बरुआसागर : बुंदेलखंड का कश्मीर Barwasagar : Kashmir of Bundelkhand
बरुआसागर : बुंदेलखंड का कश्मीर
Barwasagar : Kashmir of Bundelkhand
विश्व में अग्रणी भारतीय संस्कृति का उल्लेखनीय विकास जिन क्षेत्रों में हुआ, उनमें 'मध्यदेश' यानि 'बुंदेलखंड' का विशेष महत्त्व है। इसी बुंदेलखंड के अंतर्गत झाँसी जिले का बरूआसागर (Barwasagar or Baruasagar) भी है। यहाँ युग - युगों से संस्कृति के विभिन्न अंग पोषित होते रहे हैं। प्राकृतिक सुषमा की दृष्टि से यह अत्यंत मनोहर है।
यह स्थान झाँसी से 21 किलोमीटर दूर दक्षिण पूर्व में झांसी - मऊरानीपुर मार्ग पर स्थित है। मध्यरेल झाँसी - मानिकपुर शाखा पर बरूआसागर रेलवे स्टेशन है।
यहाँ से गुजरने वाले 'बरूआ' नामक नाले पर तटबन्ध बनाकर एक विशाल सरोवर यहाँ के महाराजा उदितसिंह ने लगभग 300 वर्ष पूर्व बनवाया था। यह 'सागर' कहलाता है। इस प्रकार ' बरूआ' तथा 'सागर" इन दो शब्दों के योग से " बरूआसागर" नाम पड़ा।
बरूआसागर ताल - कुशराज झाँसी
नगर के दक्षिणी कोने पर कैलाशपर्वत नामक पहाड़ी पर प्राचीन शिवमन्दिर है इसी के निकट भव्य प्राचीन दुर्ग है - बरूआसागर का किला, जो झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई का ग्रीष्मकालीन महल रहा है। इस दुर्ग में रहकर गर्मियों के मौसम में रानी लक्ष्मीबाई प्रकृति का आनंद लेती थीं। रानी के बाद यह दुर्ग ब्रिटिशकाल में अधिकारियों का विश्रामगृह भी रहा है। यहाँ से विशाल सरोवर बरूआसागर ताल, झील और स्वर्गाश्रम झरना पक्की कलात्मक सीढ़ियोंदार घाटों तथा हरे - भरे बागों से समृद्ध दृश्य अत्यन्त सुहावना लगता है।
बरूआसागर का कम्पनी बाग - कुशराज झाँसी
बरूआसागर वैष्णव, शैव तथा शाक्त साधना का प्रमुख स्थल होने के साथ-साथ भारतीय संस्कृति के प्रचार - प्रसार का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। इसकी दो कोस परिधि में ऐसे अनेक स्थल जो इसके सांस्कृतिक वैभव के साक्षी हैं। प्राचीन इतिहास में वर्णित तुंगारण्य तथा बेत्रवंती यानी बेतवा नदी यहाँ से छह किलोमीटर दूर है।
प्राचीनकाल में संस्कृति प्रचार - प्रसार हेतु मठों की स्थापना की जाती थी । यह मठ धर्म, संस्कृति, कला, साहित्य, वाणिज्य तथा सामाजिक समृद्धि हेतु नियोजित कार्य करते थे। इसके अन्तर्गत विभिन्न मतावलम्बियों के साधनास्थल तथा मंदिर बनाये जाते थे। इस दृष्टि से बरुआसागर का सांस्कृतिक अनुशीलन स्वतन्त्र शोध का विषय है। यह तथ्य विशेष महत्त्वपूर्ण हैं कि बरूआसागर के पूर्व में 'घुघुवामठ' तथा पश्चिम में 'जराय का मठ' नामक दो चन्देलकालीन मठों का उल्लेख मिलता है। इनके पुरातत्वीय अवशेष अभी भी विद्यमान हैं।
घुघुवा - मठ का नामकरण बरुआसागर के पूर्व में स्थित ग्राम घुघुवा गॉंव पर हुआ। सम्भवतः इसका विस्तार घुघुवा ग्राम से वर्तमान स्वर्गाश्रम झरना तथा सरोवर के ऊपरी टीले पर स्थित लक्ष्मणशाला मन्दिर तक था। घुघुवा ग्राम से लक्ष्मणशाला तक अनेक स्थानों पर अलंकृत शिलाखण्ड पड़े हैं। वे यहाँ विशाल मठ की मूक गाथा कहते हैं। यहाँ ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित दो विशाल मन्दिर थे। इनका निर्माण चन्देल काल में हुआ था। इनमें गणेश तथा दुर्गा जी की मूर्तियां प्रतिष्ठित थीं। अब वहाँ कोई मूर्ति नहीं है। अधिकांश ग्रामवासी मठ की प्राचीनता अथवा उसके विस्तृत विवरण से अनभिज्ञ हैं।
इस मठ के अलंकृत स्तम्भों तथा प्रस्तरखण्डों का उपयोग सरोवर की कलात्मकसीढ़ियों तथा लक्ष्मणशाला की प्राचीर में यत्र - तत्र किया गया है। इस पुरातत्वीय स्थल पर लोक निर्माण विभाग ने एक सुन्दर निरीक्षण भवन बना दिया है।
बरुआसागर से पांच किलोमीटर पश्चिम में, सड़क किनारे एक टीले पर शिखर शैली का मन्दिर बना है। इसे 'जराय का मठ' कहते हैं। 'जराय' शब्द जड़ाऊ अथवा पच्चीकारी के लिये प्रयुक्त होता है। इसके अलंकृत होने के कारण सम्भवतः इसका नामकरण 'जरायमठ' किया गया होगा। निकटवर्ती ग्रामवासी इसे जरायमाता की मठिया भी कहते हैं। किन्तु इस मन्दिर में कोई विग्रह नहीं है। उसके आस-पास भी अलंकृत शिलाखण्ड मिलने से इसके विस्तृत होने का अनुमान है।
पुरातत्व वेत्ता प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी इसे शिव-पार्वती का चन्देलकालीन मन्दिर मानते हैं जबकि झांसी संग्रहालय के पूर्व निदेशक डॉ० एस० डी० त्रिवेदी के अनुसार यह देवी मन्दिर था। वे इसे प्रतिहारकालीन मूर्तिकला का उत्कृष्ट मन्दिर मानते हैं। प्रतिहारकाल के तुरन्त पश्चात् चन्देलकाल आता है, अतः काल दृष्टि से विशेष अन्तर नहीं है । किन्तु देव दृष्टि से अनेक मत हैं। अनेक ग्रामवासी प्राचीन परम्परा से इसे सूर्य मन्दिर मानते हैं। कुछ दिनों पूर्व तक सरोवर के निकट एक सूर्य प्रतिमा थी। सम्भव है वह यहाँ से ले जाई गई होगी।
बुन्देलखण्ड में सूर्य पूजा काफी प्रचलित रही है। यहाँ उनाव बालाजी, कालप्रियनाथ कालपी, मड़खेरा तथा महोबा में प्रसिद्ध सूर्य मन्दिर रहे हैं, अतः यहाँ भी सूर्य मन्दिर की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।
जराय का मठ पंचायतन शैली पर बनाया गया है। इस शैली के अन्तर्गत केन्द्रीय मन्दिर के बाहर चारों कोनों पर चार मन्दिर बनाये जाते हैं। यहाँ दक्षिण की ओर दो कोनों पर उपमन्दिर अभी शेष हैं। किन्तु शेष दो नष्ट हो गये हैं। मुख्य मन्दिर पूर्वाभिमुखी है। इसके गर्भगृह के आगे खुला मन्दिर था। यह नष्ट हो गया है। गर्भगृह के ऊपर शिखर शैली की क्षिप्त-वितान का सुन्दर संयोजन है। मन्दिर की बाहरी दीवारों का अलंकरण मूर्तियां उकेरकर किया गया है। यह ऊपर से जटिल प्रतीत होते हैं। पूर्व की ओर बना द्वार पूर्णरुपेण अलंकृत है। नीचे की पंक्ति में अष्ट दिक्पाल उत्कीर्ण है। द्वार पर दोनों ओर मच्छप तथा कच्छप पर आरूढ़ गंगा और यमुना की मूर्तियां हैं। मन्दिर के ऊपरी भाग में पद्म नीचे की ओर कलश तथा पार्श्व में मिथुन मूर्तियां अंकित हैं। अधिकांश मूर्तियां खण्डित हैं।
इस मन्दिर से लगभग तीन किलोमीटर दूर बनगुवां में चन्देलकालीन मन्दिरों के अवशेष, अलंकृत शिलाखण्ड तथा शिवलिंग मिलते हैं। यहाँ प्राचीन वापी भी है।
बरूआसागर रेलवे स्टेशन के समीप सिसोनिया गाँव के अन्तर्गत ऊंची पहाड़ी पर 'तारामाई' का प्राचीन मन्दिर है। इस तक पहुंचने के लिये छह सौ सीढ़ियां है। मान्यता है कि यह देवी पुराण में वर्णित तारादेवी की सिद्धपीठ है। किवदंतियों के अनुसार देवी के सती होने पर उनके अंग जिन-जिन स्थानों पर गिरे, वहाँ सिद्धपीठों की स्थापना हुई। यह भी उनमें से एक है।
बरूआसागर से 9 किलोमीटर दूरी पर घुघुआ - टहरौली मार्ग पर स्थित जर्बो / जरबौ गाँव में प्राचीन गुप्तकालीन किले के खंडहर हैं। जहाँ पर अनेक गुप्तकालीन मंदिर के अवशेष के रूप में खंडित मूर्तियाँ आज भी उपलब्ध हैं। इस जगह को गाँववाले मढ़िया नाम से पुकारते हैं। इसी गॉंव में नृसिंह भगवान का मंदिर स्थित है जो बुंदेलखंड का एकमात्र नृसिंह मंदिर है।
जरबौ गॉंव में प्राचीन मंदिर के अवशेष - कुशराज झाँसी
इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि चन्देलकाल तक इस अंचल में स्थापत्य तथा मूर्तिशिल्प का पर्याप्त विकास हो चुका था।
यह क्षेत्र कला एवं संस्कृति के साधकों का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है। लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व महाराजा उदित सिंह द्वारा बनवाये गये अनेक मन्दिर यहां वैष्णव संस्कृति के समुचित संरक्षण का संकेत देते हैं। इस काल के मंदिरों में किले के निकट लक्ष्मी मन्दिर, बाजार में चतुर्भुज जी का मन्दिर, रघुनाथ मन्दिर तथा भाऊ मन्दिर उल्लेखनीय है। इन सबकी निर्माण शैली लगभग समान है। इन सभी मंदिरों में काली कसौटी के विग्रह प्रतिष्ठित हैं।
वर्तमान में बरूआसागर का सर्वाधिक रमणीय एवं सांस्कृतिक स्थल स्वर्गाश्रम है। झांसी- मऊरानीपुर मुख्य मार्ग पर नगर से लगभग तीन किलोमीटर दूर सरोवर के नीचे की ओर इसका विशाल कलात्मक एवं आकर्षक प्रवेश द्वार दर्शकों को बांध लेता है। आश्रम की प्राचीर सा दिखता सरोवर का विशाल तटबन्ध, बड़े बड़े सीढ़ीदार पक्के घाट, हरे भरे दृश्यों की छांव, लता वल्लरियां, प्राचीन वटवृक्ष तथा शिवमंदिर के बीच प्रवाहित होने वाला गुप्तेश्वर-प्रपात उसके दांयी ओर कलरव करता एक और प्रपात, जलकुण्डों का सौन्दर्य और कहीं ऊबड़ खाबड़ पड़े शिलाखण्डों में झांकता नैसर्गिक वैभव दर्शकों का मन मोह लेते हैं। विभिन्न प्रकार के पुष्पों से वातावरण सुरभित है।
सन् 1950 ई0 मे दण्डी स्वामी शरणानन्द सरस्वती ने इसे अपना साधना केन्द्र बनाकर इसे विकसित किया था। उनकी प्रेरणा से श्रृंगीऋषि समाज ने श्रृंगीऋषि मन्दिर तथा अन्य श्रद्धालु भक्तों ने दुर्गा मन्दिर, वेद मन्दिर, शिवमन्दिर, यज्ञशाला, गौशाला, प्रवचन भवन, संस्कृत विद्यालय भवन, प्राकृतिक आयुर्वेद चिकित्सा भवन तथा संत विश्राम कक्षों का निर्माण कराया था। यज्ञ तथा प्रवचन यहाँ की परम्परा बन गये हैं। तब इस आश्रय परिसर में वेदों की ऋचायें, सामवेद के गान और संतों के प्रवचनों की ओजमय वाणी गूंजती थी। सन् 1982 में स्वामी जी के देहावसान के पश्चात् अनेक वर्षों तक यहां आध्यात्मिक चेतना तिरोहित हो गई थी। नगरवासियों ने पुनः स्वामी जगद्गुरु को यहाँ लाकर उनके द्वारा आश्रम का निर्देशन कराने तथा इसके पूर्व वैभव को प्रतिष्ठित करके यहां की प्राकृतिक सुषमा, आध्यात्मिक चेतना तथा मानव सेवा की त्रिवेणी प्रवाहमान बनाये रखने का सराहनीय कार्य किया है और स्वामी जी के समाधि स्थल पर विशाल मंदिर का निर्माण किया है, जिसके गर्भगृह में स्वामी शरणानंद सरस्वती जी की प्रतिमा स्थापित की है। स्वर्गाश्रम झरना पर प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर्व के अवसर विशाल मेला लगता है। मकर संक्रांति को बुंदेलखंडी 'बुड़की' कहते हैं। बरूआसागर के आसपास 30-40 किलोमीटर में स्थित गॉंवों के लोग मकर संक्रांति पर स्वर्गाश्रम झरने और बरूआसागर ताल में बुड़की लेते हैं।
स्वर्गाश्रम की भाँति वर्तमान में बरूआसागर में आस्था का क्रेंद्र सिद्धपीठ मंसिल माता मन्दिर है। मंसिल माता समस्त क्षेत्रवासियों की हर मनोकामना पूर्ण करतीं हैं। इसलिए श्रद्धालु प्रसन्न होकर देवी जी को बकरी की बलि चढ़ाते हैं और श्रीमद भागवत कथा ज्ञान यज्ञ या श्री रामकथा ज्ञान यज्ञ का हर साल आयोजन भी कराते हैं। जिसमें विश्वविख्यात कथा वाचक जैसे - जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी, गौरव कृष्ण शास्त्री जी इत्यादि कथा का वाचन कर चुके हैं। मंसिल माता की सेवा में सन 1997 के कार्यरत मुख्य पंडा, पुजारी सुरेश कुशवाहा दाऊ हैं, जिनकी सुपुत्री राधास्वरूपा महक देवी कथावाचक हैं। जिनकी उम्र 7 साल हैं। जिन्हें बुंदेलखंड की सबके कम उम्र की कथावाचक होने का गौरव प्राप्त है।
मंसिल माता मंदिर - कुशराज झाँसी
बरूआसागर में किले की तलहटी में तालाब के बांध पर कई सालों के नगरपालिका परिषद द्वारा रक्षाबंधन पर्व के पावन अवसर पर हर साल विशाल दंगल और निशानेबाजी प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है।
बरूआसागर को 'बुन्देलखण्ड का कश्मीर' मानने का कारण यह है कि यहाँ लगभग दस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत सरोवर तथा दर्जनों बागों की मनभावन हरीतिमा है। इनमें अमराई बाग, कम्पनी बाग, गोमटा बाग, राजबाग तथा गणेश बाग प्रमुख हैं। सरोवर से निकाली गई नहरें तथा कल - कल करती पक्की नालियों से प्रवाहित जलधारा से सिंचाई आश्वस्त है। इससे इस नगर में शाक भाजी, फल एवं फूलों के प्रमुख उत्पादन केन्द्रों में गिना जाता है। यहाँ की सब्जीमंडी एशिया की सबसे बड़ी अदरक मंडी के रूप में विख्यात है। यहाँ से इन उत्पादों का लगभग पचास ट्रक प्रतिदिन का लदान है।
अतः इस प्रकार बरूआसागर सांस्कृतिक चेतना एवं हरितक्रान्ति का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है।
_19/12/2022_9:00भोर_झाँसी
शोध एवं आलेख -:
©️ कुशराज झाँसी
(सदस्य : बुन्देलखंड साहित्य उन्नयन समिति झाँसी, बुंदेलखंडी युवा लेखक, सामाजिक कार्यकर्त्ता)
लेखक - कुशराज झाँसी
नोट :-
बुन्देली झलक पर "बरुआसागर - बुंदेलखंड का ऐतिहासिक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्र" नामक शीर्षक से यह शोध - आलेख 20/12/2022 को प्रकाशित।
https://bundeliijhalak.com/baruasagar/?amp=1
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