।पिताजी के गुस्से वाला चेहरा आंखों के सामने घूम गया ।उस वक्त लगता था कि यह समय कैसे भी गुजर जाए। संवेदनाएं मनुष्य को झकझोरती हैं ।मुझे भी झकझोरा ।मेरे जीवन में वे सारे दृश्य रील की तरह घूम गए ।मेरा चिंतन इसी ओर बढ़ गया । मैंने बच्चे की मुश्किल को अपनी मुश्किल माना । पहले बच्चे की समस्या को समझा और उसका समाधान ढूंढा । पिटाई समस्या का हल नहीं है । शांत चित्त होकर ,धैर्य और प्रेम के साथ बालक को पढ़ाया जाए तो मैं नहीं समझता हूं कि कोई बालक स्कूल छोड़ने का मन करेगा ।मेरे समय में बहुत से बालक गुरु जी की पिटाई के डर से स्कूल छोड़ चुके थे।

                              मैंने अपना अलग तरीका अपनाया। मेरे विद्यार्थी जानते हैं कि मैंने उन्हें धैर्य के साथ  पढ़ाया है, और आज भी पढ़ा रहा हूं। 

                       पिताजी के  पहलवानी के किस्से सुनकर मैं भी अखाड़ा जाने लगा । चौमासे भर कसरत की और दांव -पेंच सीखकर एक-दो दंगल देखे। पहलवानों से जोड़ मिलाकर कुश्ती भी लड़ी।

                        एक दंगल में  जोश में आकर मैंने मजबूत पहलवान से हाथ मिला लिया। मजबूत इसलिए कि वह काफी दिनों से कुश्ती कर रहा था। मैं ठहरा नौसिखिया।कुश्ती शुरू हो गई। मैंने अपने सारे दांव -पेंच उस पर चलाए लेकिन उससे पार न पा सका ।उसने अपने दांव से मुझे नीचे गिरा लिया। चारों खाने चित्त करने के लिए उसने अपनी ताकत झोंक दी। मैं अपनी पूरी ताकत चित्त न होने के लिए लगा रहा था । पन्द्रह मिनट तक वह बराबर मुझे घोंटता रहा। अंत में हार -जीत के बिना कुश्ती छुड़ा दी गई ।जब मैं खड़ा हुआ तो मुझे वहां कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने अपनी आंखें मली ,तब मुझे लोग दिखाई दिए। साले ने बहुत घोंटा था।

                   इस कुश्ती के बाद मेरा पहलवानी का भूत उतर चुका था। पिता जैसा मैं नहीं बन सकता । आपको पिता से प्यार करते हुए पिता के आभामंडल से मुक्त होना पड़ेगा। ऐसे ही मुक्त नहीं होना , बेरहमी के साथ होना होगा।

                 आज बहुतेरे पुत्र अपने यशस्वी पिता के नक्शे कदम पर चलकर कैरियर की शुरुआत करते हैं । उनमें वह दम नहीं होता है कि पिता के आभामंडल को भेद सकें ।वे आभामंडल से ऐसे घिरे होते हैं कि बाहर का उन्हें कुछ सूझता ही नहीं  ।बिना सूझ के वे जीवन भर अस्तित्वहीन जीवन जीने के लिए अभिशप्त रहते हैं।

                    पिताजी बहुत कड़क स्वभाव के थे ।जरा सी बात पर पीट देते ।शैतानी मैं नहीं करता था ।रात को घर में देर से आऊं या सुबह -शाम भेड़ों के काम में उनका हाथ न बटाऊं तो पिटाई  संभव थी ।एक पड़ोसी के साथ मेरा उठना- बैठना उन्हें अच्छा नहीं लगता था।

                           मैं बी ॰एस-सी॰ कर चुका था ।गर्मियों के दिनों में ईंट -खप्पर पकाए जाते हैं ।हमने भी  दस हजार ईंटों का भट्टा लगाकर उसमें आग दे दी। फुर्सत में हो चुके थे ।पड़ोसी का भी ईंट का भट्टा लग चुका था ।उसमें आग देनी थी। वह मुझे अपने साथ ले गया ।गर्मियों के दिनों में हवा ज्यादा चलती है इसलिए भट्टे में आग रात को दी जाती है। अगर दिन में आग दे दी और हवा तेज चल गई तो उसमें लगे कंडे और लड़कियां हवा की तरफ जलने लगेंगे ,जिससे भट्टे के खिसकने के चांस बढ़ जाते हैं ।भट्टे में आग देने के बाद हम लोग काफी रात तक वहां  बैठे गप्पें हांकते रहे।

                         पिताजी को इस बात की भनक लग गई कि मैं उसके साथ गया हूं। वे घर पर आग बबूला हो रहे थे ।गर्मियों में रात दस या साढ़े दस बजे ज्यादा समय नहीं होता है ।घर पहुंचते ही उन्होंने गुस्से में मुझे एक डंडा मार दिया। जैसे ही दूसरा डंडा मारा मैंने डंडा पकड़ लिया और तेज आवाज में कहा -"बस ,अब नहीं।" मेरे तेवर देखकर पिताजी सध गए ।उस समय मैंने सोच लिया था कि कोई बुरा कहे तो कहे पर इस परंपरा को तोड़ना है। उस दिन के बाद से पिटाई बंद हो गई थी।

                      आज मैं स्वयं एक पिता हूं। मैं कभी नहीं चाहूंगा कि अपने बेटे को डंडे से मारूं। पिता का भी एक धर्म होता है ।मैं अगर धर्म से डिग जाऊं तो बेटे का कर्तव्य बन जाता है कि वह मुझे इंगित करे। पिताओं की भी सीमा रेखा तय होनी चाहिए ।सीमाएं लांघना विस्फोटक होता है।

                   पिता संसार का सबसे स्वार्थी प्राणी है। पुत्र से वह पालन- पोषण का दाना -दाना वसूल कर लेना चाहता है। वह जो नहीं बन पाया  बेटे को बनाना चाहता है ।पिताजी चाहते थे की बेटा पढ़ लिख गया है, नौकरी तो करे ही करे साथ में ख्याल गायन (लोकगीत )भी सीख ले ।उस समय ख्याल गायक की समाज में बड़ी इज्जत थी। शादी ब्याह में या बुजुर्गों की त्रयोदशी में लोग इकट्ठे होते। ख्याल गायकों  से लोग ख्याल गाने की फरमाइश करते । वे तमूरा लेकर उंगली में छल्ला पहनकर उसे बजाते और गाते। बिरादरी में उनका खूब नाम होता। वे देवता की तरह पूजे जाते। पिताजी भी चाहते थे कि बेटे की पूजा हो। मैं ख्याल याद कर सकता था किन्तु गा नहीं सकता । गायन कुदरती होता है जो कुदरत ने मुझे नहीं दिया था।

                    कमोवेश आज के पिताओं की भी यही हालत है ।वह पुत्रों को क्रिकेटर, अभिनेता, नेता, अधिकारी या बड़ा व्यवसायी बनते देखना चाहते हैं। बेटों पर अनावश्यक दबाव डालते रहते हैं ।ऐसे में पुत्र का विद्रोही हो जाना बड़ी बात नहीं है।

                 पिताजी मुझे प्यार करते थे किंतु कभी दिखावा नहीं किया।उनका अनुशासन ऐसा था कि मैं कभी उनसे अनौपचारिक न हो सका ।बस काम की ही बात होती थी ।एक बार जब मैं बीमार हुआ तो उनकी बेचैनी मैंने साफ महसूस की । उन्होंने कहा  कि चाहे सब बिक जाए लेकिन इसे ठीक करवाना है।

                मेरी सरकारी नौकरी न लगने की टीस उन्हें हमेशा रही।   उनके निधन के बाद मैं सरकारी पद पर पहुंच सका । वे जानते थे कि यह लड़का कमाकर खा लेगा ।मैं भी गरीब पिता का गरीब बेटा बनकर नहीं जीना चाहता था । इसलिए गांव छोड़कर उरई आ गया। यहीं शिक्षण कार्य करने लगा।

                   पिताजी गांव के लिए उपयोगी और सुलभ थे ।गांव के किसी व्यक्ति का हाथ -पैर टूट जाए या उखड़ जाए तो उसकी चिकित्सा करके ठीक कर देते । टूटे हाथ -पैर पर खपच्चियां बांधकर एक महीने के भीतर मैंने लोगों को ठीक होते हुए देखा है ।पालतू जानवरों की बीमारी का इलाज भी वे जानते थे।

                 मेरी दादी का निधन सन् 2005 में हो गया ।उनकी उम्र पूरी हो चुकी थी। दुख  जैसी कोई बात नहीं थी ।उरई में जहां हम रहते हैं उन पड़ोसियों को त्रयोदशी का कार्ड दिया था। वे त्रयोदशी में गांव पहुंचे। उनमें कुछ शराब पीने वाले थे। उन्होंने मेरे सामने शराब की डिमांड रख दी ।उस समय गांव में महुआ की शराब उतारी जाती थी ,वही खरीद ली। मेरे लाख मना करने के बावजूद उन्होंने मुझे शराब पिलवा दी। बिना मानक की शराब ने मेरी हालत पस्त कर दी। मुझसे उठा ही नहीं जा रहा था।

                    पंगत के बाद साजिंदे अपने साज-बाज के साथ मंचनुमा चबूतरे पर बैठ गए। भजन, कीर्तन, ख्याल आदि का रात भर का प्रोग्राम था।

               माइक पर मेरा नाम बोला जाने लगा। समाज के लोग चाहते थे कि मैं कुछ बोलूं। क्या बोलूं और क्यों बोलूं ?यहां कारण लिखते हुए हलकापन महसूस हो रहा है ।फिर भी लिख रहा हूं

               मैंने अपनी पी ॰एचडी॰ की थीसिस यूनिवर्सिटी में जमा कर दी थी। समाज की नजरों में मैं पी ॰एचडी॰ होल्डर था। अपने जिले की समाज में यह कारनामा करने वाला मैं पहला व्यक्ति था ।जबकि मेरे लिए यह इतनी बड़ी बात नहीं थी। जो मौलिक लेखन करते हैं ,वह जानते हैं कि जिसने कहानी, उपन्यास लिखे हों उसके लिए पी ॰एचडी॰ की थीसिस संकलन मात्र है। हां इससे डिग्री मिल जाती है।

              पिताजी के लिए यह बड़ी उपलब्धि थी। संचालक मेरा नाम पुकार रहे थे और मैं चारपाई पर बेसुध पड़ा था। पिताजी मुझे ढूंढ रहे थे। उन्हें भनक लग गई कि मैंने शराब पी ली है ।उन्हें  लगा कि मैं बाहर रहकर शराब पीने लगा हूं । जबकि मैं शराब नहीं पीता था ।मित्रों का आग्रह इस कारण बढ़ गया था कि मैंने पिछली होली में उनके साथ एक कप ले ली थी। और दूसरा कारण वे मेरे यहां आमंत्रित थे इसलिए संकोचवश उनके आफर को ठुकरा न पाया।इन स्थितियों ने विकार उत्पन्न कर दिया।

                वे दांतन धरती काट रहे थे ।मेरी बहन समझदार थी ,उसने पिताजी को समझाया कि शोर करोगे तो भैया की बदनामी हो जाएगी। उन लोगों से कह दो कि भैया बहुत दिनों बाद गांव आए हैं सो मित्रों से मिलने गए हैं। आते होंगे ।समाज में यही बोला गया। मेरा नाम बोलना बंद हो गया।

               कुछ देर बाद मुझे उल्टी हो गई। उल्टी के  बाद मुझे लगा कि मैं नॉर्मल हो गया हूं । मैंने मुंह धोया ,कपड़े बदले और बालों में कंघी करके वहां पहुंचकर दूर बैठ गया ।लोगों ने देखा तो बात मंच तक पहुंचा दी। सम्मान के साथ संचालक महोदय ने मंच पर मुझे आमंत्रित कर दिया।

                   मैं मंच पर ज्यादा नहीं बोल पाता हूं पर उस दिन ऐसा बोला कि लोग मेरी तारीफ करने लगे ।थीसिस मैंने कैसे लिखी, क्या परेशानी आई, इसका मैंने खूब महिमा मंडन किया। (इसके भी रोचक किस्से हैं। इस पर फिर कभी लिखूंगा) ।

                     वहां महिलाओं का  खूब जमावड़ा था।  यहां कुछ हो या न हो किंतु हर घर में कम से कम एक महिला गुटखा जरूर खाती मिलेगी। इसी विषय पर मैंने बुंदेली में एक कविता लिखी थी। इस कविता को मैंने मंच से सुनाया ‌-

      उठी सवेरे द्वारों झारे, लैखें अपन बहरिया सें

     गुटखा दबो गाल में ओखे, चूना लगो उंगरिया में

      थूक खें ओनै आधौ खा लओ, आधौ खुसो  खुटी में

     सास ससुर की आन करत है ,दाबै रहत मुठी में

   आग लगो  मैं करों जिजी का, आदत मोरी पर गई

    कीरा लगत हतो दांतन में ,दाई दवा बता गई

   घुंघटा ओखौ बडौ़ लजीलौ, मोती जड़े पुंगरिया में

     गुटखा दबो गाल में ओखे ------------------

              महिलाएं मुंह दबाकर हंसने लगी। मंच से उतरने के बाद लोगों ने मुझे शाबाशी दी ।

            मैं सुबह रिश्तेदारों के लिए चाय- नाश्ते की तैयारी में लग गया ।अंदर से धुकधुकी चल रही थी कि पिताजी रात वाली घटना का जिक्र न कर दें ।उन्होंने जिक्र किया पर इस ढंग से किया कि मैं समझता हूं कि ऐसा कहा तो बहुतों ने होगा  पर वह कहन असल में इसी समय के लिए ईजाद हुई होगी ।उस कहन में दुनिया का सारा दर्शन एक पल के लिए समा गया । उनका मेरे लिए एक संक्षिप्त वाक्य था-" भैया इसीलिए पढ़ाया था।"

                    यह एक वाक्य नहीं था ।कॉलेज की सारी डिग्रियों के ऊपर चंद्रबिंदु था। जिससे उस शब्द (डिग्री) का वास्तविक अर्थ खुलता था ।चंद्रबिंदु के अभाव में अर्थ का अनर्थ हो जाता है। उस दिन के बाद मैंने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया। पिताजी इस दुनिया में नहीं है पर जब इस चीज की चर्चा होती है तो पिताजी का वह वाक्य गूंज उठता है। इस वाक्य का अंत अब मेरे अंत के साथ होगा। यह वाक्य एक बिना पढ़े-लिखे पिता का था। जो स्वयं नहीं पढ़े थे लेकिन मुझे पढ़ाया । मेरी हर डिग्री में उनके खून -पसीने की बूंदें झलकती हैं।

                    तीन महीने की असाध्य बीमारी के चलते उनका निधन सन् 2015 में हो गया । उनके इलाज की खातिर हमने कोई कसर न छोड़ी , सेवा भी खूब की । मैं बाहर नौकरी करता हूं। मैं उनकी सेवा उतनी नहीं कर पाया जितनी करनी चाहिए थी। क्योंकि नौकरी की भी अपनी शर्तें होती हैं ।मेरे छोटे भाई और उसकी पत्नी ने खूब सेवा की। मैं उन्हें एक अच्छे पुत्र और पुत्रवधू होने का श्रेय  दूंगा।

               बीमारी के चलते उन्हें लगभग पूरा गांव देखने आता  ।वे सब प्रार्थना करते कि जल्दी ठीक हो जाएं। गांव के लिए पिताजी उपयोगी थे। स्वार्थ से उपजे इस अपनेपन को बुरा नहीं कहा जा सकता है।

                  व्यक्ति अगर हट्टा-कट्टा  है और अपना काम बखूबी कर लेता है तो बहत्तर वर्ष की उम्र ज्यादा नहीं होती  ।वह बीमारी से पहले अपनी भेड़ें चराने जाते थे। इस व्यवसाय को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।

            अचानक  पिताजी के जाने के बाद जीवन में खालीपन सा महसूस होने लगा। जैसे जिंदगी का कुछ हिस्सा छूट गया हो ।उनकी  बहुत याद आती । मां ने मुझे कभी थप्पड़ नहीं मारा फिर भी मैं पिताजी के अधिक निकट रहा ।

                 मेरी मां आज भी जीवित है। ठीक-ठाक अपना काम कर लेती हैं। वह गांव में रहती हैं।

                   मां मुझ पर गर्व करती हैं। कभी बाहर का चटपटा खाने की उनकी आदत नहीं रही है पर अब उन्हें समोसा बहुत पसंद है ।ठेला पर समोसा बेचने वाला वहां से निकलता है तो मां  समोसा  खरीद लेती हैं।  उसी समय मुहल्ले की कोई बहू  वहां से गुजरती है तो उसे भी बुलाकर समोसे का ऑर्डर देकर कहती है-" आ जा री !खा ले,- मो बेटा नौकरी करत। खूब पइसा है।"

             बहू हंसकर कहती -" बाई खूब पइसा है तो कछु हमउं खें दिबा दे।" वे झिड़कती -" काए खें दिबा दे, ओखे लरका बच्चा नहियां का।" 

                  छोटे भाई को भी डांट देती है कि मैं तेरा नहीं खा रही हूं।मेरा बेटा नौकरी करता है जितने चाहूं उतने पैसे मंगा लूं । वे मुझसे फोन पर रुपए मांगती हैं। और मांगती कितना है? एक हजार रुपए मात्र।कहेंगी -" बस भइया एक हजार में काम चल जैहै।"

              जब कभी मैं गांव जाता हूं तो मां मुझे आदेश देकर कहती है कि भैया मुझे पैसे दिए जाना। मैं उसके सामने सौ- सौ के नोटों की गड्डी रखकर बोलता हूं -"बाई जितने गिन पाउत उतने तेरे।" मां को पन्द्रह से ज्यादा गिनती नहीं आती । पन्द्रह के बाद लड़खड़ा जाती है। मैं उन्हें पन्द्रह सौ रुपए देकर कहता हूं कि बाई अगली बार से गिनती सीख लेना ।वह मुझे डपटकर कहती हैं-"  काए रे ! एक हजार से  जादा है कि कम। " 

  -"ज्यादा है।"

-" हओ।" यह कहकर वे रुपए धोती के खूंट में बांध लेती हैं।

               पिताजी  मेरे सपने में आने लगे  जबकि छोटे भाई और मां को वे कभी नहीं दिखे ।वैसे सपनों का अलग मनोविज्ञान है। मैं प्रगतिशीलता का कायल रहा हूं ।अगर आप प्रगतिशील विचारों के हैं और अध्ययन भी ठीक-ठाक किया है तो अवतारी पुरुष ईश्वर नहीं लगते। वह अपने समय में संघर्ष करने वाले महापुरुष होते हैं। प्रगतिशीलता में और निखार आ गया तो वे हमारे जैसे मानव ही प्रतीत होते हैं ।आध्यात्मिक सोच के व्यक्ति के लिए  अवतारी पुरुष पूर्ण ईश्वर होते हैं।

          हमारी भारतीयता में दोनों विचारों का समावेश है। भारतीय उपमहाद्वीप सारी विचारधाराओं का संगम है। दुनिया की सारी विचारधाराएं इस उपमहाद्वीप में समाहित हो गई हैं।

           हमारे यहां पुनर्जन्म प्रेत योनि जैसे विश्वासों का गीता आदि में उल्लेख है। बार-बार सपने में पिताजी का आना मन को उद्वेलित करने लगा। लगता था कहीं पिताजी की आत्मा भटक तो नहीं रही है ।मैं सोचता  ऐसा कैसे हो सकता है ?शरीर है तब तक मानव का अस्तित्व है इसके बाद का क्या?

                 मन नहीं माना, पिताजी जो ठहरे । उनके लिए तो मैं काल्पनिक नरक की भी कल्पना नहीं कर सकता । पिताजी मुझसे कुछ चाह तो नहीं रहे ?मेरे अंदर एक द्वंद्व छिड़ गया।

             बचपन में उन्होंने मुझे मानस के दोहे पढ़ने को प्रेरित किया था। सोचा यही लौटा दूं।  हां ,यही ठीक रहेगा । मन का फितूर होगा तो वह भी मिट जाएगा।

              चैत्र की नवदुर्गा में मैंने उनका फोटो रखकर नवाह्न परायण शुरू कर दिया ।नवाह्न परायण पूर्ण होने पर उनके नाम की आहुतियां भी दे दी।

             कुछ दिन  बाद सपने आने बंद हो गए । मेरे मन का द्वंद्व मिट चुका था ।सोचा आत्मा -परमात्मा कुछ होता है तो उनके लिए मैंने अच्छा किया ।अगर नहीं होता है तो मेरा क्या गया ? अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि या तो मेरे मनोविकार ठीक हो गए हैं या उनकी आत्मा को शांति मिल चुकी है।

 ©️  लखनलाल पाल

अजनारी रोड, नया रामनगर, उरई, जिला जालौन, अखंड बुंदेलखंड, पिनकोड 285001

मो० - 9236480075

ईमेल - lakhanlalpal519@gmail.com


कुशराज की आलोचनात्मक टिप्पणी पर लखनलाल पाल की प्रतिक्रिया -

"अरे कुशराज जी, आपने इस संस्मरण की बड़ी सम्यक समीक्षा की है। इस समीक्षा में आपकी कलम से कुछ भी तो नहीं छूट पाया है। सब कुछ अच्छे से रेखांकित कर दिया है। धन्यवाद आपको।"



Monday 16 September 2024

जल्द आ रही है कविता की नई किताब 'आखिर कब तक...?' - कुशराज

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जल्द आ रही है कविता की नई किताब 'आखिर कब तक...?'


 


प्रिय पाठकों, 

हमें आपको सूचित करते हुए बहुत खुशी हो रही है कि आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में हिन्दुस्तानी एकेडमी सम्मान से विभूषित साहित्यकार, सुप्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी और आलोचक हमारे पूजनीय गुरूजी 'डॉ० रामशंकर भारती' Ramshankar Bharti की समकालीन विमर्शों - स्त्री, किसान, दलित और आदिवासी आदि पर केंद्रित 75 कविताओं का संकलन 'आखिर कब तक...?' हमारे संपादन में स्वतंत्र प्रकाशन, दिल्ली स्वतंत्र प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड से शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है। कविताओं का चयन और संपादन का दायित्त्व हमें सौंपने हेतु गुरूजी डॉ० रामशंकर भारती तथा स्वतंत्र प्रकाशन, दिल्ली के निदेशक-प्रकाशक आदरणीय सुशील स्वतंत्र जी Sushil Swatantra का हम हृदय से आभार व्यक्त करते हैं।


          हमें पूर्ण विश्वास है कि समकालीनता को समर्पित काव्य-संग्रह 'आखिर कब तक...?' पाठकों, छात्र-छात्राओं, शोधार्थियों और आलोचकों के बीच सराहा जाएगा।


- किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज'

(प्रवर्त्तक - बदलाओकारी विचारधारा, किसानवादी लेखक, बुंदेली-बुंदेलखंड अधिकार कार्यकर्त्ता)

16/09/2024, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड


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छोटे भाई प्रशांत कुशवाहा ने 68वीं प्रादेशिक माध्यमिक विद्यालयीय कबड्डी प्रतियोगिता में जीता कांस्य पदक - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज'


छोटे भाई प्रशांत कुशवाहा ने 68वीं प्रादेशिक माध्यमिक विद्यालयीय कबड्डी प्रतियोगिता में जीता कांस्य पदक 





छोटे भाई प्रशांत कुशवाहा 'पिरसू' ने आयु वर्ग - 14 में मेजर ध्यानचंद स्पोर्ट्स कॉलेज सैफई की टीम में उपकप्तान की भूमिका निभाते हुए पीएमश्री राजकीय इंटर कॉलेज मिर्जापुर में सम्पन्न हुए कबड्डी महाकुंभ - 68वीं प्रादेशिक माध्यमिक विद्यालयीय कबड्डी प्रतियोगिता-2024 में कांस्य पदक जीतकर अपने कॉलेज और जिले का नाम रौशन किया है। वहीं बरूआसागर निवासी और उनके सहपाठी करन कुशवाहा ने भी आयु वर्ग - 17 में कांस्य पदक जीता है। 68वीं प्रादेशिक माध्यमिक विद्यालयीय कबड्डी प्रतियोगिता में उत्तर प्रदेश के 18 मंडलों और मेजर ध्यानचंद स्पोर्ट्स कॉलेज सैफई के कुल 1350 खिलाड़ियों ने प्रतिभाग किया। प्रशांत मेजर ध्यानचंद स्पोर्ट्स कॉलेज सैफई में कबड्डी खेल से कक्षा आठ के छात्र हैं और कोच मीतू सिंह से प्रशिक्षण ले रहे हैं। वह दादाजी किसान पीताराम कुशवाहा 'पत्तू नन्ना' और दादी किसानिन रामकली कुशवाहा 'बाई' के आशीर्वाद से खूब आगे बढ़ रहा है। प्रशांत की इस उपलब्धि पर परिवार को गर्व है। 


प्रशांत और करन कुशवाहा को कांस्य पदक जीतने की विशेष उपलब्धि पर भौत-भौत बधाई और भविष्य में नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने हेतु अनंत शुभकामनाएँ।


- किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज'

(बुंदेली-बुंदेलखंड अधिकार कार्यकर्त्ता, युवा लेखक)

15/09/2024, जरबौ गॉंव, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड

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