Thursday 27 December 2018

कहानी : भूत - कुशराज झाँसी


                कहानी - " भूत "


               गावँ का पुराना किला डरावनी जगह बन गयी है। 'हू - हू' की अजीब तरह की आवाजें आती हैं। किले के सारे कक्ष एक ही डिजाइन के दिखते हैं। सारे दरवाजे एक जैसे लगते हैं। पता ही नहीँ चलता किससे भीतर घुसे हैं और किससे बाहर निकलें। नीचे कई तलघर हैं, जिनमें से कईयों में ताला पड़ा है। दो - चार ही खुले रहते हैं। उनमें भी कई दिनों से सफाई नहीँ हुई है। अजीब तरह की स्मैल आती है। दीवारों पर उस समय की कलाकृतियाँ बनी हुई हैं। जिनमें कुछ देवी - देवताओं की हैं और कुछ रमणियों कीं। कुछ ऐसी भी कलाकृतियाँ हैं। जिनमें राजा कई नर्तकियों के साथ रागरंग में मस्त दिखते हैं। कुछ में तो नग्न स्त्रियों का भी चित्रण है। 

किले के आसपास का इलाका वीरान है। बड़े - बड़े खेत हैं। ऊँची - नीची पहाड़ियाँ हैं। घना जंगल हैं जो डाकुओं से भरा पड़ा हैं। ये दिनरात लूट - मार मचाए रहते हैं। कभी किसी की बाईक पकड़ लेते और स्त्रियों के जेवर और आदमियों के पैसे, फोन समेत छीन लेते। जंगल के बीच से सिया नदी की कलकल धारा भी बहती है। किले से बस्ती चार - पाँच सौ मीटर दूर है। दोपहर में निराट सुनसान माहौल रहता है। सिर्फ और सिर्फ गिद्ध, उल्लू, चमगादड़ और मधुमक्खियों के छत्ते ही नजर आते हैं। कभी - कभार पर्यटक चले आते हैं और कभी - कभार प्रेमी युगल। प्रेमी युगल रोमांस करके घूम - घामकर चले जाते हैं और पर्यटक इसकी ऐतिहासिकता और शिल्पशैली पर नाज करते हैं।

सर्दियों की दोपहर को कपिल किला घूमने जाता है। जिसका घर बगल की बस्ती में ही है। बारह - तेरह साल का शर्मिला, गेहुँआ रंग का सुंदर मोड़ा है। घरवालों का बहुत लाड़ला है और सरकारी पाठशाला में कक्षा छः में पढ़ता है। वो किले में दो - तीन घण्टे तक घूमता रहा। अकेला पाकर नेमू कक्का की भटकी आत्मा उस पर सवार हो गयी। नेमू कक्का किले का पहरेदार था। जिसे कुछ सालों पहले डाकुओं ने मार गिराया था। वो चालीस - ब्यालीस साल का हट्टा - कट्ठा जवान था। उसकी उम्र पूरी नहीँ हुई थी इसलिए उसकी आत्मा अभी तक भटक रही है। वो कई मासूमों को अपने आगोश में ले चुका है। उन्हें बुरी तरह से परेशान कर चुका है। कभी बेवजह जोर - जोर से रुलाता है तो कभी नींबू माँगता है और कभी अण्डे। 

कपिल जैसे ही घर आया तो अम्मा ने कहा -
"बेटा! तोई आँखें चढ़ी - चढ़ी लग रही हैं। तू हर रोज से परेशान क्यूँ दिख रहा है।"
"कुछ नहीँ अम्मा। अभी - अभी किला घूमकर आया हूँ सो ऐसा लग रहा है। और कुछ नहीँ। मैं बिल्कुल ठीक हूँ।"

रात को कपिल अम्मा के साथ सो रहा था। पापा खेत पर फसल में पानी लगाने गए थे और दद्दा - बाई, भज्जा - बिन्नू लखनऊ एक शादी समारोह में गए थे। घर पर कोई नहीँ था कपिल और अम्मा के सिवाय। जैसे ही ग्यारह बजे तो कपिल जोर - जोर से रोने लगा। नींबू और अण्डा माँगने लगा। किवार खोलकर बाहर की ओर भागने लगा। तनक देर में वह बिल्कुल शांत हो गया। अम्मा बहुत डर गई। कपिल को साथ लेकर और घर में ताला लगाकर पड़ोस में पाँच - छः घरों की कुंदी बजायी जिनमें से एक ने किवार खोले। उन्हें पूरी बात बताई कि ये कपिल ऐसीं - ऐसीं हरकतें कर रहा है। जैसी मैंने आज तक नहीँ देखीं।

शीला काकी और रामलाल कक्का अम्मा के साथ उसके घर आ गए। कक्का ने कहा - 
"लक्ष्मी बिटिया! कपिल बेटा को भूत लग गया है। रमशु कक्का को बुला लाओ। वे क्षेत्र के जानेमाने गुनियाँ हैं। भूत - भूतनियाँ भगाना अच्छी तरह से जानते हैं।"
"हओ कक्का। अबेहाल जा रए।"
"ओ रमशु कक्का! खोलो किवार। हमाए कपिल खों जाने का हो गओ। देखलो तनक जाकैं।"
"हओ लक्ष्मी बिटिया। अबेहाल चल रए।"

रमशु कक्का ने आते ही कपिल के मुँह पर पानी का किंछा मारा और हाथ देखा। पाँच मिनिट में ही भूत बक्कर गया। भूतसवार कपिल से गुनियाँ ने पूँछा -
"कौन है तूँ?"
"कहाँ से आया है?"
"क्यूँ आया है?"

भूत ने जोर से चिल्लाकर कहा -
"भूत हूँ मैं। भूत..........। नेमू कक्का नाम है मेरा।"
"पूजा लेना और मासूमों को परेशान करना काम है मेरा।"
"मैं इसे अपना साथी बनाने आया हूँ।"

इतना सुनकर रमशु कक्का ने अघोरी बब्बा के नाम पर अगरबत्ती लगाईं और तंत्र - मंत्र फूँके। जिससे कपिल ठीक हो गया और भूत भाग गया। भोर हँसते - कूँदते पाठशाला गया। जब पतिदेव महेश खेत से लौटे तब रात का सारा किस्सा सुनाया, जिससे वो भी भयभीत हो। सारे घर वाले बहुत परेशान और चिंतित रहने लगे।

तीन महीने बाद लक्ष्मी और महेश के साथ रोजाना की भाँति कपिल सो रहा था। रात के डेढ़ बजे अचानक जोर - जोर से रोने लगा। नींबू, अण्डा, दारू और मिठाई माँगने लगा। फिर से रमशु कक्का आए। इस बार भूत को बहुत बड़ी पूजा लगायी गयी। पूजा में पान, सुपारी, नींबू, अण्डा, दारू, मुर्गा और पचबन्नी मिठाई दी गयी और अंत में इसे नारियल में बाँधकर रमशु कक्का ने अपनी तंत्रविद्या से सदा के लिए भस्म कर दिया। जिससे कपिल और सारे गाँववासी सदा से लिए इसके कृत्यों से मुक्त हो गए।

दो साल बाद ननिहाल में पढ़ने वाली राण्या जब सहेलियों के साथ अपने गाँव के मातेघाट कुँए से पानी भरने गयी थी तो शाम को वो आँगन में बेहोश होकर गिर पड़ी। हाथ में थोड़ी चोट आ गई। फटाफट डॉक्टर के पास ले गए। इलाज हुआ और सप्ताह भर में बिल्कुल टकाटक हो गई। फिर दस दिन बाद तेज बुखार और सिरदर्द से पीड़ित हो गई। डॉक्टर के पास एक - डेढ़ महीना इलाज हुआ। फिर भी उसकी तबीयत में तनक भी बदलाव नहीँ आया। शरीर दिन - प्रतिदिन सूखकर लकड़ी जैसा होता जा रहा है। न ही ठीक से खाना खाती है और न ही सोती है। सिर्फ अभी तीन - चार दिन से रात में बारह बजे से तीन बजे तक रोती रहती है और फिर शांत हो जाती है। घरवाले बहुत परेशान हैं। न कोई काम ढंग से कर पा रहें हैं और  न टेम से खा - पी रहे हैं। सिर्फ लाड़ली की चिंता में डूबे जा रहे हैं। 

घर में वह अकेली ही बची है। एक भाई था जो हैजा के कारण तीन साल पहले मर गया था। राण्या के पापा नंदू से धर्मपत्नी शीला ने कहा -
"ये जी। लाड़ली को डॉक्टर के पास बहुत दिखा लिया है। जिससे कुछ लाभ न हुआ। अब इसे गुनियाँ रमशु कक्का के पास और दिखा लेते हैं। शायद राम की कृपा से लाड़ली बच जाए।"
"हाँ ठीक है। मैं अभी रमशु कक्का को बुलाकर लाता हूँ।"

रमशु कक्का अभी घर पर नहीँ थे। उनकी पत्नी ने बताया कि वो अपनी ससुराल गए हैं। शाम तक लौट आएँगे। जैसे ही आएँगे तो मैं बता दूँगी कि दोपहर में नंदू भज्जा आए थे। बहुत रो रहे थे और कह रहे थे -
"भौजी! हमारी राण्या डेढ़ - दो महीना से बीमार है। कई बार डॉक्टर को दिखाया फिर भी कुछ फर्क नहीँ पड़ा। वो दिन - प्रतिदिन सूखती ही जा रही है। उसके साथ मैं, उसकी अम्मा और सारे घरवाले चिंता में मरे जा रहे हैं। भज्जा को जल्दी भेज देना।"
"हओ लला।"

शाम को रमशु कक्का नंदू भज्जा के यहाँ आ गए। लाड़ली राण्या खाट पर लेटी हुयी थी। बहुत कमजोर और चिंतित थी। उसकी पढाई छूट रही थी। इस बार उसे हाईस्कूल की बोर्ड परीक्षा देनी है। फूट - फूटकर रोती हुए बोली -
"कक्का! क्या होगा मेरा? न जाने क्या हो गया है? ऐसा लगता है जैसे मेरे अंदर कोई हो जो मेरी भूख मार रहा है।"
"चिन्ता मत करो लाडली। मैं आ गया हूँ। अभी हाल सब ठीक हो जाएगा।"

रमशु कक्का ने अगरबत्ती लगायीं और तंत्र - मंत्र फूँके। उसके मुँह पर पानी का किंछा मारा और नीम के झोंके से झाड़ा - फूँका। जिससे उसकी झक्की खुल गई। फिर उसकी चोटी में गाँठ लगाई जिससे भूतनी बक्कर आयी। कक्का ने जोर देकर पूँछा -
"कौन है तूँ?"
"कहाँ से आयी है?"
"किसलिए आयी है?"
"भूतनी हूँ मैं। निर्मला मेरा नाम है।"
"नेमू कक्का की बेटी हूँ। मातेघाट कुँआ में रहती हूँ।"
"और राण्या को अपनी संगिनी बनाने आयी हूँ।"

"अच्छा! तूँ वही निर्मला है न। जो अपने प्रेमी अतुल के साथ घर से भाग गई थी। चार महीने में वापिस लौटकर घर आयी थी। अम्मा ने डाँटा था। पापा ने थप्पड़ मारा था और भाई ने भी पीटा था। सबने प्रेमी से सम्बन्ध तोड़ने को बोला था। तूँ सम्बन्ध तोड़ने को तैयार न थी इसलिए तूँने व्यथित होकर मातेघाट कुँए में कूँदकर अपनी जान   दी थी।"
"हाँ! मैं वही निर्मला हूँ। अब मैं राण्या को भी अपनी संगिनी बनाकर रहूँगी।"
"मूर्ख पुत्री! ये नामुमकिन है। हम ऐसा कभी नहीँ होने देंगे।"

इतना सब होने पर रमशु कक्का ने पूजा का सामान लगवाया और घर से दूर पहाड़ किनारे पूजा लगायी गयी। जिसमें सुहागिन के सिंगार का पूरा सामान, नीबू, अण्डे और मिठाई थी। अंत में भूतनी निर्मला को नींबू में कैद करके भस्म कर दिया गया और सदा के लिए राण्या और गाँववासी इसके भय को छोड़कर चैन की साँस लेने लगे।

                    

✍  कुशराज झाँसी

_25/12/2018_12:12 रात _ जरबौगॉंव

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