आखिर अब तक क्यों हैं दलित - आदिवासियों के बच्चे सबसे ज्यादा कुपोषित...



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आखिर क्या बजह है कि आज देश की आजादी के 70 - 72 साल बाद भी दलित और आदिवासियों के बच्चे सबसे ज्यादा  कुपोषण के शिकार हैं। दलित जिन्हें हमारे संविधान में अनुसूचित जाति (SC) वर्ग में रखा गया है और आदिवासी जिन्हें अनुसूचित जनजाति (ST) वर्ग में। संविधान में दलित और आदिवासी समुदाय समेत अन्य पिछड़ा वर्ग और सवर्णों के उत्थान के लिए आरक्षण जैसी विशेष सुविधाओं का भी प्रावधान किया गया है। फिर भी दलित और आदिवासी समुदायों समेत दुनिया की भूख मिटाने वाले, किसानों की स्थिति दयनीय है...।

सन 2015 - 16 में आयोजित किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS - 4 Report) के अनुसार, वंचित श्रेणी में से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों सहित अल्पसंख्यक वर्गों के बच्चों में खून की कमी (एनीमिया) जैसी खतरनाक बीमारी और कुपोषण का प्रसार सबसे अधिक पाया गया। जो स्थिति देश को सोचने और विचार - विमर्श करने को मजबूर करती है।

सर्वेक्षण में 5 साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण के प्रमुख संकेतकों के विभिन्न प्रतिशत के बढ़ने के संकेतों को बेबाकी से दिखाया है। जो इस प्रकार हैं -:

- देश में 38% अविकसित (उम्र से कम)
- 21% कमजोर (ऊँचाई के मुकाबले पतले)
- 36% वजन कम (उम्र के उकाबले पतले) वाले बच्चे हैं।

अनुसूचित जनजाति के 5 साल से कम उम्र के बच्चों में 43.8% अविकसित बच्चे हैं, 27.4% कमजोर हैं और 45.3 कम वजन वाले हैं। इन तीनों श्रेणियों में अनुसूचित जाति में सबसे ज्यादा प्रतिशत अविकसित बच्चों में 42.8% है। 21.2% कमजोर हैं और 39.1% कम वजन वाले हैं।

5 साल से कम उम्र के बच्चों में जाति - आधारित कुपोषण के प्रतिशत को रिपोर्ट में इस प्रकार दिखाया गया है -:

Category - Sunted (%) - Waste (%) - Underweight (%)

1. SC - 42.8 - 21.2 - 39.1
2. ST - 43.8 - 27.4 - 45.3
3. OBC - 38.7 - 20.5 - 35.5
4. GEN (Other) - 31.2 - 19.0 - 28.8

बच्चों के बीच एनीमिया (खून में हीमोग्लोबिन की कमी) का प्रसार SC और ST के बीच भी ज्यादा है। सवर्णों में यह 53.9% बच्चों की तुलना में 5 साल से कम उम्र के 58% बच्चे एनीमिया से ग्रसित हैं। SC, ST और OBC वर्ग की जातियों की पीढ़ीगत बच्चों का प्रतिशत क्रमशः 60.5, 63.1 और 58.6 से कम है।

NFHS - 4  रिपोर्ट में प्रजनन, मृत्यु दर, परिवार नियोजन, मातृ एवं बाल स्वास्थ्य, बाल पोषण और घरेलू हिंसा पर भी संकेत जारी किए गए हैं और पिछले 10 सालों में इसमें बहुत कम सुधार हुए हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2017 में भारत 119 देशों में से 100 वें स्थान पर रहा...।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर हम उन मूल कारणों को बताने जा रहे हैं, जो दलित और आदिवासियों की दयनीय स्थिति क्व लिए जिम्मेदार हैं। मैं बुन्देलखण्ड के जिला झाँसी अन्तर्गत जरबौ गाँव का रहने वाला हूँ। वहाँ मैंने समाज और गाँव की जो स्थिति देखी, वो आपसे साझा करने जा रहा हूँ -:

* हमारे गाँव में सबसे ज्यादा अशिक्षा के कारण जन - जागरूकता की कमी है। जिसके कारण लोगों को पता ही नहीं चल पाता कि सरकार हमारे कल्याण और पतन के लिए कौन - कौन सी योजनाऐं चला रही है।
* सरकार हमारी शिक्षा और रोजगार जैसी मूलभूत जरूरतों का व्यवसायीकरण और निजीकरण करके हमारा पीढ़ी - दर - पीढ़ी शोषण करने की मंशा बना रही है।
* गाँव की ज्यादातर जनता किसान है, जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। उनकी भी स्थिति बहुत बुरी है। उन्हें कभी कर्ज की मार से और कभी फसलों के लगातार गिरते दामों के कारण आत्महत्या जैसी कदम उठाने पड़ रहें हैं। जो दुनिया के पतन का संकेत है।
* हमारे गाँव में गरीबों के लिए सरकारी राशन दुकान पर राशन तो मिलता है लेकिन वो माप - तौल में बहुत कम मिलता है, जो यह दर्शाता है कि हमारे तंत्र (व्यवस्था) में भ्रष्टाचार जोरों से व्याप्त है।


हमारे गाँव में ही नहीं देश के हर गाँव और छोटे शहरों में आज अशिक्षा के कारण बेरोजगारी बढ़ रही है। गाँवों के हालात तो बहुत खराब हैं, वहाँ की ज्यादातर गरीब किसान - मजदूर जनता अनपढ़ है। जिससे वो अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों को लेकर जागरूक नहीं है। लोगों को देश की कानूनों यानि संविधान की भी ठीक से जानकारी नहीं है। देश चुनाव जाति, धर्म और सीमा - सुरक्षा जैसे मुद्दों पर जीते जा रहे हैं। शासन और प्रशासन व्यवस्था में बैठे लोग स्वार्थी और भ्रष्ट हैं। जिसका प्रमाण चारा घोटाला जैसे घोटाले हैं। उनको जनता के रोजगार और कल्याण की कोई चिन्ता ही नहीं है।

आजादी से पहले आदिवासियों की मूल समस्याएँ वनोपज पर प्रतिबंध, तरह - तरह के लगान, महाजनी शोषण, पुलिस - प्रशासन की ज्यादतियाँ आदि हैं जबकि आजादी के बाद भारत सरकार द्वारा अपनाए गए विकास के गलत मॉडल  के आदिवासियों स उनके जल, जंगल और जमीन छीनकर उन्हें बेदखल कर दिया। विस्थापन उनके जीवन की मुख्य समस्या बन गई। आँकड़े गवाह हैं कि पिछले एक दशक में अकेले झारखंड से 10 लाख से अधिक आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं। इनमें से अधिकांश लोग दिल्ली जैसे महानगरों में घरेलू नौकर और दिहाड़ी पर काम करते हैं। विडंबना यह है कि सरकार के अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में मूलतः कोई आदिवासी नहीं है। इसलिए यहाँ की शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में आदिवासियों के लिए आरक्षण या कोई विशेष प्रावधान नहीं है। विकास के नाम पर अपने पैतृक क्षेत्रों से बेदखल किए गए ये लोग जाएँ तो जाएँ कहाँ?
इस प्रकिया में एक ओर उनकी सांस्कृतिक पहचान उनसे पीछे छूट रही है तो दूसरी ओर उनके अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न खड़ा हो गया है। अगर वे पहचान बचाते हैं तो अस्तित्व पर संकट खड़ा होता है और अगर अस्तित्व बचाते हैं तो सांस्कृतिक पहचान नष्ट होती है। इसलिए समकालीन आदिवासी विमर्श अस्तित्व और अस्मिता का विमर्श है। सम्पूर्ण आदिवासी साहित्य बिरसा मुण्डा, सीदों - कानू और तमाम क्रांतिकारी आदिवासियों और उनके आन्दोलनों से विद्रोही चेतना का तेवर लेकर निरन्तर आगे बढ़ रहा है।


दलितों के साथ जाति के आधार पर भेदभाव किया जाता रहा है। हिन्दू धर्म इन्हें अछूत मानता चला आ रहा है। इसलिए कुछ दलित धर्म - परिवर्तन करके बौद्ध धर्म को अपना रहे हैं। दलित और किसान विमर्श के दार्शनिक, सामाजिक क्रांति के अग्रदूत महात्मा ज्योतिबा फुले शिक्षा का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं -

" विद्या बिन गई मति, मति बिन गई नीति।
 नीति बिन गई गति, गति बिन गया वित्त।
   वित्त बिन चरमराए शुद्र।
 एक अविद्या ने किए इतने अनर्थ।।"

अब संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक - 2019 पास करके भाजपा सरकार द्वारा धर्म के आधार पर देश का पुनः विभाजन करने की साजिश रची जा रही है। संविधान की प्रस्तावना के अनुसार; धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में तनाव का माहौल पैदा किया जा रहा है। दलितों के मसीहा, बाबा साहेब डॉ० भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित भारतीय संविधान की खिल्ली उड़ाई जा रही है। तानाशाही रवैए से शिक्षण संस्थानों का निजीकरण करना और फीस वृद्धि करना बढ़ाने और अब नागरिक संशोधन बिल 2019 लाना भाजपा सरकार द्वारा लोकतन्त्र की हत्या करना है...।



मैं अपनी कविता के माध्यम से देश हित की बात कर रहा हूँ। कविता का शीर्षक है - 'सब समान हों'



चाहे हों दिव्यांग जन
चाहे हों अछूत
कोई न रहे वंचित
सबको मिले शिक्षा
कोई न माँगे भिक्षा

दुनिया की भूख मिटानेवाला
किसान कभी न करे आत्महत्या
किसी पर कर्ज का न बोझ हो
सबके चेहरे पर नई उमंग और ओज हो

न कोई ऊँचा
न कोई नीचा
सब जीव समान हों
हम सब भी समान हों

न कोई बनिया नाजायज ब्याज ले
न कोई कन्यादान के संग दहेज ले
कोई बहु - बेटी पर्दे में न रहे
सबको दुनिया की असलीयत दिखती रहे

कोई न स्त्री को हीन माने
वह साहस की ज्वाला है
अब तक वह चुप रही
तो हुआ ये

सिर्फ मानवता की हीनता
और हैवानियत का चरमोत्कर्ष
अब सब कुरीतियों - असमानताओं को मिटाना है
मानवता और विश्व शांति लाना है...।


परिवर्तनकारी कुशराज
     झाँसी बुन्देलखण्ड
    11/12/19_10:20सुबह

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