गुरूजी डॉ० रामशंकर भारती की कविता 'गॉंव की कविता' पर कुशराज की आलोचनात्मक टिप्पणी
'साहित्य के आदित्य' व्हाट्सएप समूह में गुरूजी डॉ० रामशंकर भारती की कविता 'गॉंव की कविता' पर कुशराज की आलोचनात्मक टिप्पणी -
"पूजनीय गुरूजी! आपकी कविता 'गाँव की कविता' ग्रामीण भारत में नवजागरण का शंखनाद करती है। हम कविता के शिल्प को तीन भागों में विभाजित करना उचित समझे हैं। पहले भाग में आपने 20वीं सदी के अखंड बुंदेलखंड / भारत के गॉंवों की दशा और दिशा को रेखांकित करते हुए बताया है कि गॉंवों में जाति, धर्म आदि के आधार पर कोई भेदभाव को अस्तित्व न होकर समरसता / सहिष्णुता की अनुपम बहार थी। गॉंववालों की जीवनशैली प्रकृतिवादी थी। गॉंव में जीवन बिताना है चारों धाम करना था। गॉंव सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में अत्यंत समृद्धशाली और विकसित थे। गॉंधीजी की उक्ति 'भारत की आत्मा गाँवों में बसती है' की सार्थकता सिद्ध की है इस कविता में आपने। दूसरे भाग में आपने 21वीं सदी के भारत के गॉंवों की दशा प्रदर्शित की है। जहाँ राजनैतिक कुस्वार्थों ने गॉंवों का सत्यानाश करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। गॉंव को सारी शक्तियाँ छीन ली हैं, तभी को आज के गॉंव सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पतन का सामना कर रहे हैं।तीसरे भाग में आपने गॉंव के शत्रुओं का सामना करने हेत गॉंववालों और ग्रामीण सुधार के कार्यकर्त्ताओं को प्रेरित किया है और गॉंव की सारी कुरीतियों और बुराईयों को समाप्त करने की रूपरेखा खींचकर नवजागरण की चेतना जगाई है। तीन सदियों - 20वीं, 21वीं और 22वीं सदी के ग्रामीण भारत की दशा और दिशा का कविता में सफल चित्रण करने हेतु आपको भौत-भौत बधाई! गुरूजी।"
©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज'
(युवा आलोचक, बदलाओकारी विचारधारा के प्रवर्त्तक)
18/09/2024, झाँसी
कविता - "गाँव की कविता"
बाबा छुटपन में बताते थे
"गाँव की सौंधी माटी का जीवन अभावों के दुःखों का अथाह सुखसागर है"
जब होश सँभाला तब जाना
गाँव का असली चरित्र
जहाँ ढेरों अभावों के स्याह अँधेरों के बावजूद
लोक विश्वासों का उजला सूरज
हर रोज जगर-मगर होता है
गोबर से लिपीपुती देहरियों पर
आयताकार-गोल अथाई चौंतरों पर
छप्परों की आड़ी तिरछीं झिरियों से
घासफूस के सुघड़ छप्परों से
कच्चे माटी के पक्के खपरैलों से
आम, महुआ, नीम की सुवासित सुगंध में
बूढ़े बरगद की छतनारी सघन छाँव से
नदी, ताल, पनघट के घाटों से पगडंडियों गली चौबारों की हाटों से
पंचपरमेश्वर की न्याय भरी चौपालों से
खेत-खलिहानों में- चैती के गीतों से
सावन की पेंग बढ़ाती मल्हार की उमंगों से
कजरी, आल्हा की तानों पर
दादी मोदी की छोटी-बड़ी दुकानों पर
कुम्हार कक्का के चाक पर
दर्जी बब्बा के ऊँचे ताक पर
मुखिया की गर्वीली हाँक पर
हर मौसम में हर रोज होतीं हैं
भलमनुसात की बरसातों से–
तब मेरी लड़कबुद्धि में समझ आया
गाँव एक साझा संस्कृति का नाम है
गाँव भारत का तीरथधाम है
गाँव कृष्ण-बलराम का आयाम है
गाँव कारसदेव का मुकाम है
ठाकुर बाबा का समरसता पैगाम है
गाँव देईबाबा की पावन देहरी है
सैय्यद बाबा की सहरी है
गाँव हरदौल का बैठका-बगीचा है
मेहतर बाबा का गुलगुला गलीचा है
गाँव पुरखों की धरोहर है
प्रकृति का सहोदर है
गाँव भलमुनसात का अधिष्ठान है
गाँव में किसी एक का भी सुख गाँव भर का त्योहार रहा है
भाईचारे का पावन व्यवहार रहा है
सबके अपने-अपने दुख-दर्द रहे हैं
सबके साझेरामे, सबके हमदर्द रहे हैं
गाँव आनन्दगंधी लोकचेतना का आधार है
मनुष्यता का प्रवेशद्वार है
यहीं से उद्भूत होती हैं लोककल्याणी परंपराएँ
उत्सवधर्मी-समदर्शी परोपकारी कथाएँ
जब तक देवताओं जैसे पुरखे हमारे बीच रहे
तब तक अनेक भेदों-मतभेदों के होते हुए भी
"मनभेदों" के बीज कभी नहीं उग पाए
ड्योढी-आँगन चूल्हे-चौका से लेकर
पगडंडी, गली खेत-खरिहान से लेकर
छप्पर और ऊँचे मकान से लेकर
दुर्बल और पहलवान से लेकर
रघुवर और रहमान से लेकर
पुआ-गुलगुला पकवान से लेकर
अल्ला और भगवान से लेकर
आरती और अजान से लेकर
सबका सबसे सुंदर मेल रहा
किसी के मन तनिक न मैल रहा है
मगर, हाय! अफसोस!
बीते कुछ दिनों से गाँवों पर
स्वार्थी-सियासी नफरती बादलों ने
तान रखी हैं अपनी-अपनी मोटी- मोटी
लंबी-चौड़ी अंतहीन तिरपालें
जिन्होंने ढक लिया है गाँव के निर्मल आकाश को
ताकि आकाश से उतरने वाली
सरोकारों की सोनजुही-सी धूप दूध धुली भलमुनसात की चाँदनी
लोकाभिराम लोकगंध कहीं से भीगाँव की धरती पर न आ सके अब तो हद हो गई है
गाँव में ही गाँव की अन्नपूर्णा भूखी है
कुलमिलाकर
गाँव से गाँव को बेदखल हो रहा है
आइए, हम सभी मिलकर बुराइयों की इस मोटी तिरपाल को हटाएँ
ताकि फुदक-फुदक कर आ सके
नाइंसाफियों के अँधेरों को उजाड़ती
विकास के संस्कारों की प्रगतिगामी धूप
उन्नति की मंगलकारी मकरंदी ठंडी पवन
सभी को सुख देने वाली समन्वय संस्कृति
मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने वाली नीतियाँ
विसार दें जितनी भी, जैसी भी हों कुरीतियाँ
पुनर्जीवित करें अपने पुरखों की पावन प्रीतियाँ
जो सदा सर्वदा सुखदायी हैं
जनकल्याणी मंगलामाई हैं।।
© डॉ० रामशंकर भारती
दीनदयाल नगर, झाँसी
Comments
Post a Comment