Wednesday 18 September 2024

लखनलाल पाल के संस्मरण 'बाढै पुत्र पिता के धरमा' पर कुशराज की आलोचनात्मक टिप्पणी

'साहित्य के आदित्य' व्हाट्सएप समूह में लखनलाल पाल के संस्मरण 'बाढै पुत्र पिता के धरमा' पर कुशराज की आलोचनात्मक टिप्पणी - 

"आदरणीय पाल जी! आपका आत्मकथात्मक संस्मरण 'बाढै पुत्र पिता के धरमा' पिता पर लिखा गया अनोखा साहित्य है। इसमें आपने पिता के पितृत्त्व को प्रेरणादायी ढंग से रेखांकित किया है और साथ ही बुंदेली लोकजीवन के विविध पक्षों जैसे - पाल/गड़रिया समाज की जीवनशैली, शिक्षा और शिक्षित व्यक्ति का महत्त्व, अनपढ़ पिता और माता की सीख, माँ का प्रेम, भाई का त्याग, संयुक्त परिवार की महत्त्वता, घरेलू चिकित्सा / वैद्य की महत्त्वता, दंगल और दिवारी/मौंनियाँ क्रीड़ा नृत्य और ख्याल / लोकगीत का प्रचलन और उनकी समाज में प्रतिष्ठा एवं बुंदेली भाषा का बोलचाल में प्रयोग, ग्रामीण जीवन में समरसता और प्रकृतिवादी जीवन एवं शहरी जीवन की भौतिकवादी जीवनशैली आदि को रेखांकित करके इनके महत्त्व को प्रतिपादित किया है।

पिताजी आपके पहले गुरू रहे हैं और दंगल के प्रेरणास्त्रोत भी। उनकी शिक्षा-दीक्षा ने आपकी इतनी मजबूत नींव रखी है कि आपके व्यक्तित्व के भव्य महल से आप आजतक शिक्षक के तौर पर ज्ञान का दान करके और लेखक के तौर पर समाज के हाल दिखाकर समाज का कल्याण करने और नई दिशा देने में सक्रिय बने हुए हैं।

पिताजी की जीवनगाथा के माध्यम से अपने जीवन के विविध पक्षों को साझा करके प्रेरणादायी लेखन हेतु आपको भौत-भौत बधाई।"

©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज'

(युवा आलोचक, बुंदेली भाषा और संस्कृति के अध्येता)

18/09/2024, झाँसी


संस्मरण - 'बाढ़ै पुत्र पिता के धरमा'

                        

              अगर आप किसी को मन से निकालना चाहते हो तो उसे कागज पर लिख डालिए। यह मेरा अपना अनुभव है। मैंने ऐसी बहुत सी स्मृतियां कागज पर लिखकर मिटाई है। इसे मैं मुक्ति समझता हूं। जीवन में मुक्त होते चले जाना और फिर अन्य से जुड़ते जाना एक कुदरती प्रक्रिया है। आज मैं भी अपने पिता से मुक्त होना चाहता हूं। इसलिए मैं उन पर लिख रहा हूं।

                  मैं अपने लिए भी यही चाहता हूं। मेरे जाने के बाद मुझे कोई याद न रखे । याद भी एक बोझ है। इस बोझ को जितनी जल्दी हो उतार देना चाहिए। जब ये उतरेगा तभी तो  आने वाले इस बोझ को वहन कर पाएंगे।

                   मेरे पिता चरवाहे थे । भेड़ पालन  हमारा पुश्तैनी व्यवसाय था ।इस व्यवसाय को स्त्री- पुरुष सभी कर लेते हैं। कठिन समय में भी यह व्यवसाय आदमी को टूटने नहीं देता । मेरे बाबा का निधन पिताजी की अल्पायु में हो गया था। पिताजी उस समय दो या तीन वर्ष के रहे होंगे। पिताजी की दो बड़ी बहनें थी। बाबा के जाने के बाद इस व्यवसाय को उन्होंने संभाल लिया  ।लेकिन  ज्यादा दिनों तक वे इसे संभाल न सकी। उस समय बाल विवाह की प्रथा थी, इस कारण कम उम्र में ही उनके विवाह कर दिए गए। स्कूल जाने की उम्र में पिताजी को चरवाहा बनना पड़ा। भेड़ चराने के लिए जो लाठी उन्होंने बचपन में उठाई थी वह उनकी मृत्यु के बाद ही दीवार से टिक सकी। राजा का बेटा पिता के द्वारा अर्जित सिंहासन को, किसान का बेटा पुश्तैनी खेती को सहर्ष स्वीकार कर लेता है पर हम दोनों भाइयों ने उनकी उस विरासत को लेने से इनकार कर दिया था ।

                       पिताजी ने अपने दुर्दिनों  से जल्दी निजात पा ली। उनमें जो मौलिक प्रतिभा थी उन्होंने उसको निखारा। वे पहलवानी के लिए अखाड़ा जाने लगे। थोड़े दिनों में वे क्षेत्र के नामी पहलवान बन गए । बुंदेलखंड के खेलों में दिवारी खेल प्रमुख है। उसके वे अद्वितीय खिलाड़ी बनकर उभरे ।इस खेल में चुस्ती-फुर्ती का होना आवश्यक है । पिताजी फुर्तीले थे।दिवारी खेल मैं भी खेला हूं और अच्छे से खेला हूं ।लोग जब पिताजी से मेरी तुलना करते तो मैं कहीं नहीं ठहर पाता था । चूंकि  मैंने उस खेल को डूबकर खेला है इसलिए उसकी गहराई को समझता हूं ।इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि वह इस खेल के गुरु थे ।

                     धूप-छांव की तरह समय भी मानव के साथ अठखेलियां करता है। पहलवानी में पिताजी आगे बढ़ रहे थे तभी उन्हें 'गठिया वात' ने जकड़ लिया। दवा करने पर  ठीक तो हो गए लेकिन पहलवानी हमेशा के लिए छूट गई।

                    पिताजी ने  स्कूल नहीं देखा लेकिन पढ़ने की उनमें ललक थी। इसे पूरा करने के लिए अजुद्धी माड़साहब से सुबह -शाम अक्षर ज्ञान सीख लिया था। वे अक्षर मिलाना भी सीख गए । हिंदी बालपोथी पढ़ लेते पर कठिन शब्द पढ़ने में दिक्कत होती थी।

                   उन्होंने मुझे पढ़ाने का पूरा मन बना लिया  ।स्कूल में मेरा नाम लिखा दिया गया । वे मुझे सुबह जल्दी जगाकर अ, आ, इ ,ई   लिखना सिखाते। स्कूल में हमारे गुरु जी लिखाई के साथ बचनी भी बचाते । एक बालक खड़ा होकर क्रम से अक्षर बोलता और शेष बच्चे उसी का अनुसरण करके तेज आवाज में चिल्लाते ।जो बालक धीमे बोलता  या नहीं बोलता तो गुरुजी पीछे से आकर छड़ी मार देते ।वॉल्यूम अपने आप तेज हो जाता । मुझे लिखित और मौखिक वर्णमाला का ज्ञान हो गया था।

                      अक्षर मिलाकर पढ़ना मेरे लिए त्रासदी से कम नहीं रहा ।पिताजी अक्षर मिलाकर पढ़ने को कहते ।जरा सा चूकने पर वे तुरंत गाल पर थप्पड़ मारते ।रोना आता  पर रोने नहीं देते । इसमें मैं पिताजी का कसूर नहीं मानता । उस समय की यह अनिवार्य शर्त थी कि बालक जब तक पिटेगा नहीं तब तक पढे़गा नहीं ।वे तो इस शर्त का निर्वाह कर रहे थे ।उस समय मां भी कुछ नहीं बोल पाती । अनपढ़ मां को लगता  कि बेटे को आगे बढ़ने के लिए इससे गुजरना जरूरी था। लेकिन ममत्व ऐसा कि एक दो बार टोककर उन्होंने खुद पिताजी से गालियां खाई।

                  कक्षा तीन के बाद पिताजी का पढा़ना छूट गया। उससे आगे वे नहीं पढ़ा सकते थे। बुनियाद  ठीक रख दी थी।  सुबह मुझे जल्दी जगाकर वे किताब पढ़ने को  बोलते। इससे हुआ यह कि सुबह पढ़ने की मेरी आदत पड़ चुकी थी।

                   गांव के हर मोहल्ले में  प्रतिदिन तुलसीकृत मानस पढ़ी जाती थी ।पिताजी सुनने जाते । उन्हें रामायण का ज्ञान  था। उन्होंने मुझे रामकथा बचपन में ही सुना दी थी।  पिताजी ने मेरे लिए रामचरितमानस(मूल गुटका )खरीद दिया । वे मुझे शाम को मानस के पांच दोहे (कड़़वक) पढ़ने को कहते ।मैं मिट्टी के तेल की कुप्पी  जलाकर मानस पढ़ने बैठ जाता।  जीवन में कई बार संपूर्ण मानस पढ़ने का श्रेय मैं पिताजी को दूंगा।

                       पिट-पिटाते मेरी शिक्षा निरंतर आगे बढ़ती रही। पढ़ने के बाद मैंने शिक्षण को ही अपना कैरियर चुना। प्राइवेट स्कूल में मैंने अपना समय ज्यादा दिया। शुरुआत छोटे बच्चों की पढ़ाई से की। कई बच्चों को  अक्षर मिलाना नहीं आता था। अनेक बार समझाने पर भी वे पढ़ नहीं पाते तो गाल पर थप्पड़ लगा देता। बच्चे रो पड़ते ।जैसे- तैसे मैं उन्हें शांत कराता।

                        बच्चे के रोने से मुझे अपना बचपन याद आ गया।पिताजी के गुस्से वाला चेहरा आंखों के सामने घूम गया ।उस वक्त लगता था कि यह समय कैसे भी गुजर जाए। संवेदनाएं मनुष्य को झकझोरती हैं ।मुझे भी झकझोरा ।मेरे जीवन में वे सारे दृश्य रील की तरह घूम गए ।मेरा चिंतन इसी ओर बढ़ गया । मैंने बच्चे की मुश्किल को अपनी मुश्किल माना । पहले बच्चे की समस्या को समझा और उसका समाधान ढूंढा । पिटाई समस्या का हल नहीं है । शांत चित्त होकर ,धैर्य और प्रेम के साथ बालक को पढ़ाया जाए तो मैं नहीं समझता हूं कि कोई बालक स्कूल छोड़ने का मन करेगा ।मेरे समय में बहुत से बालक गुरु जी की पिटाई के डर से स्कूल छोड़ चुके थे।

                              मैंने अपना अलग तरीका अपनाया। मेरे विद्यार्थी जानते हैं कि मैंने उन्हें धैर्य के साथ  पढ़ाया है, और आज भी पढ़ा रहा हूं। 

                       पिताजी के  पहलवानी के किस्से सुनकर मैं भी अखाड़ा जाने लगा । चौमासे भर कसरत की और दांव -पेंच सीखकर एक-दो दंगल देखे। पहलवानों से जोड़ मिलाकर कुश्ती भी लड़ी।

                        एक दंगल में  जोश में आकर मैंने मजबूत पहलवान से हाथ मिला लिया। मजबूत इसलिए कि वह काफी दिनों से कुश्ती कर रहा था। मैं ठहरा नौसिखिया।कुश्ती शुरू हो गई। मैंने अपने सारे दांव -पेंच उस पर चलाए लेकिन उससे पार न पा सका ।उसने अपने दांव से मुझे नीचे गिरा लिया। चारों खाने चित्त करने के लिए उसने अपनी ताकत झोंक दी। मैं अपनी पूरी ताकत चित्त न होने के लिए लगा रहा था । पन्द्रह मिनट तक वह बराबर मुझे घोंटता रहा। अंत में हार -जीत के बिना कुश्ती छुड़ा दी गई ।जब मैं खड़ा हुआ तो मुझे वहां कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने अपनी आंखें मली ,तब मुझे लोग दिखाई दिए। साले ने बहुत घोंटा था।

                   इस कुश्ती के बाद मेरा पहलवानी का भूत उतर चुका था। पिता जैसा मैं नहीं बन सकता । आपको पिता से प्यार करते हुए पिता के आभामंडल से मुक्त होना पड़ेगा। ऐसे ही मुक्त नहीं होना , बेरहमी के साथ होना होगा।

                 आज बहुतेरे पुत्र अपने यशस्वी पिता के नक्शे कदम पर चलकर कैरियर की शुरुआत करते हैं । उनमें वह दम नहीं होता है कि पिता के आभामंडल को भेद सकें ।वे आभामंडल से ऐसे घिरे होते हैं कि बाहर का उन्हें कुछ सूझता ही नहीं  ।बिना सूझ के वे जीवन भर अस्तित्वहीन जीवन जीने के लिए अभिशप्त रहते हैं।

                    पिताजी बहुत कड़क स्वभाव के थे ।जरा सी बात पर पीट देते ।शैतानी मैं नहीं करता था ।रात को घर में देर से आऊं या सुबह -शाम भेड़ों के काम में उनका हाथ न बटाऊं तो पिटाई  संभव थी ।एक पड़ोसी के साथ मेरा उठना- बैठना उन्हें अच्छा नहीं लगता था।

                           मैं बी ॰एस-सी॰ कर चुका था ।गर्मियों के दिनों में ईंट -खप्पर पकाए जाते हैं ।हमने भी  दस हजार ईंटों का भट्टा लगाकर उसमें आग दे दी। फुर्सत में हो चुके थे ।पड़ोसी का भी ईंट का भट्टा लग चुका था ।उसमें आग देनी थी। वह मुझे अपने साथ ले गया ।गर्मियों के दिनों में हवा ज्यादा चलती है इसलिए भट्टे में आग रात को दी जाती है। अगर दिन में आग दे दी और हवा तेज चल गई तो उसमें लगे कंडे और लड़कियां हवा की तरफ जलने लगेंगे ,जिससे भट्टे के खिसकने के चांस बढ़ जाते हैं ।भट्टे में आग देने के बाद हम लोग काफी रात तक वहां  बैठे गप्पें हांकते रहे।

                         पिताजी को इस बात की भनक लग गई कि मैं उसके साथ गया हूं। वे घर पर आग बबूला हो रहे थे ।गर्मियों में रात दस या साढ़े दस बजे ज्यादा समय नहीं होता है ।घर पहुंचते ही उन्होंने गुस्से में मुझे एक डंडा मार दिया। जैसे ही दूसरा डंडा मारा मैंने डंडा पकड़ लिया और तेज आवाज में कहा -"बस ,अब नहीं।" मेरे तेवर देखकर पिताजी सध गए ।उस समय मैंने सोच लिया था कि कोई बुरा कहे तो कहे पर इस परंपरा को तोड़ना है। उस दिन के बाद से पिटाई बंद हो गई थी।

                      आज मैं स्वयं एक पिता हूं। मैं कभी नहीं चाहूंगा कि अपने बेटे को डंडे से मारूं। पिता का भी एक धर्म होता है ।मैं अगर धर्म से डिग जाऊं तो बेटे का कर्तव्य बन जाता है कि वह मुझे इंगित करे। पिताओं की भी सीमा रेखा तय होनी चाहिए ।सीमाएं लांघना विस्फोटक होता है।

                   पिता संसार का सबसे स्वार्थी प्राणी है। पुत्र से वह पालन- पोषण का दाना -दाना वसूल कर लेना चाहता है। वह जो नहीं बन पाया  बेटे को बनाना चाहता है ।पिताजी चाहते थे की बेटा पढ़ लिख गया है, नौकरी तो करे ही करे साथ में ख्याल गायन (लोकगीत )भी सीख ले ।उस समय ख्याल गायक की समाज में बड़ी इज्जत थी। शादी ब्याह में या बुजुर्गों की त्रयोदशी में लोग इकट्ठे होते। ख्याल गायकों  से लोग ख्याल गाने की फरमाइश करते । वे तमूरा लेकर उंगली में छल्ला पहनकर उसे बजाते और गाते। बिरादरी में उनका खूब नाम होता। वे देवता की तरह पूजे जाते। पिताजी भी चाहते थे कि बेटे की पूजा हो। मैं ख्याल याद कर सकता था किन्तु गा नहीं सकता । गायन कुदरती होता है जो कुदरत ने मुझे नहीं दिया था।

                    कमोवेश आज के पिताओं की भी यही हालत है ।वह पुत्रों को क्रिकेटर, अभिनेता, नेता, अधिकारी या बड़ा व्यवसायी बनते देखना चाहते हैं। बेटों पर अनावश्यक दबाव डालते रहते हैं ।ऐसे में पुत्र का विद्रोही हो जाना बड़ी बात नहीं है।

                 पिताजी मुझे प्यार करते थे किंतु कभी दिखावा नहीं किया।उनका अनुशासन ऐसा था कि मैं कभी उनसे अनौपचारिक न हो सका ।बस काम की ही बात होती थी ।एक बार जब मैं बीमार हुआ तो उनकी बेचैनी मैंने साफ महसूस की । उन्होंने कहा  कि चाहे सब बिक जाए लेकिन इसे ठीक करवाना है।

                मेरी सरकारी नौकरी न लगने की टीस उन्हें हमेशा रही।   उनके निधन के बाद मैं सरकारी पद पर पहुंच सका । वे जानते थे कि यह लड़का कमाकर खा लेगा ।मैं भी गरीब पिता का गरीब बेटा बनकर नहीं जीना चाहता था । इसलिए गांव छोड़कर उरई आ गया। यहीं शिक्षण कार्य करने लगा।

                   पिताजी गांव के लिए उपयोगी और सुलभ थे ।गांव के किसी व्यक्ति का हाथ -पैर टूट जाए या उखड़ जाए तो उसकी चिकित्सा करके ठीक कर देते । टूटे हाथ -पैर पर खपच्चियां बांधकर एक महीने के भीतर मैंने लोगों को ठीक होते हुए देखा है ।पालतू जानवरों की बीमारी का इलाज भी वे जानते थे।

                 मेरी दादी का निधन सन् 2005 में हो गया ।उनकी उम्र पूरी हो चुकी थी। दुख  जैसी कोई बात नहीं थी ।उरई में जहां हम रहते हैं उन पड़ोसियों को त्रयोदशी का कार्ड दिया था। वे त्रयोदशी में गांव पहुंचे। उनमें कुछ शराब पीने वाले थे। उन्होंने मेरे सामने शराब की डिमांड रख दी ।उस समय गांव में महुआ की शराब उतारी जाती थी ,वही खरीद ली। मेरे लाख मना करने के बावजूद उन्होंने मुझे शराब पिलवा दी। बिना मानक की शराब ने मेरी हालत पस्त कर दी। मुझसे उठा ही नहीं जा रहा था।

                    पंगत के बाद साजिंदे अपने साज-बाज के साथ मंचनुमा चबूतरे पर बैठ गए। भजन, कीर्तन, ख्याल आदि का रात भर का प्रोग्राम था।

               माइक पर मेरा नाम बोला जाने लगा। समाज के लोग चाहते थे कि मैं कुछ बोलूं। क्या बोलूं और क्यों बोलूं ?यहां कारण लिखते हुए हलकापन महसूस हो रहा है ।फिर भी लिख रहा हूं

               मैंने अपनी पी ॰एचडी॰ की थीसिस यूनिवर्सिटी में जमा कर दी थी। समाज की नजरों में मैं पी ॰एचडी॰ होल्डर था। अपने जिले की समाज में यह कारनामा करने वाला मैं पहला व्यक्ति था ।जबकि मेरे लिए यह इतनी बड़ी बात नहीं थी। जो मौलिक लेखन करते हैं ,वह जानते हैं कि जिसने कहानी, उपन्यास लिखे हों उसके लिए पी ॰एचडी॰ की थीसिस संकलन मात्र है। हां इससे डिग्री मिल जाती है।

              पिताजी के लिए यह बड़ी उपलब्धि थी। संचालक मेरा नाम पुकार रहे थे और मैं चारपाई पर बेसुध पड़ा था। पिताजी मुझे ढूंढ रहे थे। उन्हें भनक लग गई कि मैंने शराब पी ली है ।उन्हें  लगा कि मैं बाहर रहकर शराब पीने लगा हूं । जबकि मैं शराब नहीं पीता था ।मित्रों का आग्रह इस कारण बढ़ गया था कि मैंने पिछली होली में उनके साथ एक कप ले ली थी। और दूसरा कारण वे मेरे यहां आमंत्रित थे इसलिए संकोचवश उनके आफर को ठुकरा न पाया।इन स्थितियों ने विकार उत्पन्न कर दिया।

                वे दांतन धरती काट रहे थे ।मेरी बहन समझदार थी ,उसने पिताजी को समझाया कि शोर करोगे तो भैया की बदनामी हो जाएगी। उन लोगों से कह दो कि भैया बहुत दिनों बाद गांव आए हैं सो मित्रों से मिलने गए हैं। आते होंगे ।समाज में यही बोला गया। मेरा नाम बोलना बंद हो गया।

               कुछ देर बाद मुझे उल्टी हो गई। उल्टी के  बाद मुझे लगा कि मैं नॉर्मल हो गया हूं । मैंने मुंह धोया ,कपड़े बदले और बालों में कंघी करके वहां पहुंचकर दूर बैठ गया ।लोगों ने देखा तो बात मंच तक पहुंचा दी। सम्मान के साथ संचालक महोदय ने मंच पर मुझे आमंत्रित कर दिया।

                   मैं मंच पर ज्यादा नहीं बोल पाता हूं पर उस दिन ऐसा बोला कि लोग मेरी तारीफ करने लगे ।थीसिस मैंने कैसे लिखी, क्या परेशानी आई, इसका मैंने खूब महिमा मंडन किया। (इसके भी रोचक किस्से हैं। इस पर फिर कभी लिखूंगा) ।

                     वहां महिलाओं का  खूब जमावड़ा था।  यहां कुछ हो या न हो किंतु हर घर में कम से कम एक महिला गुटखा जरूर खाती मिलेगी। इसी विषय पर मैंने बुंदेली में एक कविता लिखी थी। इस कविता को मैंने मंच से सुनाया ‌-

      उठी सवेरे द्वारों झारे, लैखें अपन बहरिया सें

     गुटखा दबो गाल में ओखे, चूना लगो उंगरिया में

      थूक खें ओनै आधौ खा लओ, आधौ खुसो  खुटी में

     सास ससुर की आन करत है ,दाबै रहत मुठी में

   आग लगो  मैं करों जिजी का, आदत मोरी पर गई

    कीरा लगत हतो दांतन में ,दाई दवा बता गई

   घुंघटा ओखौ बडौ़ लजीलौ, मोती जड़े पुंगरिया में

     गुटखा दबो गाल में ओखे ------------------

              महिलाएं मुंह दबाकर हंसने लगी। मंच से उतरने के बाद लोगों ने मुझे शाबाशी दी ।

            मैं सुबह रिश्तेदारों के लिए चाय- नाश्ते की तैयारी में लग गया ।अंदर से धुकधुकी चल रही थी कि पिताजी रात वाली घटना का जिक्र न कर दें ।उन्होंने जिक्र किया पर इस ढंग से किया कि मैं समझता हूं कि ऐसा कहा तो बहुतों ने होगा  पर वह कहन असल में इसी समय के लिए ईजाद हुई होगी ।उस कहन में दुनिया का सारा दर्शन एक पल के लिए समा गया । उनका मेरे लिए एक संक्षिप्त वाक्य था-" भैया इसीलिए पढ़ाया था।"

                    यह एक वाक्य नहीं था ।कॉलेज की सारी डिग्रियों के ऊपर चंद्रबिंदु था। जिससे उस शब्द (डिग्री) का वास्तविक अर्थ खुलता था ।चंद्रबिंदु के अभाव में अर्थ का अनर्थ हो जाता है। उस दिन के बाद मैंने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया। पिताजी इस दुनिया में नहीं है पर जब इस चीज की चर्चा होती है तो पिताजी का वह वाक्य गूंज उठता है। इस वाक्य का अंत अब मेरे अंत के साथ होगा। यह वाक्य एक बिना पढ़े-लिखे पिता का था। जो स्वयं नहीं पढ़े थे लेकिन मुझे पढ़ाया । मेरी हर डिग्री में उनके खून -पसीने की बूंदें झलकती हैं।

                    तीन महीने की असाध्य बीमारी के चलते उनका निधन सन् 2015 में हो गया । उनके इलाज की खातिर हमने कोई कसर न छोड़ी , सेवा भी खूब की । मैं बाहर नौकरी करता हूं। मैं उनकी सेवा उतनी नहीं कर पाया जितनी करनी चाहिए थी। क्योंकि नौकरी की भी अपनी शर्तें होती हैं ।मेरे छोटे भाई और उसकी पत्नी ने खूब सेवा की। मैं उन्हें एक अच्छे पुत्र और पुत्रवधू होने का श्रेय  दूंगा।

               बीमारी के चलते उन्हें लगभग पूरा गांव देखने आता  ।वे सब प्रार्थना करते कि जल्दी ठीक हो जाएं। गांव के लिए पिताजी उपयोगी थे। स्वार्थ से उपजे इस अपनेपन को बुरा नहीं कहा जा सकता है।

                  व्यक्ति अगर हट्टा-कट्टा  है और अपना काम बखूबी कर लेता है तो बहत्तर वर्ष की उम्र ज्यादा नहीं होती  ।वह बीमारी से पहले अपनी भेड़ें चराने जाते थे। इस व्यवसाय को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा।

            अचानक  पिताजी के जाने के बाद जीवन में खालीपन सा महसूस होने लगा। जैसे जिंदगी का कुछ हिस्सा छूट गया हो ।उनकी  बहुत याद आती । मां ने मुझे कभी थप्पड़ नहीं मारा फिर भी मैं पिताजी के अधिक निकट रहा ।

                 मेरी मां आज भी जीवित है। ठीक-ठाक अपना काम कर लेती हैं। वह गांव में रहती हैं।

                   मां मुझ पर गर्व करती हैं। कभी बाहर का चटपटा खाने की उनकी आदत नहीं रही है पर अब उन्हें समोसा बहुत पसंद है ।ठेला पर समोसा बेचने वाला वहां से निकलता है तो मां  समोसा  खरीद लेती हैं।  उसी समय मुहल्ले की कोई बहू  वहां से गुजरती है तो उसे भी बुलाकर समोसे का ऑर्डर देकर कहती है-" आ जा री !खा ले,- मो बेटा नौकरी करत। खूब पइसा है।"

             बहू हंसकर कहती -" बाई खूब पइसा है तो कछु हमउं खें दिबा दे।" वे झिड़कती -" काए खें दिबा दे, ओखे लरका बच्चा नहियां का।" 

                  छोटे भाई को भी डांट देती है कि मैं तेरा नहीं खा रही हूं।मेरा बेटा नौकरी करता है जितने चाहूं उतने पैसे मंगा लूं । वे मुझसे फोन पर रुपए मांगती हैं। और मांगती कितना है? एक हजार रुपए मात्र।कहेंगी -" बस भइया एक हजार में काम चल जैहै।"

              जब कभी मैं गांव जाता हूं तो मां मुझे आदेश देकर कहती है कि भैया मुझे पैसे दिए जाना। मैं उसके सामने सौ- सौ के नोटों की गड्डी रखकर बोलता हूं -"बाई जितने गिन पाउत उतने तेरे।" मां को पन्द्रह से ज्यादा गिनती नहीं आती । पन्द्रह के बाद लड़खड़ा जाती है। मैं उन्हें पन्द्रह सौ रुपए देकर कहता हूं कि बाई अगली बार से गिनती सीख लेना ।वह मुझे डपटकर कहती हैं-"  काए रे ! एक हजार से  जादा है कि कम। " 

  -"ज्यादा है।"

-" हओ।" यह कहकर वे रुपए धोती के खूंट में बांध लेती हैं।

               पिताजी  मेरे सपने में आने लगे  जबकि छोटे भाई और मां को वे कभी नहीं दिखे ।वैसे सपनों का अलग मनोविज्ञान है। मैं प्रगतिशीलता का कायल रहा हूं ।अगर आप प्रगतिशील विचारों के हैं और अध्ययन भी ठीक-ठाक किया है तो अवतारी पुरुष ईश्वर नहीं लगते। वह अपने समय में संघर्ष करने वाले महापुरुष होते हैं। प्रगतिशीलता में और निखार आ गया तो वे हमारे जैसे मानव ही प्रतीत होते हैं ।आध्यात्मिक सोच के व्यक्ति के लिए  अवतारी पुरुष पूर्ण ईश्वर होते हैं।

          हमारी भारतीयता में दोनों विचारों का समावेश है। भारतीय उपमहाद्वीप सारी विचारधाराओं का संगम है। दुनिया की सारी विचारधाराएं इस उपमहाद्वीप में समाहित हो गई हैं।

           हमारे यहां पुनर्जन्म प्रेत योनि जैसे विश्वासों का गीता आदि में उल्लेख है। बार-बार सपने में पिताजी का आना मन को उद्वेलित करने लगा। लगता था कहीं पिताजी की आत्मा भटक तो नहीं रही है ।मैं सोचता  ऐसा कैसे हो सकता है ?शरीर है तब तक मानव का अस्तित्व है इसके बाद का क्या?

                 मन नहीं माना, पिताजी जो ठहरे । उनके लिए तो मैं काल्पनिक नरक की भी कल्पना नहीं कर सकता । पिताजी मुझसे कुछ चाह तो नहीं रहे ?मेरे अंदर एक द्वंद्व छिड़ गया।

             बचपन में उन्होंने मुझे मानस के दोहे पढ़ने को प्रेरित किया था। सोचा यही लौटा दूं।  हां ,यही ठीक रहेगा । मन का फितूर होगा तो वह भी मिट जाएगा।

              चैत्र की नवदुर्गा में मैंने उनका फोटो रखकर नवाह्न परायण शुरू कर दिया ।नवाह्न परायण पूर्ण होने पर उनके नाम की आहुतियां भी दे दी।

             कुछ दिन  बाद सपने आने बंद हो गए । मेरे मन का द्वंद्व मिट चुका था ।सोचा आत्मा -परमात्मा कुछ होता है तो उनके लिए मैंने अच्छा किया ।अगर नहीं होता है तो मेरा क्या गया ? अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि या तो मेरे मनोविकार ठीक हो गए हैं या उनकी आत्मा को शांति मिल चुकी है।

 ©️  लखनलाल पाल

अजनारी रोड, नया रामनगर, उरई, जिला जालौन, अखंड बुंदेलखंड, पिनकोड 285001

मो० - 9236480075

ईमेल - lakhanlalpal519@gmail.com


कुशराज की आलोचनात्मक टिप्पणी पर लखनलाल पाल की प्रतिक्रिया -

"अरे कुशराज जी, आपने इस संस्मरण की बड़ी सम्यक समीक्षा की है। इस समीक्षा में आपकी कलम से कुछ भी तो नहीं छूट पाया है। सब कुछ अच्छे से रेखांकित कर दिया है। धन्यवाद आपको।"



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