कविता : मैं नहीं, वो ही जानते हैं - कुशराज

 कविता : " मैं नहीं, वो ही जानते हैं "


 साभार : नई दुनिया


कृष का गवाह है अखबार वाला।

जो मिला था गली में उस भोर,

जब कृष लौट रहा था सौदाकर।

तभी;

अचानक उसने राम - राम की।

कृष को याद आया -

मुझे इसकी धनराशि देना है।

उसकी,

जो मैंने पाँच - छः माह पहले अखबार लिए थे।

तुरंत; 

कृष ने उसकी धनराशि दे दी।

तब अखबारवाला बोला -

भई! आप बड़े नेक इंसान हो।

जब भी आपको फोन किया,

तब - तब धनराशि दे देने को कहा।

लेकिन व्यस्तताओं की वजह से,

उस वक्त नहीँ दे पाए।

आज आपने बिन माँगे ही दे दी।

तभी,

कृष ने मनन किया।

मैंने जिसे भी धनराशि उधार दी,

उसने अभी तक भी न लौटाई।

क्यों?

क्योंकि;

मैं सीधा हूँ, सरल हूँ, डरता हूँ।

नहीँ,

इसलिए नहीँ।

फिर ,

वो धनराशि लौटाते नहीँ।

क्यों?

क्योंकि वो अपना फर्ज निभाना नहीं चाहते,

इंसानियत दिखाना नहीँ चाहते।

वो अपने को क्या समझते हैं?

मैं नहीँ जानता।

शायद वो ही जानते होंगे।

वो क्या हैं?

वो कैसे हैं?

उन्हें बदलना है या नहीँ,

वो ही जानते हैं।

वो ही जानते हैं।


©️ कुशराज

(जरबौगॉंव, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड)

10/5/2018 _ 6:15भोर _ दिल्ली

कुशराज


प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ० लखनलाल पाल द्वारा 'साहित्य के आदित्य' व्हाट्सएप समूह में 12 अक्टूबर 2024 को रात 08:36 बजे की गई उल्लेखनीय टिप्पणी -

'मैं नहीं, वो ही जानते हैं' कुशराज जी की यह कविता उन लोगों की असलियत बताती है  जो रुपए पैसे ले तो लेते हैं पर लौटाते नहीं है। यह समाज की आम समस्या बन चुकी है। 

            समाज की ये विकृतियां आम आदमी की पूरी चैन को खराब कर देती हैं। एक आदमी दूसरे को वादा करता है कि वह उससे लेकर आपको पैसा दे देगा। तीसरा आदमी चौथे से यही वादा करता है। अब इसमें से एक ने भी वादाखिलाफी कर दी तो पूरी चैन टूट जाती है।

             इस तरह की आम समस्या को लेकर कुशराज ने जो रचना की है, यह उनकी मौलिक सोच को दिखाती है।  आजकल यह शिकायत रहती है कि विषय नहीं मिल रहा है किस पर रचना लिखें। सोच मौलिक है तो पग-पग पर विषय मिल जाएंगे। बस दृष्टि होनी चाहिए।

         कुशराज जी बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।

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