दुखते रग पर मरहम जैसी सीमा मधुरिमा की कविताएँ - डॉ० रिंकी रविकांत
" दुखते रग पर मरहम जैसी सीमा मधुरिमा की कविताएँ "
(99, संगम विहार, होटल मेनाल रेजीडेंसी के पीछे, नया खेड़ा, कोटा, राजस्थान - 324008)
आज के इस आपा-धापी भरे युग में हमें हर-एक चीज फटाफट वाली चाहिए। पुस्तकालय का स्थान इ-पुस्तकालय ने ले लिया, किताब का स्थान इ-बुक ने लिया। पुस्तक मेले में जाके समय और पैसे खर्चे करने से बेहतर लेखक सोशल मीडिया पर ही अपना प्रचार कर लेना चाहता है। देखा जाये तो यह गलत भी नहीं है क्योंकि सोशल-मीडिया के माध्यम से रचनाएँ अतिशीघ्र एक बहुत बड़े वर्ग तक पहुँच जाती है। हालाँकि इस होड़ में घोड़े-गदहे सब एक साथ दौड़ रहे और यहाँ ये भी नहीं कहा जा सकता कि घोडा ही जीतेगा; क्योंकि गदहे ने भी अपनी ‘फैन फॉलोविंग’ बहुत बढ़ा रखी है। पर फिर भी एक अध्येता वर्ग भी हैं जिनसे इन रचनाकारों को बराबर प्रोत्साहन मिलता रहता है। इस सोशल-मीडिया युग में साहित्यकारों की पौध ऐसे उग रही जैसे जूं के काटने से उत्त्पन्न खुजली। विशेष तौर पर अधिकांश कवयत्रियाँ पूरे श्रृंगार के साथ तो कुछ अर्द्ध-नग्न हो के भी दिन भर में पांच-दस पोस्ट करती रहती हैं ताकि उनकी कविताएँ भले दम तोड़ दे परन्तु उनका ‘क्रेज’ लोगों से कम नहीं होना चाहिए। इन्होने अपना मापदंड यही बना रखा कि जितने लाइक, कमेंट आए बस रचना उतने उच्च कोटि की हुई समझो। खैर बात ‘कृति और कृतिकार-दो’ की हो रही जिसका आयोजन वरिष्ठ कथाकार महेन्द्र भीष्म अपने पिता के साहित्यिक अवदान को याद करते हुए करते हैं। हाँ! तो उस मंच पर चार कवि/कवयत्रियों और चार कथाकारों को स्थान मिला था। भीष्म जी ने वार्ता प्रारंभ होते ही जिसे सर्प्रथम बुलाया वो कवयित्री थीं सीमा मधुरिमा। आयोजक यदि आपको सर्वप्रथम मंच देता है तो कहीं न कहीं उसे यह विश्वास होता है कि जिस विश्वास से व्यक्ति को खड़ा किया जा रहा वह उसमें उसे निराश नहीं करेगा। वह विश्वास मैंने देखा की सीमा जी ने किस तरह से कायम रखा।
मेरे प्रथम साक्षात्कार में ही हम दोनों में गहरा बहनापा हो गया। लग ही नहीं रहा था कि हम एक-दूसरे से पहली बार मिल रहे। उस मंच पर उन्होंने अपनी कविता ‘रखैल कौन’ सुनाई। उस कविता ने मुझे उद्वेलित कर दिया। मन गद-गद हो उठा... जब वो पंक्तियाँ सुनी। जो कह के एक पुरुष अपने अहं को आत्मसंतुष्ट करता है... जिसे दुनिया गाली कहती है... जिसे लोग ताना कहते हैं...जिसे स्त्री के कोमल ह्रदय पर चोट करने के लिए एक धारदार हथियार समझा जाता है... उसी ‘रखैल’ को उन्होंने ऐसे परिभाषित किया कि मैं उनकी ‘फैन’ बन बैठी।
मैं बात कर रही हूँ सीमा मधुरिमा की ... एक ऐसी कवयित्री जिसे अर्द्ध-नग्न हुए बिना भी लाखों लोग फॉलो करते है। वजह उनकी ज्वलंत कविताएँ। मूलतः स्त्री-विमर्श का पुरजोर समर्थन करने वाली सीमा जी को एक बहुत बड़े पुरुष वर्ग का भी समर्थन मिलता रहता है। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा कि न जाने क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं लोगों को यहाँ इस ‘फेसबुकिया-युग’ में ‘हिट’ होने के लिए। पर जब मैं सीमा जी की पोस्ट देखती हूँ तब फिर से आश्वस्त हो जाती हूँ कि ‘कंटेंट’ जोरदार है तो आपको ‘हिट’ होने से कोई नहीं रोक सकता। लाखों फॉलोवर्स के साथ सीमा जी एक सोशल-मीडिया सेंसेसन हैं। यूँ तो व्यंग्य की धार, प्रेम की फुहार, ममता की महक, बचपन की चहक, बेटी की चिंता, स्त्री की इच्छा, पत्नी का तन, प्रेमिका का मन...आदि सबकुछ हम पढ़ लेते हैं उनकी कविताओं में। स्त्री के हरेक रूप के साथ उसकी सभी भावनाओं की एक पड़ताल हैं सीमा मधुरिमा की कविताएँ।
एक बेटी जो ससुराल से वापिस आ जाती है उसका जीवन कैसा हो जाता है ये हम सब जानते हैं। तब सीमा जी महज एक आलिंगन से उसे अपूर्ण होने के अहसास से उबार लेती हैं -
एक एक आलिंगन बदल देता है किस्मत ससुराल से रूठ आयी बेटी की...
अगर उसका पिता उसे
भरकर बाहों में दिलासा दे सिर पर हाथ फेरकर की मैं अभी हूँ तुम्हारे लिये
चिंता मत करना
गलत बात के आगे मत झुक जाना...
इससे बड़ा संबल एक बेटी के लिए क्या होगा? जब उसके जनक ने ही कहा कि ‘मैं तब भी तुम्हारे साथ था।’, ‘मैं अब भी तुम्हारे साथ हूँ।’, और ‘हमेशा साथ रहूँगा।’
वो एक आलिंगन भाई से, प्रेमी से, पति से... मिलता है और उसे बेफिक्र करता है कि जब फ़िक्र करने वाला बैठा है तो उसे भला किस बात की चिंता।
मित्रता में जब वादे की बात आती है तब सीमा जी कहती हैं-
मित्रता में वादा जैसी कोई बात नहीं होती है न ही होनी चाहिए
क्योंकी याद करना पड़ता है हरपल
कसम खायी है, वादा किया है !!
जैसे सात फेरों की कसमें भी
अक्सर धराशायी हो जाती हैं
यथार्थ की भूमि पर
मित्रता के महत्त्व को वो निम्न पंक्तियों से दर्शाती हैं-
-पर दोस्ती ?
दोस्ती तो कृष्ण और सुदामा की होती है
जो नहीं होती खत्म किसी वादे या कसम की तरह
जो नहीं अवलम्बित होती है कसमों की रस्सी पर
दोस्ती एक विश्वास है
स्त्रियां सहेज लेती हैं... में वें कहती हैं-
स्त्रियां सहेज लेती हैं तुम्हारा प्रेम
वह पहला चुंबन
वह पहली बात जब उसने महसूस किया की शायद तुम ही थे जिसके लिए अब तक उसकी खोज जारी थी...
पसंद, तुम्हारा स्वाद, क्रोध, नाराजगी, खुशी, माँ की देख रेख, पिता का स्वास्थ्य
.
स्त्रियां तुम्हारा सब कुछ सहेजकर "तुम" बन जाती हैं
वो भूल जाती हैं अपनी पसंद
वो भूल जाती हैं अपना स्वाद
वो भूल जाती हैं अपना क्रोध
वो भूल जाती हैं अपनी नाराजगी...
क्योंकि जब स्त्री प्रेम में होती है... तब वो सब कुछ भूल प्रेमी को और उसकी हर बात को सहेजती है...
और जब पुरुष प्रेम में होता है
तो वो स्त्री को ही सहेजने लगता है.. पूरी दुनिया से अलग कर..
हाँ यहीं स्त्रियां प्रेम में जीत जाती हैं और पुरुष हार...
यूँ तो प्रेम एक नितांत ही निजी विषय है पर इस प्रेम के लिए मधुरिमा जी अपनी मधुरिम पंक्तियों में कहती हैं कि-
इश्क क्या है
वही जो तेरी रूह से
मेरी रूह तक होकर
गुजरता है!
और इस तरह वो दोनों रूहों को एकाकार कर एकात्म भाव की स्थापना कर देता है। इस प्रेम के आनंद में सराबोर मन जैसे ही अपने छले जाने का बोध पा लेता है तब छलनी हुआ ह्रदय तड़प जाता है। वह टिस हम भी महसूस करते हैं....और शायद तब वह प्रियतमा विद्रोहिणी जैसा महसूस करती है। तभी तो वह कह जाती है-
तुम बहुत प्यारे थे मगर
जबसे किसी और के हो गए हो
जहर लगते हो जहर
‘ओनर किल्लिंग’ जो एक बहुत ही ज्वलंत मुद्दा रहा है तो भला कवयित्री इस मुद्दे को कैसे छोड़ देती। ‘ओनर किल्लिंग’ नाम शीर्षक से ही लिखी इस कविता में वो स्त्रियों से तंज भरे लहजे में कहती हैं-
तुम अक्सर भूल जाती हो
तुम स्त्री हो...
तुम सपने देखने लगती हो सुख के
तुम उड़ान भरने लगती हो आसमान मेँ
तुम करने लगती हो चुनाव अपने प्रेम का !!
तुम अक्सर भूल जाती हो
तुम स्त्री हो
स्त्री को सपने नहीं देखने चाहिए
स्त्री को उड़ना नहीं चाहिए
स्त्री को सुख पाने का अधिकार नहीं
आसमान मेँ स्त्री का जाना प्रतिबंधित हैं सदियों से !!
तुम अक्सर भूल जाती हो
तुम्हारे घर मेँ पुरुष बसता है
पुरुष जो केवल देखने मेँ पुरुष नहीं
वरन उसके लहू मेँ दौड़ता है पुरुष का अहम
जो तुमपर थोपता ही रहेगा मनमर्जियां
इसलिए सावधान मत भूलना तुम स्त्री हो !!
तुम अक्सर भूल जाती हो
तुम स्त्री हो..
सदियों से प्रताड़ित स्त्री की संवेदनाओं को वो महज टटोलती नहीं अपितु उसे अपनी लेखनी से इतनी जीवंत बना देती हैं कि वह स्वानुभूत सत्य सा जान पड़ता है। देवी की उपमा से विभूषित वह स्त्री जिसे कौमार्य में ‘कुमारी’ और विवाहोपरांत ‘देवी’ कहा जाता है, जिसे वह बिना किसी ना-नुकुर के सहज स्वीकार कर लेती है। और कोई चारा भी तो नहीं है उसके पास... खैर अब यदि ‘कुमारी’ और ‘देवी’ पर विचार करें तो यह दैवीय शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाली किसी भी देवी का प्रतीक माना जाता है? अब विचारणीय तथ्य ये है कि क्या ये पद उसी गरिमानुरूप नामकरण के उसे मिलते हैं? कदापि नहीं? महज प्रताड़ना, लांछन और अपने आप को साबित करने में उसे अपना पूरा जीवन खपाना होता है।
अपनी ‘प्रेम के वशीभूत’ कविता में वह बेटियों को आगाह करती हैं....अपनी चिंता जाहिर करते हुए वो कहती हैं
प्रेम के वशीभूत -----
सुनो लड़कियों जब तुम प्रेम के वशीभूत होकर न
छोड़ पीछे समाज, रिश्ते -नाते बाप, दादा की खड़ी की हुई दीवारें...
भाग जाती हो अपने प्रेमियों के साथ
या फिर छोड़ शर्म हया की दीवार
हमबिस्तर हो जाती हो अपने प्रेमी के साथ
और करती हो गुरुर की तुमने प्रेम को जीत लिया है ----
सुनो लड़कियों ----अक्सर ये तुम्हारा गुरुर झूठा साबित हो उठता है ---
जब तुम्हारा वही प्रेमी...तुम्हारे सँग बिताये एक एक पल को...बाँट रहा होता है अपने साथियों में किसी कथा की तरह ---
तब प्रेम कहीं किसी कोने में दम तोड़ रहा होता है....
और उस तथाकथित प्रेमी के साथी तुम जैसी लड़कियों के लिए एक अलग ही तस्वीर अंकित कर रहे होते हैं अपने अन्तस में ---
इसलिए सुनो तब तक किसी भी दीवार को लाँघने से बचो....जब तक उस प्रेमी के प्रेम की गहराई न जान लो ---
क्योंकि जो प्रेम करते हैं वो अपने प्रेमी की हर हाल में इज्जत करते हैं न की सरेआम नीलामी
‘मै करुँगी प्रेम’ शीर्षक कविता में वो कहती हैं
सुनो , सुन रहे हो ना ?
मैं करूंगी प्रेम
और तुम प्रेम पात्र बन जाना
मुझे विश्वास दिलाना पूर्ण समर्पण का
सुनो, सुन रहे हो ना?
मैं चाहती हूँ तुममें तैरना
तुम नदी बन जाना
और बहा ले जाना दूर कहीं
जहां से वापस आना संभव ना हो!
प्रेम रस में भीनी चदरिया ओढ़ के कवयित्री अपने प्रेमी से एकाकार हो जाना चाहती है परन्तु इस प्रेम में कहीं भी ‘ऐहिक सुख’ प्रमुख नहीं है...वरन वह ‘मनसा स्मरामि’ जैसा अनुभव करती हुई अपने प्रिय की अनुभूतियों में जीना चाहती है क्योंकि वो अनुभूतियाँ उसे सुखी बनाती हैं।
बालिका दिवस पर मुझे प्रेषित उनकी एक रचना का जिक्र मैं कैसे भूल सकती हूँ?
लड़की होना खुद में एक गर्व है
जो लड़ना सीखती हैं जो कोख से
फिर जीवन भर लड़ते ही रहती है
कभी भाईयों से दोयम दर्जे में हासिल पहचान के लिए
तो कभी घर से निकलते ही मंजिल तक पहुंच पाने की लड़ाई
तो कभी उन घूरती निगाहों से भी जो कहलाते तो रिश्तेदार हैं पर ......
कभी उन सनकी प्रेमियों से
जो हाथ में लिए चलते हैं तेज़ाब
और देते हैं नस काटने की धमकियां
सब सीख जाती है समाज के तानों बानों से
तो कभी मायका छोड़ने के लिए खुद के भावों से
तो कभी ससुराल की जद्दोजहद से ----
कभी तेज तर्रार सासू माँ से
तो कभी ननदों की तानाशाही से ----
जब बूढी हो जाती है लड़की
बहु से सास बन जाती है लड़की
तो एक नई लड़ाई शुरू होती है उसके जीवन में
तेज तर्रार बहु के आगे खुद को साबित करने की लड़ाई
और कर दी जाती है अचानक ही हाशिये पर
फिर भी लड़की है इसलिए लड़ती ही रहती है उम्रभर !!!!
‘स्त्री मात्र देह नहीं है’ में वो पुरुष को संबोधित करते हुए कहती हैं..
‘स्त्री मात्र देह नहीं है’
तुम लगाते हो अक्सर इल्जाम स्त्री पर ....
नहीं होती समर्पित तुम्हारी इच्छाओं के आगे ...
अक्सर उसकी हामी पर ना भारी रहती है ..
तो सुनो ऐ पुरुष!
स्त्री मात्र देह नहीं है
जिसे समर्पित कर पूरी कर सके तुम्हारी इच्छाओं को ...
स्त्री है जीती जागती संवेदनाओ का प्रतिरूप ..
जिससे पोषित होता है संसार
खुद की नीदें त्यागकर बनाती है।
यहाँ मैं सीमा जी से ये कहना चाहूंगी की स्त्री देह नहीं वह तो एक मूर्ति है जिसके अन्दर एहसास नाम की कोई चीज नहीं होती , जब मन करे प्रेम आये तो ‘दुग्धाभिषेक’ कर दो जब उसे लांछित करना चाहो ‘कीचड़’ उछाल दो। वास्तव में उसकी ना का मतलब होता है पुरुषत्व को चुनौती देना। दरअसल इनकी नजर में स्त्री को ‘ना’ कहने का हक़ ही नहीं है।
सीमा मधुरिमा की कविताएँ वास्तव में स्त्री मन का हर एक कोना झांक लेती हैं...उसकी हर एक संवेदना का स्पर्श करती है। भ्रूण होने से लेके वृद्ध होने तक जीवन के हरेक कोणों को हम उनकी कविताओं में आसानी से तलाश करते हैं। एक प्रताड़ित स्त्री जब इन कविताओं को पढ़ती है तो उसका उसके वर्तमान जीवन से मोहभंग होता है और एक जीवन जीने का एक नवीन दृष्टिकोण उसे प्राप्त होता है। सच में ये कविताएँ दुखते रग पर मरहम जैसी हैं।
*****
रिंकी दीदी आपने बिल्कुल सही कहा - " सीमा मधुरिमा की कविताएँ वास्तव में स्त्री मन का हर एक कोना झाँक लेती हैं... उसकी हर एक संवेदना का स्पर्श करती हैं। भ्रूण होने से लेकर वृद्ध होने तक जीवन के हरेक कोणों को हम उनकी कविताओं में आसानी से तलाश करते हैं।"
हम मानते हैं कि सत-प्रतिशत सीमा मधुरिमा दीदी की कविताएँ समकालीन भारतीय स्त्री विमर्श की जीवंत दस्तावेज हैं और डॉ० रिंकी रविकांत दीदी की आलोचना दृष्टि समकालीन युवा आलोचकों के लिए अनुकरणीय है।
आप दोनों को साहित्य जगत में नई धारा प्रवाहित करने हेतु भौत-भौत बधाई।
जै सीता मैया की।
©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा
'कुशराज झाँसी'
(युवा आलोचक, सामाजिक कार्यकर्त्ता)
9/5/2024, झाँसी
वाह वाह बहुत ही शानदार 👏🏻👏🏻👏🏻
ReplyDeleteआप दोनों ने ही मेरी कविताओं को जो प्रेम दिया है उसे आभार प्रकट करके मैं कम नहीं करना चाहती 🥰🥰
रिंकी और कुशराज तुम दोनों को ही ढेरों आशीष 🥰🙌🏻
वाह वाह बहुत ही शानदार 👏🏻👏🏻👏🏻
ReplyDeleteआप दोनों ने ही मेरी कविताओं को जो प्रेम दिया है उसे आभार प्रकट करके मैं कम नहीं करना चाहती 🥰🥰
रिंकी और कुशराज तुम दोनों को ही ढेरों आशीष 🥰🙌🏻
सीमा मधुरिमा 😊