भाषा की राजनीति - किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज झाँसी'

 लेख - " भाषा की राजनीति "

©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 

'कुशराज झाँसी'



जब से इस धरती पर मानव जीवन की उत्पत्ति हुई है, तभी से भाषा की भी उत्पत्ति हुई है। भाषा के द्वारा ही मनुष्य सबसे बुद्धिमान प्राणी बन पाया है। भाषा के द्वारा ही सभ्यता और संस्कृति का विकास हो पाया है। भाषा की समाज-निर्माण में अहम भूमिका रही है। भाषा संस्कृति की संवाहक और अस्मिता की रक्षक होती है इसलिए भाषा पर सबकी निगाह रहती है। चाहे वह उद्योगपति हो, शिक्षाविद् हो, समाज सुधारक हो या फिर राजनेता ।


सबसे पहले भाषा का मौखिक रूप ही प्रचलन में था। हमारे प्राचीन धर्म-ग्रंथों, वेद-पुराणों के ज्ञान का प्रसारण श्रुति-परंपरा यानि मौखिक परंपरा द्वारा ही हुआ है। भारतीय समाज में धर्म का बोलबाला रहा है, जो आज भी कायम है। धार्मिक नियमों / कानूनों का समाज कड़ाई से पालन करता था और कहीं-न-कहीं आज भी धार्मिक कानूनों को उसी प्रकार माना जा रहा है। सरकार द्वारा निर्मित कानूनों को सभी को पालन करना चाहिए क्योंकि जब हम धार्मिक कानूनों का पालन कर सकते हैं तो सरकार के नियमों का क्यों नहीं?


राजनीति में धर्म का बढ़ा हस्तक्षेप रहा है। इसलिए धर्म के नाम पर आज तक राजनीति होती आ रही है। प्रत्येक धर्म की अपनी-अपनी एक आधिकारिक भाषा है। जैसे- सनातन / हिन्दू धर्म की संस्कृत और हिन्दी ; इस्लाम / मुस्लिम धर्म की अरबी, फारफी, उर्दू ; ईसाई धर्म की अंग्रेजी ; बौद्ध वर्म की पालि ;  जैन धर्म की प्राकृत और सिख धर्म की पंजाबी आदि-आदि।


जब अयोध्या राम मंदिर और बाबरी मस्जिद जैसे धार्मिक मुद्दे पर राजनीति हो रही है तो भाषा पर राजनीति या भाषा की राजनीति क्यों नहीं हो सकती? अवश्य हो सकती है। आज भाषा की राजनीति बहुत हो रही है। आज का दौर भाषायी भेद‌भाव का चल रहा है। हर कोई अपनी भाषा को श्रेष्ठ साबित करने में लगा हुआ है और हर प्रकार से अपनी भाषा का विकास करना चाह रहा है। चाहे वो हिन्दीभाषी हो, चीनी भाषी हो या फिर अंग्रेजीभाषी।


जैसाकि सभ्यता के विकास के साथ-साथ भाषा का भी विकास होता गया और लिपि के अविष्कार के परिणामस्वरूप भाषा का लिखित रूप प्रचलन में आया। जब से भाषा का लिखित रूप प्रचलन में आया, तभी से भाषा का राजनीतिकरण होना शुरू हो गया। प्रेस के अविष्कार के बाद राजनैतिक संगठनों ने अपने-अपने विचार, घोषणाएँ आदि जनता की मातृ‌भाषा, राष्ट्र‌भाषा, संपर्क भाषा और वैश्विक भाषा में प्रचारित-प्रसारित करना शुरु कर दिया । जनता की भाषा में नेताओं द्वारा बात करने से जनता प्रभावित हुई और भाषा के महत्त्व को भाँपने लगी।


महान दार्शनिक अरस्तु ने कहा है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। लेकिन मैं कहता हूँ कि मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है। समाज में रहने वाला हर व्यक्ति राजनीति से अवश्य प्रभावित होता है। चाहे व्यक्ति प्रत्यक्ष राजनीति में आकर जनता पर शासन करे और चाहे अप्रत्यक्ष राजनीति में रहकर शासन में रहे। जिस प्रकार भाषा समाज की परम आवश्यकता है, उसी प्रकार राजनीति भी समाज के लिए परम आवश्यक है। भाषा समाज में एक व्यक्ति के विचारों और भावों को दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाने का माध्यम बन‌ती है और राजनीति सत्ता के द्वारा समाज के हर व्यक्ति को आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करने का माध्यम होती है।


भाषा के भी कई प्रकार हैं। जैसे - कार्यालयी भाषा, शिक्षा माध्यम की भाषा, आमजनता की भाषा, मीडिया की भाषा, आदिवासियों की भाषा आदि-आदि। भाषा हमारी पहचान है इसलिए सबको अपनी भाषा प्यारी होती है और इस पर राजनीति होती है। जैसे -


भारत की आजादी के बाद जब राज्यों का पुर्नगठन हो रहा था तब भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन उचित है या नहीं, इसकी जाँच के लिए संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने इलाहाबाद संविधान सभा के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश एस० के० धर की अध्यक्षता में एक चार सदस्यीय आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग ने भाषा के आधार पर राज्यों के पुर्नगठन का विरोध किया और प्रशासनिक सुविधाओं के आधार पर राज्यों के पुर्नगठन का समर्थन किया। और फिर धर आयोग के निर्णयों की परीक्षा करने के लिए कांग्रेस कार्य समिति ने अपने जयपुर अधिवेशन में जवाहर लाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और पट्टाभि सीतारमैय्या की एक समिति का गठन किया। इस समिति ने भाषायी आधार पर राज्यों पुर्नगठन की माँग को खारिज कर दिया।


नेहरू, पटेल एवं सीतारमैय्या (जे०वी०पी० समिति) समिति की रिपोर्ट के बाद मद्रास राज्य के तेलगू-भाषियों ने पोटी श्री रामुल्लू के नेतृत्व में आन्दोलन छेड़ दिया और 56 दिन के आमरण अनशन के बाद 15 दिसम्बर 1952 ई० को रामुल्लू की मृत्यु हो गई।


रामुल्लू की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने तेलगूभाषियों के लिए पृथक 'आन्ध्र प्रदेश' के गठन की घोषणा कर दी। 01 अक्टूबर 1953 ई० को आन्ध्र प्रदेश राज्य का गठन हो गया। यह राज्य स्वतंत्र भारत में भाषा के आधार पर गठित होने वाला पहला राज्य था। उस समय आन्ध्रप्रदेश की राजधानी कर्नूल थी।


इसी प्रकार 01 मई 1960 ई० को मराठी और गुजराती भाषियों के बीच संघर्ष के कारण बम्बई राज्य का बंटवारा करके महाराष्ट्र एवं गुजरात नामक दो राज्यों की स्थापना की गई। और 01 नवम्बर 1966 ई० को पंजाब को विभाजित करके पंजाब (पंजाबी भाषी) एवं हरियाणा (हिन्दी भाषी) दो राज्य बना दिए गए।


आज भी भाषा की राजनीति बहुत हो रही है। पूर्वांचल क्षेत्र के भोजपुरीभाषी भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूचि में सम्मिलित कराने हेतु आन्दोलन कर रहें हैं और वहीं दूसरी ओर बुन्देलीभाषी तो पृथक बुन्देलखण्ड राज्य की माँग कर रहे हैं।


आज हमारे लिए सबसे बड़ी दुःख की बात यह है कि भारतीय संस्कृति पर नाज करने वाली, हिन्दूवादी एवं राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली योगी सरकार उत्तर प्रदेश के गॉंव-गाँव में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोल रही है और देश के भविष्य को अंग्रेजी का मानसिक गुलाम बना रही है और हमारी मातृ‌भाषा हिन्दी का अपमान कर रही है।


हमारी शिक्षा व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त ना होने की वजह से इन गाँवों के सरकारी स्कूलों में हिन्दी माध्यम की पढ़ाई-लिखाई ठीक से हो नहीं रही है। ऊपर से सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स के माता-पिता, किसान या मजदूर हैं, जिन्हें अपने काम से ही फुर्सत नहीं मिलती। यदि फुर्सत मिले तो ही ये अपने बच्चों की पढ़ाई का जायजा भी ले सकेंगे। ये किसान और मजदूर कर ही क्या सकते हैं, जो करना है, सरकार को करना है। सरकार द्वारा अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूल खोलकर जनमानस में बेरोजगारी और कुशिक्षा को बढ़ावा देने की साजिश नजर आ रही है...।


(30 अक्टूबर 2019 को हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में कला स्नातक हिन्दी प्रतिष्ठा, तृतीय वर्ष में सहायक आचार्य डॉ० प्रभांशु ओझा जी के मागदर्शन में प्रस्तुत परियोजना कार्य)



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