घर और खेत - कुशराज झाँसी

लेख : " घर और खेत "

तीसरे सेमेस्टर की परीक्षाएँ देकर सुबह - सुबह घर लौटा। घर पर दादा - बाई, मताई - बाप, कक्का - काकी और भज्जा - बिन्नू  बेसर्बी से  इन्तजार कर रहे थे। अनुज प्रशांत ने तो आठ - दस बार फोन कर लिया था दिल्ली से झाँसी के बीच ही। मैं झाँसी से बरुआसागर न उतरकर सीधा जरबौ गाँव पहुँच गया। माँ खाना पका रहीं थी, दादी झाडू लगा रहीं और दादाजी किसी काम से मऊ रानीपुर गए हुए। भाई - बहिन बरुआसागर थे क्योंकि वो सभी वहीँ से शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। चाचा और पापा खेत से लौट रहे थे। खेत पर आलू , मटर  की फसल और थोड़ी बहुत तरकारियाँ लगी हुई हैं। चहुँओर हरियाली ही हरियाली है। चाचा - पापा इस पूस की अँधेरी रात की कड़कती ठण्ड में खेत की रखवाली करते हैं, फसल को सिंचित करते हैं। दिन में माँ और चाची भी खेती में पापा - चाचा का हाथ बटातीं हैं। सारा परिवार बड़ी लगन और निष्ठा से सालभर खेती में कड़ी मेहनत करता है फिर भी घर का खर्च और हम भाई - बहिनों की पढाई का खर्च बड़ी मुश्किल से चल पाता है। खेती से इतनी आमदनी नहीँ हो पाती कि कुछ धन बचाकर अच्छा पहन पाएँ और अच्छा खा पाएँ। आधुनिकीकरण के इस दौर में चाहे शिक्षा हो, पेट्रोल - डीजल हो, कपड़े हो या खानपान की वस्तुएँ, सब के सब मँहगाई के चरम पर हैं और किसानों की फसलों के दाम नाममात्र के लिए बढ़ते हैं। फसल से उसे इतनी आमदनी नहीँ होती जिससे वो अपनी जीविका भलीभाँति चला सके इसलिए वो साहूकारों और बैंक से कर्ज लेता है। उसका कर्ज में ही जीवन निकल जाता है। वो सारा जीवन खेत में कड़ी मेहनत करता है फिर भी गरीबी - बेकारी में दयनीय जीवन जीता है। किसानों की इस दयनीय स्थिति को सुधारने का यही उपाय है - "फसलों के दोगुने दाम और किसानों हेतु शिक्षा का उचित प्रबंध।"

- कुशराज झाँसी

_17/12/2018_7:42 सुबह _ जरबौ गॉंव


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